ज्योतिषशास्त्रानुसार भविष्य बताने की पद्धति एवं प्रारब्ध पर मात करने हेतु साधना एवं क्रियमाणकर्म का महत्त्व

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प्रश्‍न : ‘ज्योतिषशास्त्र प्रारब्धानुसार होनेवाली घटना बताता है या क्रियमाणकर्म ध्यान में रखकर भी बताता है ? साधना द्वारा  क्रियमाणकर्म से प्रारब्ध पर मात कर सकते हैं क्या ? कितने प्रतिशत पर यह साध्य होता है ? – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

 

१. ज्योतिषियों के प्रकार

१ अ. जन्मज्योतिषी

गत जन्मों की साधना के कारण व्यक्ति को जन्म से ही ज्योतिष विद्या का ज्ञान होता है । ज्योतिषशास्त्र से संक्षिप्त परिचय होने पर भी व्यक्ति को उसकी सभी बारीकियों का अपनेआप बोध होने लगता है ।

१ आ. विद्याप्रवीण

साधना द्वारा गुरु से सूक्ष्म से ज्योतिषविद्या धारण करता है, उस शिष्य को ‘विद्याप्रवीण’ कहते हैं । ऐसे शिष्य को किसी व्यक्ति का भविष्य बताते समय पुस्तकों के शास्त्रवर्णन अथवा व्यक्ति की जन्मपत्रिका की आवश्यकता नहीं लगती ।

१ इ. परविद्याप्रवीण

कुछ ज्योतिषियों को दिव्यात्मा, अतृप्त आत्मा अथवा देवगण सूक्ष्म से मार्गदर्शन कर व्यक्ति के भविष्य के विषय में बताते हैं । ऐसे ज्योतिष के पास अपनी विद्या नहीं होती । वह अन्यों पर निर्भर रहता है । इसलिए उन्हें ‘परविद्याप्रवीण’, कहते हैं ।

१ ई. शास्त्रज्ञान

ग्रहमान, हस्तरेखा, जन्मदिनांक, रास इत्यादि का शास्त्रीय गणित प्रस्तुत कर व्यक्ति का भविष्य लिखा जाता है । ज्योतिष बताने की इस पद्धति को ज्योतिषों की ‘शास्त्रनीति’ कहते हैं ।

१ उ. द्रष्टा

व्यक्ति की वर्तमानस्थिति, वह जो साधना कर रहा है एवं उसके अगामी जीवन पर होनेवाले परिणामों का गणित प्रस्तुत कर भविष्य बताया जाता है । भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल का जिसे ज्ञान है, ऐसा महात्मा ही ऐसे भविष्य बता सकता है ।

१ ऊ. गूढज्योतिष एवं उसका स्वरूप

१ ऊ १. मृत्यु का समय टाला जा सकना

तंत्रमार्ग के ज्योतिष को व्यक्ति के मृत्यु का अचूक समय ज्ञात होता है । तंत्रविद्या में विशिष्ट उपासना करने से मृत्यु के समय शरीर में होनेवाली आध्यात्मिक क्रिया रुक जाती है । मृत्यु का समय यदि चूक जाए, तो ऐसे व्यक्ति को नवजीवन प्राप्त हो सकता है । यह नया जीवन व्यक्ति के अगले जन्म की आयु से घट जाता है ।

१ ऊ २. कर्मआघातों का मार्ग परिवर्तित करना

एक उपासना द्वारा आरंभ अथवा गत जन्म में विशिष्ट कर्मदोषों के कारण विशिष्ट आ‌प‌त्ति आनेवाली हो, तो कुछ आध्यात्मिक उपायों द्वारा कर्मदोषों का मार्ग परिवर्तित हो सकता है; परंतु कर्मदोष पुन: अलग पद्धित से प्रकट होकर व्यक्ति को उतना ही प्रारब्ध भोगना होता है; परंतु उसका स्वरूप बदल गया होता है ।

१ ऊ ३. ग्रहबाधानियंत्रण

व्यक्ति को विशिष्ट ग्रहों की युति के कारण बाधा होनेवाली हो, तो उस समय विशिष्ट उपासना अथवा धार्मिक विधि करने से उन ग्रहों का अनिष्ट परिणाम व्यक्ति पर न होकर उसे कार्य में सफलता मिलती है; परंतु वह संकट कुछ समय बीतने पर पुन: संबंधित व्यक्ति को अलग स्वरूप में भोगना होता है । पहले के राजा युद्ध में विजय प्राप्त होने के लिए एवं प्रजा के कल्याण के लिए इस पद्धति का उपयोग करते थे ।

१ ऊ ४. अंगुलीनिर्देश

कुछ तंत्रमार्गी ज्योतिषी मौन रहकर केवल उंगलियों के संकेतों से निर्देश करते हुए भविष्य बताते हैं । उस पद्धति को ‘अंगुलीनिर्देश’ कहते हैं । ऐसे व्यक्ति अपनी गूढविद्या प्रकट नहीं करना चाहते, परंतु संबंधित व्यक्ति को घटनाओं के विषय में ज्ञान देने के इच्छुक हैं ।

