अनुक्रमणिका
- १. मृत्युकुंडली में भौतिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक स्वरूप के ग्रहयोग प्रधान होने से होनेवाले परिणाम
- २. ग्रह, राशि, नक्षत्र एवं कुंडली के स्थानों का भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक, इस अनुसार हुआ विभाजन
- ३. ‘जीव को मृत्युत्तर गति कैसे मिलेगी ?’, इस संबंध में बोध करानेवाले कुछ ज्योतिषशास्त्रीय मापदंड
- ४. उच्च लोकों में (सप्तलोकों में) जीव को स्थान मिलना
- ५. निचले लोकों में (सप्तपातालों में) जीव को स्थान मिलना
- ६. जीवित लोगों की मृत्युकुंडली न बना पाना
- ७. सनातन की संत पू. (कै.) श्रीमती शालिनी माईणकरदादी के देहत्याग के समय बनाई गई कुंडली का (मृत्युकुंडली का) ज्योतिषशास्त्रीय विश्लेषण
‘जीव का जन्म एवं मृत्यु प्रारब्धानुसार होते हैं । जन्मकुंडली से जीव को इस जन्म में भोगे जानेवाले प्रारब्ध की तीव्रता एवं प्रारब्ध के स्वरूप का बोध होता है । जीव की मृत्यु के समय बनाई गई कुंडली द्वारा ‘जीव को मृत्यु के पश्चात कैसी गति मिलेगी ?’, यह समझ में आ सकता है । इसे ‘मृत्युकुंडली’ कह सकते हैं । मृत्युकुंडली से व्यक्ति द्वारा उसके अपने जीवन में किए गए अच्छे-बुरे कर्मों का भी बोध होता है ।
१. मृत्युकुंडली में भौतिक, मानसिक अथवा
आध्यात्मिक स्वरूप के ग्रहयोग प्रधान होने से होनेवाले परिणाम
१ अ. भौतिक
मृत्युकुंडली में भौतिक स्वरूप के ग्रहयोग प्रधान होने से जीव को मृत्यु के उपरांत गति अच्छी नहीं मिलती । इसलिए उसे पुनर्जन्म लेना पडता है । ऐसे जीव ने अपने जीवनकाल में केवल भौतिक सुख, धन, मान, प्रतिष्ठा आदि पाने के लिए प्रयत्न किए थे । इसलिए स्वार्थ, वासना, षडरिपु एवं माया के आकर्षण की मात्रा बहुत अधिक होती है ।
१ आ. मानसिक
मृत्युकुंडली में मानसिक स्वरूप को ग्रहयोग प्रधान होने से जीव को मध्यम गति मिलती है और पुनर्जन्म की संभावना ५० प्रतिशत होती है । ऐसे जीव ने अपने जीवनकाल में विद्यादान, शोधकार्य, समाजसेवा अथवा परोपकार आदि किया होता है; परंतु उसकी इच्छा, वासना आदि का लोप नहीं हुआ होता है ।
१ इ. आध्यात्मिक
मृत्युकुंडली में आध्यात्मिक स्वरूप के ग्रहयोग प्रधान होने से जीव को अच्छी गति मिलती है और पुनर्जन्म की संभावना अत्यल्प होती है । ऐसे जीव ने अपने जीवनकाल में गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना की होती है । उनका बहुतांश प्रारब्ध भोगकर समाप्त हो चुका होता है, इसके साथ ही उनका मनोलय हो चुका होता है ।
२. ग्रह, राशि, नक्षत्र एवं कुंडली के स्थानों का
भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक, इस अनुसार हुआ विभाजन
ज्योतिषशास्त्र में ग्रह, राशि, नक्षत्र एवं कुंडली के स्थान, ये फलादेश करने हेतु प्रमुख घटक हैं । इन घटकों की भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक, इस अनुसार हुआ विभाजन आगे दी गई सारणी में दिया है, उदा. शुक्र, मंगल एवं राहू, ये भौतिक स्वरूप के ग्रह हैं; अर्थात वे धन, आसक्ति, भोग, वासना आदि के कारक हैं ।
ग्रह | राशि | नक्षत्र | कुंडली के स्थान | |
