‘जनन अर्थात जन्म होना । नवजात (हाल ही में जन्मे) शिशु के संदर्भ में दोष-निवारण के लिए की जानेवाली विधि को ‘जननशांति’ कहते हैं । नवजात शिशु का अशुभ काल में जन्म होने से अथवा विशिष्ट परिस्थिति में जन्म होने से दोष लगता है । इस विषय में अधिक जानकारी इस लेख द्वारा समझ लेंगे ।क्या जनन शांति अनिवार्य है ?
१. अशुभ काल में जन्म होने से लगनेवाले दोष
आगे दी गई सारणी में दिए गए योगों पर शिशु का जन्म होने से अशुभ कालसंबंधी दोष लगता है ।
घटक | विवरण |
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१. तिथि | कृष्ण चतुर्दशी, अमावस्या एवं क्षयतिथि (टिप्पणी १) |
२. नक्षत्र | अश्विनी नक्षत्र के पहले ४८ मिनट, पुष्य नक्षत्र का दूसरा एवं तीसरा चरण, आश्लेषा नक्षत्र पूर्ण, मघा नक्षत्र का प्रथम चरण, उत्तरा नक्षत्र का प्रथम चरण, चित्रा नक्षत्र का पहला और दूसरा चरण, विशाखा नक्षत्र का चतुर्थ चरण, ज्येष्ठा नक्षत्र पूर्ण, मूल नक्षत्र पूर्ण, पूर्वाषाढा नक्षत्र का तीसरा चरण एवं रेवती नक्षत्र के अंत के ४८ मिनट |
३. योग | वैधृती एवं व्यतीपात |
४. करण | विष्टी (भद्रा) |
५. पर्वकाल | ग्रहण पर्वकाल (टिप्पणी २), सूर्यसंक्रमण पुण्यकाल (टिप्पणी ३) |
६. अन्य योग | दग्धयोग, यमघंटयोग एवं मृत्युयोग (टिप्पणी ४) |
संदर्भ : दाते पंचांग
टिप्पणी १ – क्षयतिथि : ‘जो तिथि सूर्योदय के उपरांत आरंभ होकर अगले दिन के सूर्योदय पूर्व समाप्त होती है, अर्थात कोई भी सूर्यादय नहीं देखती’, ऐसी तिथि को ‘क्षयतिथि’ कहते हैं ।
टिप्पणी २ – ग्रहण पर्वकाल : सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण का काल
टिप्पणी ३ – सूर्यसंक्रमण पुण्यकाल : सूर्य एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश करता है, वह काल ।
टिप्पणी ४ – दग्धयोग, यमघंटयोग एवं मृत्युयोग : तिथि, वार एवं नक्षत्र के संयोग से निर्माण होनेवाले अशुभ योग
१ अ. अशुभ काल में जन्म होने से शिशु पर होनेवाले परिणाम
श्री. निषाद देशमुख
‘प्रारब्धानुसार जिन जीवों को अधिक कष्ट भोगने होते हैं’, ऐसे जीवों का जन्म अशुभ काल में होता है । ऐसे जीव विशिष्ट ग्रहों की शक्ति अल्प मात्रा में ग्रहण कऱ पाते हैं । अशुभ काल में जन्मे जीवों पर उनके प्रारब्ध की तीव्रता अनुसार विविध त्रास होते हैं । मंद प्रारब्धवाले जीवों का जन्म अशुभ काल में होने पर उसे पुनःपुन: ज्वर (बुखार) आना, थकान होना, बुरे स्वप्न आना आदि कष्ट होते हैं । मध्यम प्रारब्धवाले जीवों का जन्म अशुभ काल में होने पर उनका चलना अथवा बोलना देर से शुरू होता है, बुद्धि से संबंधित कष्ट होना आदि कष्ट होते हैं । तीव्र प्रारब्धवाले जीव का जन्म अशुभ काल में होने पर शिक्षा इत्यादि में देर से रुचि निर्माण होना अथवा न होना, युवावस्था में विविध प्रकार के व्यसन लगना, सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों का कष्ट होना आदि कष्ट होते हैं । ज्योतिषशास्त्र में बताई गई जननशांति करने पर जीव का मंद एवं मध्यम प्रारब्ध कुछ मात्रा में अल्प होता है और तीव्र प्रारब्ध भोगने के लिए जीव को ईश्वर से शक्ति मिलती है ।’
– श्री. निषाद देशमुख (सूक्ष्म से मिला ज्ञान, आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२८.१०.२०२२)
२. विशिष्ट परिस्थिति में जन्म होने से लगनेवाले दोष
आगे दी गई सारणी में दी गई परिस्थिति में शिशु का जन्म होने से जननशांति की जाती है ।
स्थिति | विवरण |
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१. यमल | अर्थात जुडवां संतान होना |
२. एकनक्षत्र | भाई-बहन, माता एवं पिता का एवं शिशु का जन्मनक्षत्र एक ही होना |
