१. प.पू. डॉक्टरजी के प्रथम दर्शन
वर्ष १९९० में शीव (मुंबई) आश्रम में मुझे प.पू. डॉक्टरजी के दर्शन हुए । उस समय सेवा के निमित्त आश्रम में मेरा आना-जाना लगा रहता था । इसके उपरांत मुझे आश्रम में पूर्णकालीन रहने का सौभाग्य मिला । उस समय मैं और श्री. दिनेश शिंदे, दोनों पूर्ण समय के लिए आश्रम में रहने लगे ।
२. दूसरों से कैसे बोलना चाहिए, मिल-जुलकर
कैसे रहना चाहिए, यह अपनी कृति से सिखाना
मैं शांत स्वभाव का था, इसलिए दूसरों से बातचीत करना, मिल-जुलकर रहना, आश्रम में आए जिज्ञासुआें से निकटता साधना इत्यादि मैं नहीं कर पाता था । प.पू. डॉक्टरजी मुझे समय-समय पर इसका भान कराते थे और अपनी कृति से, दूसरों से कैसे बोलना चाहिए, मिल-जुलकर कैसे रहना चाहिए, यह दिखाते थे । पश्चात मुझे यह सब धीरे-धीरे संभव होने लगा ।
३. सबके सामने बात करने का साहस
उत्पन्न हो, इसलिए अभ्यासवर्ग में सभी के
सामने जिज्ञासुआें के विशेष अनुभव बताने के लिए कहना
मुझमें सभी के सामने बात करने का साहस नहीं था, इसलिए लोगों के सामने बात करना मुझे कठिन लगता था । मेरा यह स्वभावदोष दूर करने के लिए प.पू. डॉक्टरजी मुझे अभ्यासवर्ग में सभी के सामने खडा कर, मुझे उनके पास आनेवाले जिज्ञासुआें के विशेष अनुभव बताने के लिए कहते थे । इससे मुझमें सभी के सामने बोलने का साहस बढने लगा और मैं समाज के सामने बोलने लगा ।
४. विविध प्रकार की सेवाएं कैसे की जाती हैं, यह सिखाना
शीव आश्रम में प.पू. डॉक्टरजी ने हमें विविध प्रकार की सेवाएं करना सिखाया । चाय से लेकर भोजन बनाने तक, सब सिखाया । शीव आश्रम का लेखा-जोखा तथा अधिकोष के व्यवहार देखने का दायित्व देकर, मुझमें आत्मविश्वास निर्माण किया । भविष्य में कार्य बढता गया और अनेक साधक कार्य से जुड गए ।
५. अनिष्ट शक्तियों के कष्ट आरंभ होनेपर,
साधकों पर आध्यात्मिक उपचार करना
सिखाकर, पूरे भारत में कष्ट से पीडित साधकोंपर
उपचार तथा मार्गदर्शन करने के लिए भेजना
वर्ष २००३ में साधकों को अनिष्ट शक्तियों के कष्ट आरंभ हुए । तब कष्ट से पीडित साधकों पर विविध प्रकार से आध्यात्मिक उपचार कैसे करें ?, यह उन्होंने अपनी कृति से सिखाया । इसी प्रकार इन साधकों की ओर ध्यान कैसे दें ? यह भी सिखाया । आगे मुझे पूरे भारत में कष्ट से पीडित साधकों पर आध्यात्मिक उपचार तथा मार्गदर्शन करने के लिए भेजा । इस माध्यम से मुझमें आत्मविश्वास उत्पन्न होने तथा प्रेमभाव बढने में सहायता हुई ।
६. सभी साधक सर्व सेवाएं करने में सक्षम
हों, इसलिए अथक परिश्रम करनेवाले प.पू. डॉक्टरजी !
