अभ्यास एवं स्वानुभव न होते हुए भी पु.ल. देशपांडे
ने किए नामजप के विषय के (नामस्मरण संबंधी) बेताल वक्तव्य !
विख्यात साहित्यिक ‘महाराष्ट्र भूषण’ पु.ल. देशपांडे के ’नामस्मरण का रोग’ यह लेख (संदर्भ : दैनिक ‘सामना’ [मुंबई आवृत्ति, रविवार २५.११.१९९०]) में लिखा था । इस लेख के माध्यम से उन्होंने नामजप संबंधी कुछ विषैले वक्तव्य किए हैं । पु.ल. देशपांडे के कथन ‘टीका’ इस उपशीर्षक के अंतर्गत दिए हैं ।
१ अ. मनोभाव से नामजप करने पर आचार में दोष नहीं रहता, यह सूर्यप्रकाश समान स्पष्ट है !
टीका:
नामस्मरण करनेवालों को उनके उच्चार एवं आचार में भेदभाव दिखानेवाले उदाहरण देकर उत्तर पूछने का काम स्वयं को जोतिबा फुले की उत्तराधिकारी माननेवाली आज की पीढी को करना चाहिए ।
खंडन:
उच्चार एवं आचार में भेद हो, तब भी नामजप करनेवालों में यह भेद कभी न कभी तो चित्तशुद्धी होने पर नष्ट हो जाता है; परंतु नामजप नकारनेवालों में यह कभी भी नष्ट नहीं होगा ।
उन्हें सिखाने का काम स्वयं को जोतिबा फुले के उत्तराधिकारी माननेवाले नहीं, अपितु नामजप करनेवाले ही कर सकते हैं ।
१ आ. (कहते हैं) ‘नामजप, दुर्बल बनानेवाला रोग है !’
टीका:
अनेक शतकों से अपने देश को कर्मप्रणवता के स्थान पर ‘रखे भगवान वैसे ही रहें’ ऐसा कहते हुए दुर्बल बनानेवाला, नामस्मरण का यह रोग इस पीढी को जकडने लगा है’, ऐसे ही कहना होगा ।
खंडन:
संत तुकाराम महाराजजी ने जो कहा है ‘रखे भगवान वैसे ही रहें ।’ यह दुर्बलता का नहीं, अपितु ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा होने से कहा गया है । ‘ईश्वर अपना कभी भी अहित नहीं सोचता; जो भी होता है वह अपने भले के लिए और अपने कर्मप्रारब्धानुसार’, यह उसका द्योतक है । इसके विपरीत जिसकी ईश्वर पर श्रद्धा नहीं, अपितु स्वकर्तृत्व पर अहं पर श्रद्धा होती है, उन्हें वह अयोग्य ही लगेगा ।
नामजप यह रोग नहीं, अपितु रोगों का निवारण करनेवाला है । वर्तमान पीढी को नामजप की आदत न लगने से व्यसनाधीनता, अनैतिकता, भ्रष्टाचार इत्यादि रोग लग गए हैं । उस पर नामजप ही प्रभावी उपाय है ।
‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध एवं उससे संबंधित शक्ति एकत्र होती हैं’, यह अध्यात्म का नियम है । इसलिए भगवान का नामजप करने से उपरोक्त नियमानुसार उसका तत्त्व, अर्थात चैतन्य मिलता है । इसलिए दुर्बल को बल प्राप्त होता है । इसका प्रयोग करना हो, तो ‘गुंडा’ एवं ‘संत’ इन दो शब्दों का बारी-बारी से दो मिनट जप करें और स्वयं को क्या लगता है, उसे अनुभव करें ।
१ इ. कहते हैं, ‘नामजप करनेवालों को जितना चाहिए उतने पाप करने की छूट होती है !’
टीका:
नामस्मरण की सरल साधना से जन्मजन्मांतर के पापों के ढेर भस्म हो जाते हैं, यह अत्यंत भोले-भाले जनसमुदाय के मन पर अंकित होने से अथवा अंकित करते रहने से वह इस जन्म में जितने चाहिए, उतने पाप कर ले ।
खंडन:
‘इस जन्म में जितने चाहिए उतने पाप कर ले’, ऐसा हिन्दू धर्म में नहीं बताया है । इसके विपरीत हिन्दू धर्म कहता है कि ‘पाप ही न करें !’ इससे पु.ल. देशपांडे का ऐसा कहना कि ‘पेट दर्द की औषधि उपलब्ध है; इसलिए मनुष्य जो चाहिए उसे खाने की छूट है’, ऐसा कहने समान हास्यास्पद है ! वास्तविक नामजप करनेवालों की वृत्ति पाप की ओर न मुडते हुए उसकी झोली में इतने पुण्य आते हैं कि उनकी गणना ही नहीं हो सकती; इसीलिए कहते हैं, ‘हरि मुखे म्हणा, हरि मुखे म्हणा । पुण्याची गणना कोण करी ॥’ (हरीपाठ) अर्थात मुख से हरि बोलो, हरि बोलो । पुण्य की गणना कौन करेगा ।।
१ ई. नामजप कर व्याधि दूर होने की सहस्रों अनुभूति के होते हुए पु.ल. देशपांडे को उसे अमान्य करना
टीका:
कागद पर लाख बार ; श्रीराम जयराम’ लिखें, अर्थात सभी व्याधियां नष्ट होंगी’, यह बतानेवाले महापुरुष और उसे सुननेवाले महाभाग निर्माण होते हैं ।
खंडन:
किसी भी व्याधि के पीछे शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक, ऐसी तीन प्रकार के कारण हो सकते हैं, ऐसा जागतिक आरोग्य संगठन ने बताया है । ‘इस संगठन से मैं अधिक विज्ञाननिष्ठ हूं’, ऐसा कोई भी विद्वान नहीं कहेगा । व्याधि के उपरोक्त तीन कारणों में से आध्यात्मिक कारणों से होनेवाली व्याधि यदि श्रीराम का नामजप लिखकर दूर होनेवाली होगी, तो पु.ल. देशपांडे को उस पर आक्षेप लेने का क्या कारण है ?’