उपवास

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अनेक श्रद्धालु भारतीय नियमितरूप से निश्चित दिन, पर्व समान विशेष दिन अथवा व्रत के समय उपवास करते हैं । उस दिन कुछ लोग दिन में एक बार ही भोजन करते हैं अथवा कुछ लोग फलाहार करते हैं, तो कुछ लोग सादा आहार लेते हैं । कुछ लोग बिना पानी पीए अत्यंत कडक निर्जल उपवास करते हैं । ईश्वर को प्रसन्न करना अथवा स्वयं को दंड के रूप में प्रायश्चित लेना एवं कभी-कभी विरोध प्रकट करना, इसलिए उपवास किया जाता है ।

 

१. उपवास

दक्षिणायन में वर्षा, शरद व हेमंत ऋतु आती हैं । इन तीन ऋतुओं में त्योहार अधिक मात्रा में हैं । उसमें भी वर्षा ऋतु में तीज-त्योहार सर्वाधिक हैं । वर्षा के समय रोगों की मात्रा अधिक होती है । प्रकृतिस्वास्थ्य की ओर ध्यान देने की आवश्यकता होती है । तीज-त्योहारों के निमित्त से बीच-बीच में उपवास किए जाते हैं, सात्त्विक अन्न पेट में जाता है, इसके साथ ही बाहर के खाने पर कुछ मात्रा में मर्यादा आती है ।

१. अ. ‘उपवास’ शब्द का अर्थ

संस्कृत में उपवास शब्द की विभक्ति ‘उप + वास’, है । उप अर्थात निकट एवं वास अर्थात रहना; इसलिए ‘उपवास’ अर्थात ईश्वर के निकट रहना अथवा ईश्वर के सतत अनुसंधान में रहना ।

 

२. उपवास – भारतीय संस्कृति की विशेषताएं !

‘विविध उपवास भारतीय संस्कृति की विशेषताएं हैं । इन उपवासों में साधु-संतों के, ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद होने से उपासकों को दैवीय तेज प्राप्त होता है । सत्पुरुषों के कहने पर उपवास एवं उपासना करने से अधिक तेज प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त उपवास को आयुर्वेद में आरोग्यशास्त्र का आधार है ही । योगशास्त्र में भी उपवास अंतर्भूत है ।

 

३. उपवास की अद्वितीय विशेषताएं

३ अ. परहेज करने पर शरीर की ७२ सहस्र नाडियों से होनेवाले प्राणशक्ति के वहन में बाधा आना

सर्वेषाम् एव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः ।
तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥ – अष्टांगहृदय, निदानस्थान, अध्याय १, श्लोक १२

अर्थ : प्रकुपित हुए (बिगडा हुआ) वात, पित्त एवं कफ, इन सभी रोगों का कारण है । शरीर को परहेज की आवश्यकता है, फिर तो ऐसे में अन्न ग्रहण करना, यह तो वात, पित्त एवं कफ के कुपित होने में कारणीभूत है ।

मनुष्य के शरीर में ७२ सहस्र नाडियां (प्राणशक्तिवाहिनियां) हैं । विविध प्रकार के अपथ्य सेवन से (दूषित) वायु निर्माण होती है । उस वायु से, इसके साथ ही (अपथ्यकारक) अन्नरसों से निर्माण होनेवाले आम से (अर्थात विषैली घटकों से) वे नाडियां भर जाती हैं । ऐसी आमवायु से (दूषित वायु एवं आम से) भरी हुई वायुनलिकाओं में प्राणशक्ति का संचार नहीं हो सकता है ।

३ आ. उपवास के कारण शरीर में दैवीय किरणों का
प्रवेश होना एवं पचन में सुधार होकर स्वास्थ्य की प्राप्ति

उपवास के कारण प्राणवायु का संचार योग्य ढंग से होने लगता है । प्राणवायु में अन्य भी अनेक (दैवीय) शक्तियों का (किरणों का) समावेश होता है । उपवास के कारण वे दैवीय किरणें शरीर में प्रवेश करते हैं । इसलिए सूक्ष्म शरीर का तेज बढता है । आयुर्वेदानुसार उपवास करने से शरीर के द्रव पदार्थोंं का वहन करनेवाली नाडियों के अन्न का पचन होता है । शरीर की (जठर की) स्थूल पचन अनुसार सप्तधातुओं का पचन भी योग्य प्रकार से होकर शरीर को लघुता (हलकापन) प्राप्त होती है एवं उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है ।’

– वैद्य वि. भि. परदेशी, पुणे (संदर्भ : मासिक ‘धार्मिक’, अप्रैल १९८९)

३ इ. भगवत्प्राप्ति

कूर्मपुराणानुसार व्रत के कारण भगवान की प्राप्ति होती है ।

व्रतोपवासैर्नियमैर्होमैर्ब्राह्मणसंतर्पणैः ।
तेषां वै रुद्रसायुज्यं जायते तत् प्रसादतः ॥