३. त्रिकप्रसव | तीन पुत्रों के उपरांत पुत्री अथवा तीन पुत्रियों के उपरांत पुत्र का जन्म होना |
४. सदंत जन्म | शिशु के जन्मजात दांत होना |
५. विपरीत जन्म | अवयव चमत्कारिक, अल्प अथवा अधिक होना |
संदर्भ : धर्मसिंधु
२ अ. विशिष्ट परिस्थिति में जन्म होने पर जननशांति करने का कारण
‘प्रत्येक जीव का प्रारब्ध अलग-अलग होता है । कुछ जीवों के प्रारब्ध की तीव्रता (कष्ट के प्रसंग) अन्यों की तुलना में अधिक होती है । उन जीवों का जन्म विशिष्ट परिस्थिति में होता है । संतान ‘जुडवां’ अथवा ‘एकनक्षत्र’ होना, यह उनके कुटुंबियों से लेन-देन अधिक होने का दर्शक है । संतान ‘त्रिकप्रसव’ होना, यह कुटुंब में पूर्वजों के कष्ट होने का दर्शक है । शिशु को जन्म से ही दांत होना अथवा अवयव चमत्कारिक होना, उसके प्रारब्धचक्र गति से आरंभ होने का दर्शक है अर्थात जीव को प्रारब्धभोग एक के बाद एक भोगने होते हैं । जन्मत: अवयव अल्प होना, यह दर्शाता है कि इस जीव के जीवन में दुःख के प्रसंग अधिक हैं । इसप्रकार के घोर प्रारब्ध सहन करने के लिए कालदेवता की, अर्थात ग्रहों की सकारात्मक शक्ति मिले’, इसलिए हिन्दू धर्म में जननशांति का उपाय बताया है ।’
– श्री. निषाद देशमुख (सूक्ष्म से मिला ज्ञान, आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत)
३. जननशांति विधि करने से शिशु को होनेवाले लाभ !
आगे सारणी में दिए हैं ।
सूक्ष्म स्तर के लाभ | लाभ की मात्रा (प्रतिशत) | प्रत्यक्ष लाभ |
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१. शिशु को प्राणशक्ति मिलना | ४० | अ. शिशु को विविध प्रकार के रोग होना; परंतु वे अल्प अवधि में ठीक होना
आ. शिशु की वृद्धि (बढत) और विकास अन्य बच्चों समान होना, अर्थात शिशु स्वस्थ रहना |
२.शिशु के सर्व ओर ईश्वरीय शक्ति का सूक्ष्मकवच निर्माण होना | ३० | अ. शिशु को अखंडित एवं शांत निद्रा आना, सख्ती से दूध अथवा आहार न देना पडना
आ. शिशु को पुनःपुन: विविध कष्ट न होना |
३. प्रारब्ध की तीव्रता अल्प होना | २० | अ. शिशु को कष्ट होने पर उस संदर्भ में उपाय बतानेवाले विशेषज्ञ सहजता से मिलना
आ. शिशु के बडे होने पर उसे स्वयं को होनेवाला कष्ट ध्यान में आकर उन पर नियंत्रण पा लेना |
४. अन्य (देवताओं के आशीर्वाद मिलना, मन एवं बुद्धि पर माया का आवरण शीघ्र दूर होना इत्यादि) | १० | अ. शिशु अधिक आनंदी रहना
आ. सात्त्विक लोग, वस्तु अथवा स्थान की ओर आकर्षित होना |
कुल | १०० |
ऐसा नहीं है कि जननशांति विधि से उपरोक्त सारणी में दिए सभी लाभ शिशु को प्राप्त होंगे । शिशु के प्रारब्ध एवं भाव के अनुसार उन पर अल्प अथवा अधिक परिणाम होता है । गुरु की आज्ञानुसार अथवा अच्छे आध्यात्मिक स्तर के पुरोहितों के मार्गदर्शन में भावपूर्ण एवं परिपूर्ण रीति से यह विधि करना आवश्यक है । वर्तमान कलियुग में भावपूर्ण एवं परिपूर्ण विधि करनेवाले पुरोहित मिलना अत्यंत दुर्लभ है । ऐसा होने पर भी इस विधि के माध्यम से धर्मशास्त्रानुसार आचरण अर्थात साधना होने से उसका फल जीव को निश्चितरूप से मिलता है ।’
– श्री. निषाद देशमुख (सूक्ष्म से मिला ज्ञान, आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत)
४. जन्म होने के उपरांत कितने दिनों में जननशांति करें ?
शिशु के जन्म के पश्चात बारहवें दिन जननशांति करें । उस दिन शांति के लिए अलग से मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती । बारहवें दिन जननशांति करना संभव न हो, तो शिशु के जन्मनक्षत्र में चंद्र आए, उस दिन अथवा अन्य शुभ दिन मुहूर्त देखकर शांतिकर्म करें । जननशांति अधिक विलंब से करने पर उसकी परिणामकारकता अल्प होती है । इसलिए वह लाभदायक है ।’