इसके पश्चात उन्होंने मुझे निर्माण-कार्य तथा ध्वनिचित्रीकरण विभाग में सेवाएं दीं । प.पू. डॉक्टरजी पहले से ही कहते थे कि सभी साधक सर्व सेवाएं करने में सक्षम होने चाहिए । हम सबकुछ कर पाएं और हममें कोई न्यूनता न रहे; इसलिए अथक परिश्रम करते थे ।
७. सेवा करते समय हुई चूकों का निरंतर भान करवाते रहना
सेवा करते समय हमसे असंख्य चूकें होती थीं । इसका भान वे हमें सदैव करवाते थे । उन्होंने हमें कभी मानसिक स्तर पर नहीं संभाला । प्रसंग आने पर दंडनीति भी अपनाई ।
८. प.पू. डॉक्टरजी हम पर इतना प्रेम करते थे कि
आश्रम में रहते हुए हमें घर जाने का भी विस्मरण होना
प.पू. डॉक्टरजी हम पर इतना प्रेम करते थे कि आश्रम में रहते हुए हमें घर जाने का भी विस्मरण होता था ।
९. प.पू. डॉक्टरजी का साधकों में अनुशासन,
आज्ञापालन, सेवा इत्यादि सर्व भाव जागृत करना
अब मुझे कर्नाटक राज्य में लेखा की सेवा दी है । मैं लेखा के संदर्भ में कुछ नहीं जानता था; परंतु प.पू. डॉक्टरजी ने कहा है, तो उनका आज्ञापालन मुझे करना चाहिए, यह भाव रखकर मैं सेवा करता गया । इसलिए करन-करावनहार वे ही हैं । वे ही सब करवा लेते हैं, इसकी अनुभूति मैं कर पा रहा हूं । अनुशासन, आज्ञापालन, सेवा, सदाचार आदि सभी भाव उन्होंने हममें जागृत किए ।
१०. त्याग और संयमी जीवन, ये गुण
प.पू. डॉक्टरजी के कारण ही सीख पाना
उन्होंने ही हममें आस्तिकता तथा ईश्वर, पूर्वज आदि के प्रति श्रद्धा निर्माण की । प्रत्येक कृति के माध्यम से ईश्वरप्राप्ति कैसे करें ?, यह सिखाया । राष्ट्रप्रेम व धर्मप्रेम कैसा होना चाहिए ? यह भी सिखाया । उन्हींके कारण त्याग और संयमी जीवन, ये गुण सीखना संभव हुआ । यह सब किसी महाविद्यालय में सीखना संभव नहीं था ।
११. प.पू. डॉक्टरजी ने सनातन संस्था
के माध्यम से यथार्थ जीवन कैसे जीना चाहिए,
राष्ट्र की उन्नति किसमें है आदि बातें सिखाना
वर्तमान शिक्षासंस्थान विद्यार्थियों को किस प्रकार तैयार करते हैं, यह हमने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) प्रकरण से देखा ही है । वर्तमान समाज पश्चिमियों का अंधानुकरण करता दिखाई देता है । राष्ट्र और धर्म के प्रति किसी को कोई आस्था नहीं है । जीवन का ध्येय मोक्षप्राप्ति है, यह सब भूल गए हैं । ऐसी स्थिति में प.पू. डॉक्टरजी सनातन संस्था के माध्यम से यथार्थ जीवन कैसे जीना चाहिए ? हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ? राष्ट्र की उन्नति किसमें है ? स्वभावदोष-निर्मूलन और गुणसंवर्धन किस प्रकार करना चाहिए ?, यह सिखा रहे हैं । भ्रष्टाचार का मूल कारण है नैतिकता का अभाव । इस नैतिकता को कैसे संजोया जा सकता है ?, इसका ज्ञान प.पू. डॉक्टरजी सभी को दे रहे हैं । भारत की विशेषता है, गुरुपरंपरा । यही परंपरा प.पू. डॉक्टरजी ने आरंभ की है । हमें आगे ले जाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किए हैं और कर रहे हैं । ऐसे महान गुरुदेव के प्रति कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, वह अपूर्ण ही होगी !
– (पूज्य) श्री. सत्यवान कदम, मंगलुरू, कर्नाटक.