अर्थ : व्रत, उपवास, नियम (योगमार्ग के यम-नियम), होम, ब्राह्मणसंतर्पण के प्रसाद स्वरूप सायुज्य मुक्ति मिलती है ।

३ ई. पापों का परिमार्जन

व्रतोपवासनियमैः शरीरोत्तापनैस्तथा ।
वर्णाः सर्वेऽपि मुच्यन्ते पातकेभ्यो न संशयः ॥ – देवल

अर्थ : व्रत, उपवास, नियम एवं शारीरिक तप के कारण सभी वर्ण पातकों से मुक्त होते हैं, इसमें शंका नहीं ।

३ उ. कायिक (शारीरिक) व्रत

उपवास करना, एकभुक्त रहना, हिंसा न करना इत्यादि ।

दात मांजना : उपवास के दिन एवं श्राद्ध के दिन दांत न मांजें । यदि आवश्यकता लगे तो पानी से गरगरारे करें । बारह बार कुल्ला करें अथवा आम के पत्तोें काष्ठ (लकडी) अथवा उंगली से दांत स्वच्छ करें ।

कायिक (शारीरिक) व्रत : उपवास, एकभुक्त रहना इत्यादि तपों के कारण बडे फल मिलते हैं । इससे परपीडा (दूसरों द्वारा दी गई पीडा) का निवारण होता है ।

 

४. उपवाससंबंधी व्रत

‘कोई भी छोटे-बडे व्रत हों, उसमें अनेक उपवास बताए ही होते हैं । व्रत का वह जैसे अविभाज्य अंग ही होता है । उपवास के भी कुछ प्रकार हैं । वे अयाचित, चांद्रायण व प्राजापत्य, इन व्रतों में देखने मिलता है । व्रत एवं उपवास, ये भिन्न बातें हैं, ऐसी लोगों की समझ है । वास्तव में व्रत एवं उपवास, दोनों एक ही हैं । अंतर इतना ही है कि व्रत में भोजन किया जाता है एवं उपवास में नहीं किया जाता । व्रत शास्त्र द्वारा बताया गया एक नियम हैं और उपवास उसका लक्षण !

४ अ. एकभुक्त व्रत

इस व्रत के आगे दिए प्रकार हैं ।

४ अ १. स्वतंत्र : आधा दिन समाप्त होने पर स्वतंत्र व्रत होता है ।

४ अ २. अन्यांग : अपराण्हकाल में (तीसरे प्रहर, दोपहर) अन्यांग व्रत होता है ।

४ अ ३. प्रतिनिधि : प्रतिनिधि व्रत सवेरे, दोपहर कभी भी होता है ।

इस एकभुक्त व्रत में दिन में दो बार विहितकाल में केवल एक समय भोजन करना होता है ।

४ आ. नक्त व्रत

‘नक्त’ अर्थात काल का एक विभाग । सूर्यास्त के उपरांत नक्षत्र दिखाई देने के पूर्व का काल ‘नक्तकाल’ समझा जाता है । दिनभर में बिना खाए, इस नक्तकाल में मनुष्य भोजन कर व्रत करता है । यह उपवास से असंबंधित विशिष्ट व्रत है । संन्यासी एवं विधवा स्त्रियां यह व्रत सूर्य के होते हुए, अर्थात दिन में करती हैं ।

४ इ. अयाचित व्रत

अयाचित अर्थात याचना न करते हुए अथवा किसी से विनती न करते हुए जितना मिले उतने अन्न पर रहना । यह व्रतधारी मनुष्य दिन अथवा रात में एक बार भोजन करता है । इस व्रत में दूसरे किसी से अन्न की याचना करनी नहीं होती है । इतना ही नहीं, अपितु अपनी पत्नी से अथवा सेवक से भी अन्न परोसने की विनती करने पर भी बंदी है । यदि किसी की पत्नी सेवक द्वारा बनाया भोजन बिना कहे लाए, तब ही वह मनुष्य वह अन्न ग्रहण कर सकता है । अन्यथा वह उस अन्न को ग्रहण नहीं कर सकता है । इस व्रतधारी के लिए दिन का निषिद्ध काल भोजन ग्रहण करने के लिए वर्ज्य होता है ।

४ ई. चांद्रायण व्रत

आकाशस्थ चंद्र को प्रसन्न करने के लिए चंद्रलोक की प्राप्ति के लिए, इसके साथ ही जीवन में हुए पापों के क्षालन के लिए इस व्रत का आचरण किया जाता है । इसके प्रकार आगे दिए अनुसार हैं ।