---|---|---|---|---|
भौतिक | शुक्र, मंगल, राहू | मेष, कर्क, तुल एवं मकर | राक्षसगणी नक्षत्र (टिप्पणी १) | १, ४, ७, १० |
मानसिक | रवि, चंद्र, बुध | वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुंभ | मनुष्यगणी नक्षत्र (टिप्पणी २) | २, ५, ८, ११ |
आध्यात्मिक | गुरु, शनि, केतू | मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन | देवगणी नक्षत्र (टिप्पणी ३) | ३, ६, ९, १२ |
टिप्पणी १ – राक्षसगणी नक्षत्र : कृत्तिका, आश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूळ, धनिष्ठा एवं शततारका, ये ९ नक्षत्र राक्षसगणी हैं । उनमें तमोगुण अधिक होता है ।
टिप्पणी २ – मनुष्यगणी नक्षत्र : भरणी, रोहिणी, आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, पूर्वाभाद्रपदा एवं उत्तराभाद्रपदा, ये ९ नक्षत्र मनुष्यगणी हैं । उनमें रजोगुण अधिक होता है ।
टिप्पणी ३ – देवगणी नक्षत्र : अश्विनी, मृग, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाती, अनुराधा, श्रवण एवं रेवती, ये ९ नक्षत्र देवगणी हैं । उनमें सत्त्वगुण अधिक होता है ।
३. ‘जीव को मृत्युत्तर गति कैसे मिलेगी ?’,
इस संबंध में बोध करानेवाले कुछ ज्योतिषशास्त्रीय मापदंड
३ अ. कुंडली के स्थान
कुंडली के स्थान अर्थात आकाश का बारहवां भाग । कुंडली के प्रत्येक स्थान पर से जीवन की विविध बातें देखी जाती हैं ।
३ अ १. प्रथम स्थान : प्रथम स्थान अर्थात पूर्वक्षितिज पर दिखाई देनेवाला आकाश का भाग । यह कुंडली का महत्त्वपूर्ण स्थान है । मृत्यु के समय पर वहां जो ग्रह होगा, वह मृत्यु के उपरांत के प्रवास के विषय में यथावत बोध कराता है । इस स्थान में आध्यात्मिक स्वरूप का ग्रह हो तो अच्छी, मानसिक स्वरूप का ग्रह होने से मध्यम एवं भौतिक स्वरूप का ग्रह होने से अल्प गति मिलती है ।
३ अ २. दशम स्थान : प्रथम स्थान के समान ही ‘दशम’ स्थान भी महत्त्वपूर्ण है । दशम स्थान अर्थात सिर के ठीक ऊपर विद्यमान आकाश का भाग । इस स्थान पर विद्यमान ग्रह जीव के कर्मबंधन के विषय में सूचित करता है । इस स्थान में गुरु, शनि अथवा केतु ग्रह शुभ स्थिति में होने से व्यक्ति के जीवन में अच्छी साधना करने से उसे कर्मबंधन शेष नहीं रहता ।
३ अ ३. पंचम एवं नवम स्थान : कुंडली के पंचम एवं नवम, यह अनुक्रम से उपासना एवं साधना से संबंधित स्थान हैं । मृत्युकुंडली में इन स्थानों में रवि, चंद्र, गुरु आदि सत्त्वगुणी ग्रह शुभ स्थिति में होने से जीव की उपासना एवं गत जन्म के पुण्यकर्मों से उसे अच्छी गति मिलती है ।
३ अ ४. चतुर्थ, सप्तम एवं एकादश स्थान : कुंडली के चतुर्थ, सप्तम एवं एकादश, ये स्थान अनुक्रम में सुख, भोग एवं अर्थलाभ के कारण हैं । मृत्युकुंडली में इन स्थानों में शुक्र, मंगल, राहू आदि भौतिक स्वरूप के ग्रह भौतिक स्वरूप की राशियों में हों, तो जीव की इच्छाएं अपूर्ण रह गई होती हैं । इसलिए उनकी लिंगदेह भुवलोक में अटक जाती है ।
३ आ. भावेश
कुंडली के स्थान के स्वामी ग्रह को ‘भावेश’ कहते हैं । भावेश यह दर्शाता है कि संबंधित स्थान का फल अनुकूल मिलेगा अथवा प्रतिकूल ?
