अनुक्रमणिका
हाथ-पैरों पर फुंसिया आना, ज्वर एवं ज्वर जाने के पश्चात मुंह में वेदनादायक छाले आना, इन लक्षणों के संक्रमक रोग को आधुनिक वैद्यकीयशास्त्र में ‘हैंड, फुट एवं माऊथ’ रोग कहते हैं । इस रोग पर आयुर्वेद में प्राथमिक उपचार यहां दे रहे हैं ।
१. आयुर्वेद का दृष्टिकोण
वर्षाऋतु का पानी ‘अम्ल विपाकी’ बन जाता है । संस्कृत भाषा में ‘अम्ल’ अर्थात ‘खट्टा’ । ‘विपाक’ अर्थात ‘पेट में जठराग्नि का काम होने पर अन्न का बदलनेवाला स्वाद’ । ‘हमारे भोजन ग्रहण करने के पश्चात अन्न पर जठराग्नि की प्रक्रिया होने पर उसका स्वाद एवं गुणधर्म भी बदल जाता है’ , ऐसा आयुर्वेद का सिद्धांत है । पानी अम्ल विपाकी होने से पित्त बढने की ओर शरीर का झुकाव होता है । वर्षा में पानी सूक्ष्म जंतुओं से दूषित हो चुका होता है । निरंतर होनेवाली वर्षा से अग्नि (पचनशक्ति) मंद हो जाती है । इसकारण वर्षा में रोगों का संक्रमण शीघ्र होता है । ‘शरीर पर फुंसियां उठना’, यह पित्त बढने के लक्षण हैं; जबकि ज्वर आना, अग्नि का मंद होकर अन्नपचन ठीक से न होने का लक्षण है ।
२. आयुर्वेदानुसार प्राथमिक उपचार
२ अ. अडूसा का रस
७ दिन सवेरे एवं शाम को १ चम्मच अडूसा अथवा नीम के पत्तों का रस दें । ज्वर न हो, तो यह रस पाव चम्मच देसी घी में मिलाकर दें । ज्वर हो, तो ऐसे ही दें । रस निकालने से पहले पत्ते स्वच्छ धो लें ।
२ अ १. अडूसा का रस निकालने की पद्धति
केवल पत्ते कूटने पर अडूसा का रस नहीं निकलता । उसके लिए अडूसा के पत्तों को तवे पर थोडा-सा गरम करना पडता है । फिर उन्हें खलबत्ते में कूटकर उसका रस निकालें । थोडा पानी डालने पर रस सहज आता है । यह रस घर के सभी लोग थोडा-थोडा ले सकते हैं; परंतु उसे ७ दिन लें । ज्वर की साथ (संक्रमण) में अडूसा का रस संक्रमण रोकने में बहुत उपयोगी होता है । पूर्व के काल में ‘देवी’ इस रोग का संक्रमण रोकने के लिए वैद्य अडूसा एवं ज्येष्ठमध का काढा देते थे ।
२ अ २. अडूसा के रस का पर्याय
सनातन का ‘वासा (अडुळसा) चूर्ण’ भी उपलब्ध है । रस मिलना संभव न हो, तो इसका पाव चम्मच चूर्ण थोडे से पानी में मिलाकर दें ।
२ अ ३. तीन वर्ष से छोटे बच्चों के लिए मात्रा
रस अथवा चूर्ण उपरोक्त जो बताया है उसकी आधी मात्रा में दें ।
२ आ. नहाने के समय औषधीय पानी
छोटे बच्चों के स्नान के लिए गरम पानी में नीम अथवा अडूसा के पत्ते डालें ।
३. आहार
३ अ. खाने के लिए क्या दें ?
जब ज्वर हो और छोटे बच्चों को भूख न लगी हो, तो खाने के लिए न दें । बीच-बीच में गुनगुना पानी पीने के लिए दें । जब बच्चा खाने के लिए कुछ मांगे, तब उसे थोडा-सी मूंग की दाल अथवा तूर की पतली गुनगनी दाल दें । मूंग अथवा तूर पित्त न्यून करता है । थोडी भूख शेष रहने दें । पेटभर आहार न दें । फिर जब उसे भूख लगे, तब भोजन का समय होने पर दाल-भात एवं भोजन का समय छोड अन्य समय पर भूख लगने पर मूंग की पतली-सी दाल दें । पूर्णरूप से ठीक हो जानेपर हमेशा का आहार शुरू करें ।
३ आ. दृष्टिकोण
आधुनिक वैद्यकीयशास्त्र के अनुसार ज्वर के समय शरीर की रोगप्रतिकारक संस्था सूक्ष्म जंतुओं से लडती है । ऐसे समय पर सदैव की भांति आहार लेने से उसे पचाने के लिए शरीर को श्रम करना पडता है, इसकारण रोग से प्रतिकार करने की शरीरशक्ति पर्याप्त नहीं होती । इसीलिए आयुर्वेद में ज्वर होने पर ‘लंघन’, अर्थात ‘बिना कुछ खाए-पीए उपवास’ करने के लिए बताया है । . उपवास करने पर तुरंत ही प्रतिदिन की भांति आहार न लें । पचने के लिए हलके आहार से आरंभ कर धीरे-धीरे आहार बढाएं ।’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (८.८.२०२२)