अनुक्रमणिका
१. प्रगत भारतीय कृषि परंपरा
पुरातन भारतीय कृषि परंपरा प्रकृति के लिए अनुकूल थी । स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप देशी बीजों का उपयोग करना, मिट्टी की उर्वरता टिकाए रखना एवं खेत के जीवाणु, कीटक एवं फसलों की जैवविविधता (बायोडायवर्सिटी) की ठोस नींव पर यह व्यवस्था खडी थी । हवामान, ऋतुचक्र के अभ्यास के साथ ही आकाश के विविध ग्रह-नक्षत्र, विशिष्ट तिथि एवं दिनों के निर्धारित प्रहरों में की गई कृतियों का फसल की बढत पर कैसा परिणाम होता है, इसका भी ज्ञान भारतीय किसानों को था । उदा. पूर्णिमा एवं अमावास्या पर विविध कीडों के अंडे डालने का समय होता है, इसलिए उस दिन फसल पर प्राकृतिक घटकों से बने हुए कीटनाशकों के छिडकाव से कीडों का नियंत्रण होता है ।
२. कहावतें एवं प्रथाओं के माध्यम से संजोई परंपरा
ऐसी परंपराओं पर आधारित अनेक वचन एवं कहावतें प्रचलित हैं । कुछ दिनों पूर्व सामाजिक जालस्थल पर ‘पर्यावरण शिक्षा’ विषय के अभ्यासक श्री. बसवंत विठाबाई बाबाराव का लेख पढने में आया । उनका यह लेख दैनिक ‘आपलं महानगर’ अर्थात अपना महानगर में ५.५.२०१९ को प्रकाशित हुआ है । उसमें उन्होंने इसप्रकार एक कहावत (मराठी) दी थी कि ‘अकितीला आलं, तर बेंदराला फलं’, अर्थात अक्षय तृतीया को गर्मियों की फसल लगाने के लिए इस दिन अदरक तैयार कर खेती में बीजों का रोपण करें । इस पर उन्होंने आगे दी गई जानकारी दी है । ‘अकिती’ अथवा ‘आखेती’ अर्थात ‘अक्षय तृतीया’। गर्मियों की फसल के रोपण के लिए इस दिन अदरक तैयार कर खेत में बीजों का रोपण किया जाता है एवं उन रोपों को आषाढ पूर्णिमा के आसपास मनाए जानेवाले ‘बेंदूर’ नामक त्योहार पर फलधारणा होती है । यह दिन खेती के काम का आरंभ करने का मुहूर्त माना जाता है । गर्मियों में होनेवाली लौकी, तोरई, कद्दू, सफेद कद्दू, करेला जैसे बीजों का रोपण इस दिन करते हैं । अदरक एवं हलदी का भी रोपण इसी दिन करते हैं ।
३. अक्षया तृतीया के दिन बीजों के अंकुरित होने की क्षमता देखना
श्री. बाबाराव आगे लिखते हैं, ‘अक्षय तृतीया के दिन बीजों के अंकुरित होने की क्षमता देखने की एक पद्धति प्रचलित है । खेत में भारी मात्रा में रोपण करने से पूर्व बीजों के उगने की क्षमता की जांच यदि हो जाए, तो किसान को उसका बहुत लाभ होता है । जिस अनाज का आज रोपण करना है, उसके सौ दाने लेकर एक बोरे पर कतार में लगाएं और उसे लपेट दें । उस बोरे को पानी से भिगोएं । नमी टिकाए रखने के लिए उस पर प्रतिदिन थोडा पानी छिडकें । बीजों के प्रकार के अनुसार उसे ३ से ५ दिनों में खोलकर देखें एवं अंकुरित हुए बीजों की संख्या गिनें । यदि नब्बे से अधिक बीज अंकुरित हो जाएं, तो उन्हें रोपण के लिए उत्तम समझें । कुछ स्थानों पर यही जांच थोडे से बीज एक कतार में भूमि पर लगाकर की जाती है ।’
४. अक्षय तृतीया के दिन छत पर किए गए रोपण के विषय में हुए अनुभव
उपरोक्त विषय जानने के पश्चात ऐसा लगा कि हमें भी अक्षय्य तृतीया के दिन गर्मियों के शाक-तरकारी का रोपण कर देखें । उस अनुसार हमने भिंडी, लौकी, कद्दू एवं अदरक का रोपण किया । ‘अकितीला आळं, तर बेंदराला फळं’ इस मराठी कहावत के अनुसार वास्तव में आषाढ पूर्णिमा के आसपास भिंडी, लौकी एवं कद्दू तैयार हो गए थे । (छायाचित्र देखें ।)
अक्षय्य तृतीया पर रोपण करने के पश्चात आषाढ पूर्णिमा के आसपास तैयार हुई भिंडी, लौकी एवं कद्दू
५. परंपराओं का जतन एवं उसके अध्ययन की आवश्यकता
अंग्रेजों के शासनकाल में आरंभ हुई मैकॉलेप्रणीत शिक्षाप्रणाली ने भारतीयोें को मन से दास (गुलाम) बना डाला है । ‘कहीं उसका ही तो परिणाम नहीं है कि कृषि विद्यापीठों ने भी इतने वर्ष यही प्रयत्न किया कि ये सभी कृषिपरंपराएं कैसे नष्ट होंगी ? कहीं इसी के लिए उन्होंने प्रयत्न तो नहीं किया, ऐसा संदेह उत्पन्न होता है । आज सुजलां-सुफलाम् भारतभूमि की दुर्दशा हो गई है । बाह्य से रासायनिक खेती से दिखाई देनेवाली उत्पादनवृद्धि से किसान प्रसन्न हो गया; परंतु कुछ वर्षाें पश्चात वह भूमि अनउपजाऊ हो जाती है, तब उसे बचाने के लिए कोई उपाय रासायनिक तंत्रज्ञान के पास नहीं है ! इस दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए प्रकृति के अनुरूप एवं शाश्वत खेती तंत्र का प्रसार होना, इस विषय में किसानों में एवं जनसामान्यों में भी जागृति करना, पहले की खेती परंपराओं पर शोध होना, इसके साथ ही उसकी प्रविष्टी रखते हुए उनका अध्ययन करना आवश्यक है ।’
– श्रीमती राघवी मयूरेश कोनेकर, ढवळी, फोंडा, गोवा.(३०.८.२०२२)
संपादकीय भूमिकाहिन्दुत्वनिष्ठो, भारत का हिन्दूकरण करने की प्रक्रिया में प्राचीन कृषि परंपराओं का पुनरुज्जीवन करने की भी नितांत आवश्यकता है, यह भली-भांति जान लें ! |