३ आ १. प्रथम स्थान का स्वामी (लग्नेश) आध्यात्मिक ग्रह होने से वह पंचम अथवा नवम, इन धर्मस्थानों में शुभ स्थिति में होने से व्यक्ति का आचरण अच्छा होने से उसे अच्छी गति मिलती है ।
३ आ २. प्रथम स्थान का स्वामी (लग्नेश) आध्यात्मिक ग्रह होने से वह अष्टम अथवा द्वादश, इन मोक्षस्थानों में शुभ स्थिति में होने से व्यक्ति की साधना अच्छी होने से उसे उत्तम लोक में स्थान मिलता है ।
३ आ ३. प्रथम स्थान का स्वामी (लग्नेश) भौतिक ग्रह होने से उसका द्वितीय, सप्तम अथवा एकादश, इन माया से संबंधित स्थानों में होेने से व्यक्ति का प्रारब्ध शेष होने से उसे पुन: जन्म लेना पडता है ।
३ आ ४. प्रथम स्थान के स्वामी समान ही दशम स्थान के स्वामी का भी विचार किया जाता है ।
३ इ. नक्षत्र
३ इ १. मृत्युकुंडली में अधिकाधिक ग्रह ‘देवगणी’ (सत्त्वगुणी) नक्षत्रों में होने से उन ग्रहों में शुभयोग होने से व्यक्ति द्वारा जीवन में सत्कर्म करने से उसे उर्ध्वगति प्राप्त होती है ।
३ इ २. मृत्यूकुंडली में अधिकाधिक ग्रह ‘राक्षसगणी’ (तमोगुणी) नक्षत्रों में होने से उन ग्रहों में अशुभयोग होने से व्यक्ति ने जीवन में काफी पापकर्म करने से उसकी अधोगति होती है ।
४. उच्च लोकों में (सप्तलोकों में) जीव को स्थान मिलना
मृत्युकुंडली में जितने उच्च प्रति के शुभयोग होंगे, उतना उच्च लोकों में (सप्तलोकों में) जीव को स्थान मिलता है ।
५. निचले लोकों में (सप्तपातालों में) जीव को स्थान मिलना
मृत्युकुंडली में जितने तीव्र अशुभयोग होंगे, उतने निचले लोकों में (सप्तपातालों में) जीव को स्थान मिलता है ।
उपरोक्त मापदंड ज्योतिषशास्त्र के मूलभूत घटकों का गुणधर्म ध्यान में लेकर तर्क के आधार पर प्रविष्ट किया है । प्रत्यक्ष कुंडलियोंं का अभ्यास करते समय अधिक समर्पक मापदंड ध्यान में आ सकेगा ।
६. जीवित लोगों की मृत्युकुंडली न बना पाना
ज्योतिषशास्त्र द्वारा ‘व्यक्ति की मृत्यु की संभावना कब है ?’, यह पता चल सकता है; परंतु मृत्यु का निश्चित दिन एवं समय बताना बहुत कठिन है । ‘कोई घटना होने के लिए पूरक काल कौनसा है ?’, यह ज्योतिष बता सकते हैं; परंतु ‘उस घटना का निश्चित समय केवल बुद्धि द्वारा कुंडली का अभ्यास करके नहीं बता सकते । केवल सर्वज्ञानी संत अथवा संत-ज्योतिष ही यह बता सकते हैं ।
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, गोवा. (२७.८.२०२१)
७. सनातन की संत पू. (कै.) श्रीमती शालिनी माईणकरदादी
के देहत्याग के समय बनाई गई कुंडली का (मृत्युकुंडली का) ज्योतिषशास्त्रीय विश्लेषण
सनातन के ८६ वीं संत पू. (कै.) श्रीमती शालिनी माईणकरदादी ने ११.५.२०२१ को उत्तररात्रि १.३८ को फोंडा, गोवा में देहत्याग किया । उनके देहत्याग के समय बनाई कुंडली का ज्योतिषशास्त्रीय विश्लेषण आगे दिया है ।
पू. (श्रीमती) शालिनी माईणकरदादी
७ अ. देहत्याग के समय की कुंडली नीचे दी है ।
पू. (कै.) श्रीमती शालिनी माईणकर दादी के देहत्याग के समय बनाई कुंडली (मृत्युकुंडली)
७ आ. ज्योतिषशास्त्रीय विश्लेषण
७ आ १. कुंडली में प्रथम स्थान पर गुरु, यह आध्यात्मिक ग्रह है । गुरु ग्रह भावमध्य पर है, अर्थात वह पूर्वक्षितिज से सटा है । इसका अर्थ ‘गुरु ग्रह उदित होने के ठीक समय पर पू. माईणकरदादी ने देहत्याग किया ।’ यह एक उच्च आध्यात्मिक योग है । संतों की कुडलियों में ऐसे योग पाए जाते हैं ।
७ आ २. प्रथम स्थान का स्वामी शनि ग्रह बारहवें स्थान पर है । शनि, आध्यात्मिक स्वरूप का ग्रह होने से बारहवां स्थान मोक्षस्थान है । यह उच्च आध्यात्मिक योग होने से पू. दादी को उच्च लोक में स्थान मिला है और यह दर्शाता है कि उन्हें पुनर्जन्म नहीं है ।
७ आ ३. दशम स्थान में केतू ग्रह है । दशम स्थान कर्म का कारक होने से केतु लय का कारक है । यह योग यह दर्शाता है कि ‘साधना के कारण पू. दादी के संचित कर्म का लय होने से उन्हें कर्मबंधन शेष नहीं ।
७ आ ४. ११.५.२०२१ को उत्तररात्रि १२.३० तक अमावास्या तिथि थी । पू. दादी ने उत्तररात्रि १.३८ बजे अर्थात अमावास्या समाप्त होकर ‘शुक्ल प्रतिपदा’ यह तिथि आरंभ होने के उपरांत देहत्याग किया । अमावास्या पर वातावरण की सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव अधिक होने से लिंगदेह को गति मिलने में बाधा आती है ।
उपरोक्त विश्लेषण द्वारा यह ध्यान में आता है कि संतों का देहत्याग उनके लिए पूरक ग्रहस्थिति में होता है ।