१ ऊ ४ अ. व्यक्ति के प्रश्नों के उत्तर संख्या अथवा विशिष्ट मुद्रा में देना

ज्योतिष को व्यक्ति का भविष्य बताते समय गूढ विद्या के  सूक्ष्म संकेतानुसार उंगलियों की हलचल करनी होती है । उसमें ज्योतिषी एकाग्र हुआ होता है । इसलिए ज्योतिषी अपना कहना शब्दरूप में न बताते हुए अन्य ज्ञानी व्यक्ति की सहायता लेता है । ऐसे समय पर ज्योतिषी अपनी उंगलियों द्वारा व्यक्ति के प्रश्नों के उत्तर देता है । उंगलियों के संकेत एवं उसके अर्थ भी भिन्न होते हैं । उनमें से जानकार वहां उपस्थित होने पर संबंधित व्यक्ति को उसका ज्ञान हो सकता है । उंगलियों से उत्तर देने की पद्धति संख्या (दो, तीन अथवा चार उंगलियां एकत्र कर) अथवा विशिष्ट मुद्रा से दी जाती है, उदा. प्रश्न पूछनेवाले व्यक्ति की युद्ध में विजय होनेवाली होगी, तो तांत्रिक दाएं हाथ की केवल तर्जनी ऊंची करेगा अथवा आशीर्वाद का हाथ करेगा एवं यदि व्यक्ति की पराजय होनेवाली होगी तो बाईं हथेली पर दाईं हथेली जोर से घिसने के संकेत से व्यक्ति युद्ध में मिट्टी में मिल जाएगा अर्थात पराजित होने का संकेत दिया जाता है ।

ये ज्योतिषी एक ही स्थान पर नहीं निवास करते, अपितु भ्रमण करते रहते हैं ।

१ ऊ ४ आ. ज्योतिष बताते समय उंगलियों की मुद्रा की कुछ पद्धतियां एवं नृत्यप्रकार की कुछ मुद्राओं में समानता है ।

 

२. साधना से प्रारब्ध पर मात कर पाने का स्वरूप

२ अ. तीव्र प्रारब्ध

अनेक बार भोगना पडता है । साधना द्वारा उसमें कुछ अंश में परिवर्तन होता है । साधना की तीव्र इच्छा एवं ईश्वरीय कृपा होगी तो इससे छुटकारा मिल सकता है ।

२ अ १. तीव्र प्रारब्ध के लक्षण

अ. यंत्रवत जीवन : मनुष्य का जीवन यंत्रवत हो गया है । पहले जो कुछ हुआ है, उसे केवल भोगना ही ऐसे व्यक्तियों के हाथ में होता है ।

आ. बुद्धि के अधीन होना : मन एवं बुद्धि पर अपना नियंत्रण नहीं होता ।

२ अ २. तीव्र प्रारब्ध पर उपाय

अ. व्यक्ति को साधना करने की बुद्धि नहीं होती; परंतु उसे सातत्य से संतसंग में रखना, जागृत देवस्थान के दर्शन करवाना, धर्मकार्य में  प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सम्मिलित करवाकर लेने से संबंधित व्यक्ति के जीवन में सुधार होने की संभावना होती है ।

आ. व्यक्ति को सुबुद्धि प्राप्त हो एवं साधना की अडचनें दूर हों, इसलिए गुर्वाज्ञानुसार संबंधित व्यक्ति के कुटुंब के अन्य व्यक्ति यज्ञ अथवा विशिष्ट साधना कर सकते हैं ।

२ अ ३. तीव्र प्रारब्ध में परिवर्तन होने के चरण

अ. पूर्वकर्मों के कारण व्यक्ति का मन बहुत दुःख सहन करता है । तदुपरांत उसमें इस जीवन में परिवर्तन की इच्छा निर्माण होती है और तब वह साधना की ओर मुडता है ।

आ. गत जन्मों में किसी अच्छे कर्म के प्रकट होने पर उसे उच्च आध्यात्मिक स्तर के संतों के सत्संग में जाने का योग आता है, तब व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन हो सकता है ।

२ आ. मध्यम प्रारब्ध

साधना द्वारा प्रारब्ध पर मात कर पाने से प्रारब्ध भोगने की तीव्रता अल्प होती है अथवा उसका स्वरूप बदल जाता है ।

२ इ. मंद प्रारब्ध

साधना से प्रारब्ध पर पूर्ण मात कर सकते हैं ।

 

३. आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप प्रारब्ध एवं क्रियमाणकर्म की मात्रा

 स्तर प्रारब्ध (प्रतिशत) क्रियमाण कर्म (प्रतिशत) प्रारब्ध पर मात करने के लिए क्रियमाण कितना होना चाहिए ?
२० ९० १० १०० ईश्वरीय कृपा होने पर ही क्रियमाण का उपयोग कर सकते हैं ।
३० ८० २० १००
४० ७० ३० ८० स्वप्रयत्नों से क्रियमाण का उपयोग प्रारंभ होता है ।
५० ६० ४० ७०
६० ५० ५० ५० ६० प्रतिशत स्तर तक क्रियमाणकर्म का पूर्ण उपयोग करना होता है ।
७० ३० ७० ३० ६१ प्रतिशत के उपरांत ईश्वरीय कृपा बढनी आरंभ होने से क्रियमाण कर्म का अधिक उपयोग न कर, अपनेआप साधना होने लगती है । इससे क्रियमाण कर्म की मात्रा अल्प होती जाती है ।
८० १० १० १० जीवन परेच्छा एवं ईश्वरेच्छा से चलता है ।
९० जीवन ईश्वरेच्छा से चलता है ।
१००

आध्यात्मिक स्तर ५५ प्रतिशत से गुरुकृपा का आरंभ होता है । तदुपरांत व्यक्ति को प्रारब्ध पर मात करना सुलभ होता है ।’

– श्री. राम होनप, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (८.१.२०१७)

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