१. इस व्रत में अन्नग्रहण, चंद्र की कला समान बढता जाता है और कम होता है । अमावास्या के उपरांत प्रतिपदा से चंद्र की बढती कला समान दोपहर के भोजन के समय एक-एक निवाला बढाकर पूर्णिमा के दिन पंद्रह निवाले खा सकते हैं एवं पूर्णिमा के उपरांत कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक निवाला कम कर अमावास्या को उपवास हो जाता है । यह एक चांद्रायण व्रत हुआ ।

२. अमावास्या के उपरांत की शुक्ल प्रतिपदा को १४ निवाले, द्वितीया को १३ निवाले, ऐसे प्रतिदिन एक-एक निवाला कम-कम करते हुए चतुर्दशी को भोजन में एक निवाला, पूर्णिमा को भी एक निवाला एवं पूर्णिमा के उपरांत की प्रतिपदा को एक इसप्रकार प्रतिदिन एक-एक निवाला बढाते हुए अमावास्या के एक दिन पहले अर्थात चतुर्दशी को चौदह निवाले भोजन के समय लेते हैं एवं अमावास्या के दिन उपवास होता है ।

४ उ. प्राजापत्य व्रत

यह व्रत बारह दिनों का है । व्रत के प्रारंभ के पहले तीन दिनों में व्रत करनेवाले को प्रति दिन भोजन के समय बाईस निवाले लेने हैं । तत्पश्चात तीन दिन प्रतिदिन छब्बीस निवाले एवं अगले तीन दिन चौवीस निवाले प्रतिदिन लेने हैं एवं तदुपरांत व्रत के अंतिम तीन दिन संपूर्ण उपवास करना है । इस प्रकार बारह दिनों में एक प्राजापत्य व्रत होता है । इस व्रत में ऐसा कहा गया है कि ‘मुंह में जितना निवाला आएगा, उतना ही निवाला खाना है ।’

 

५. व्रत, उपवास इत्यादि का महत्त्व भी ज्ञात नहीं, ऐसे हैं रजनीश !

टिप्पणी : ‘भूख मारने से वह और बढती है एवं खाने अयोग्य ऐसे पदार्थ, उदा. फूल इत्यादि कुछ भी मानव खाता है । (भूखको दबानेसे भूख जोर पकडती है और न खाने योग्य फूल आदि भी प्राणी खाने लगता है ।) एक साधक जंगल में रहता था । उसका उपवास होता है । उसका मित्र उसे भेट भेजने का इच्छुक था । ‘क्या भेजना है, उपवास होने के कारण खाद्यपदार्थ कैसे भेजूं ?’, ऐसा उसे प्रश्न पडता है । वह फूलों का गुच्छ भेजता है । भूख इतनी जोर से लगती है कि उपवास करनेवाला वे फूल ही खा लेता है । – रजनीश

खंडन : व्रत, उपवास पर रजनीश ने प्रहार करने की ठान ली है । गत २० वर्ष अखंड निर्जला एकादशी का व्रत करनेवाले मेरे मित्र हैं । वे कहते हैं, ‘‘अगले दिन से ही मुझे एकादशी के उपवास का वेध लगता है । दशमी का रात खाना नहीं होता है । मैं भोजन नहीं करता । व्रत होता है, वह दिन परम प्रसन्न एवं परम सुख में जाता है ।’’

जैन लोगों में भी एक माह केवल गरम पानी पीकर उपवास करते हैं । नए व्रती को भूख की वेदना होती है; परंतु व्रत के दिन वह उस वेदना को सहजता से (संयम से) सहन कर सकता है । इसलिए अन्न की स्मृति भी उसे नहीं होती । ‘व्रत का पालन हो रहा है । प्रभुचरणों में वृत्ति खिल रही है’, यह धारणा होने से प्रसन्नता होती है ।

इसके विपरीत उपवास न करनेवाले को किसी दिन भोजन न मिले, तो वह व्यथित एवं चिंताग्रस्त हो जाता है । उसका उत्साह समाप्त हो जाता है । अन्य किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता । दृष्टि एवं अंतर की वृत्ति बदलने पर एक ही घटना एक दिन सुख देती है, तो दूसरे दिन दुःख देती है ।

मनुष्य में श्रेष्ठता की भावना आ गई कि ‘बिना कोई अभ्यास किए हम जो भी कहें, लोग उसे सुनें’, ऐसा माननेवालों में से ये रजनीश दिखाई देते हैं ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (संदर्भग्रंथ : क्या ? संभोग से समाधि ??)

 

६. उपवास के दिन पालने योग्य नियम

६ अ. प्रातःकाल की जानेवाली बातें

अ. ‘सदैव की तुलना में शीघ्र उठें ।

आ. नींद खुलने पर अपने इष्टदेवता का स्वरूप ध्यान में लाएं और उनका स्मरण करें ।

इ. शौच, व्यायाम, स्नान इत्यादि बातें करने के उपरांत एक अथवा उससे अधिक माला नामजप करें ।

६ आ. संकल्प

उस दिन ‘ईश्वर की भक्ति में पूर्ण समर्पित होकर उपवास करूंगा एवं उनके सहवास में रहूंगा’, ऐसा संकल्प करें । इस संकल्प को मानसिक महत्त्व है ।

६ इ. आहार

अ. रजोगुणी एवं तामसिक पदार्थ खाना पूर्णरूप से टालें ।

आ. पचने में हलका, पौष्टिक एवं सात्त्विक आहार लें ।

इ. संभव हो तो रसीले मधुर फल एवं दूध पीएं ।

६ ई. ध्यान में रखने हेतु कुछ बातें

अ. काम (वासना, इच्छा), क्रोध, मद एवं लोभ, इन मनोविकारों को दूर रखें । किसी को भी मानसिक एवं शारीरिक कष्ट न देते हुए अधिकाधिक आनंदी रहने का प्रयत्न करें ।

आ. कुछ घंटे वाचिक (मुख से) एवं मानसिक स्तर पर मौन का पालन करें ।

६ उ. इष्टदेवता के दर्शन

सायंकाल इष्टदेवता के दर्शन लें ।

६ ऊ. रात में सोने से पहले क्या करें ?

अ. इष्टदेवता के स्वरूप का स्मरण कर उसका चिंतन करें ।

आ.‘दिनभर में कहां चूकें हुईं ?’, इसका आत्मपरीक्षण करें ।

इसप्रकार एक दिन का उपवास भी शारीरिक एवं मानसिक सुख देनेवाली एक दिन की तपस्या ही होगी ।’

संदर्भ : मासिक कल्याण’, अक्टूबर १९९३

 

७. उपवास करने से होनेवाले लाभ

अ. मनुष्य का काफी समय एवं शक्ति ‘खाने-पीने की वस्तु एकत्र करना, रसोई बनाने की तैयारी करना, रसोई बनाना, भोजन करना एवं उसे पचाना’, इनमें व्यय होती है । कुछ विशेष प्रकार के भोजन अपने मस्तिष्क को मंद एवं विचलित करता हैं । इसलिए कुछ निश्चित दिनों पर व्यक्ति हलका एवं सादा आहार लेकर अथवा कुछ भी न खाते हुए अपना समय एवं शक्ति बचाने का निश्चय करता है । इससे उसका मन सतर्क एवं निर्मल होता है ।

आ. परिणामस्वरूप मनुष्य का मन भोजन के विचारों में मग्न रहने की अपेक्षा वह अच्छे विचार ग्रहण कर सकता है ।

इ. मनुष्य को कार्यक्षम रहने के लिए कुछ विश्राम की अथवा परिवर्तन की आवश्यकता होती है । उपवास करने से शरीर को विश्राम मिलता है एवं आहार के परिवर्तन से पचनशक्ति में सुधार होता है । इसलिए उपवास करना संपूर्ण शरीर के लिए काफी लाभदायक होता है ।

ई. मनुष्य जितना अधिक इंद्रियों के अधीन होता है, उतनी उसकी इच्छाएं बढती जाती हैं । उपवास के कारण मनुष्य को इंद्रियों पर नियंत्रण पाने में सहायता मिलती है । उपवास के कारण धीरे-धीरे इच्छा नष्ट होती जाती हैं एवं मन संतुलित एवं शांत रहने में सहायता होती है ।

 

८. उपवास करने के उद्देश्य

‘उपवास के कारण हम दुर्बल एवं चिडचिड होकर अथवा तदुपरांत हमारे खाने की इच्छा अधिक ही बढ जाए’, ऐसा उपवास न करें । सहसा उपवास करने के पीछे उत्तम एवं उदात्त उद्देश्य न होना, ऐसा ही होता है । कुछ लोग केवल वजन घटाने के लिए, तो कुछ लोग ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अथवा इच्छापूर्ति के लिए उपवास करते हैं । कुछ लोग अपनी संकल्पशक्ति के विकास करने के लिए, कुछ लोग इंद्रियों पर नियंत्रण पाने के लिए एवं कुछ तपश्चर्या के रूप में उपवास करते हैं ।

 

९. भगवद्गीता में शुद्ध एवं सात्त्विक आहार का महत्त्व बताया जाना

भगवद्गीता में उपयुक्त आहार पर बल देते हैं । युक्त आहार अर्थात अत्यंत अल्प नहीं एवं बहुत भी नहीं, ऐसा आहार । उपवास न करते हुए भी ‘शुद्ध, सात्त्विक, सादा एवं पौष्टिक आहार लें’, ऐसा भगवद्गीता कहती है ।’

(साभार : मासिक ‘सत्संग पथ’, सितंबर २००३)

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