नींद कब और कितनी लें ?

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१. सवेरे शीघ्र क्यों उठना चाहिए ?

आजकल रात में देर से भोजन करने एवं सोने की पद्धति सर्वत्र प्रचलित हो गई है । इसलिए अधिकांश लोगों के लिए शीघ्र उठना संभव नहीं होता । रात में देर से खाना एवं सवेरे देर से उठना, यह अनेक रोगों को आमंत्रण देनेवाला है ।

 

२. ब्राह्ममुहूर्त पर उठने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है !

आयुर्वेद में ऐसे कहा गया है कि ब्राह्ममुहूर्त पर उठना चाहिए । ब्राह्ममुहूर्त अर्थात सूर्योदय से पूर्व ९६ से ४८ मिनटों का काल । इस समय उठने में शौच की संवेदना अपनेआप निर्माण होकर पेट साफ होता है । जिन्हें ब्राह्ममुहूर्त पर उठना संभव नहीं, वे कम से कम सवेरे ७ बजे तक तो उठें । धीरे-धीरे शीघ्र उठने का प्रयत्न करें । सूर्योदय के उपरांत सोते रहने से शरीर भारी होना, आलस आना, पचनसंस्था बिगडना, बद्धकोष्ठता जैसे कष्ट हो सकते हैं । सवेरे हवा शुद्ध होने से उस समय व्यायाम करने से उसका भी अधिक लाभ होता है ।

ऋषि सूर्यगति समान ब्राह्ममुहूर्त के समय प्रातर्विधी, स्नान एवं संध्या करते थे । तदुपरांत वेदाध्ययन एवं कृषिकर्म (खेतीबाडी) करते एवं रात में शीघ्र सो जाते थे । इससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा रहता था; परंतु आज लोग प्रकृतिनियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं, इसलिए उनका शरीरस्वास्थ्य बिगड गया है । पशुपक्षी भी प्रकृतिनियमों के अनुसार दिनचर्या करते हैं ।

– (परात्पर गुरु) परशराम पांडे महाराज

 

३. ब्राह्ममुहूर्त पर क्यों उठना चाहिए ?

गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

३.अ. ‘इस काल में निराभिमानता युक्त दैवीय प्रकृति के जीवों का संचार होता है ।

३.आ. यह काल सत्त्वगुणप्रधान होता है । सत्त्वगुण, ज्ञान की अभिवृद्धि करनेवाला है । इस काल में बुद्धि निर्मल एवं प्रकाशमान होती है । ‘धर्म’ एवं ‘अर्थ’ के विषय में किए जानेवाले काम, वेदांत में बताए तत्त्व (वेदतत्त्वार्थ) का चिंतन, इसके साथ ही आत्मचिंतन के लिए ब्राह्ममुहूर्त उत्कृष्ट काल है ।

३.इ. इस काल में सत्त्वशुद्धि, कर्मरतता, ज्ञानग्रहणता, दान, इंद्रियसंयम, तप, शांति, भूतदया, निर्लोभता, निंदनीय कर्म करने की लज्जा, स्थैर्य, तेज एवं शौच (शुद्धता), ये गुण आत्मसात करने का कार्य सुलभ होता है ।

३.ई. इस काल में मच्छर, खटमल एवं पिस्सू क्षीण होते हैं ।

३.उ. इस काल में अनिष्ट शक्तियों का प्राबल्य क्षीण होता है ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

 

४. दिन में सोना, यह आरोग्य बिगाडने का बडा कारण है !

४.अ. दोपहर की नींद कैसे छोडें ?

 

दिन में सोना, विशेषरूप से दोपहर भोजन के उपरांत सोना, यह आरोग्य बिगडने का बडा कारण है । ‘मैं शेष कोई भी परहेज करूंगा; परंतु मुझे दोपहर की नींद बंद करने के लिए न कहें !’, ऐसा कहनेवाले अनेक रोगी व्यवहार में मिलते हैं । अन्य सर्व परहेज कर, दोपहर की नींद यदि लेंगे, तो अन्य परहेज का कोई लाभ नहीं होता, यह जब रोगी को समझ में आता है तब वह दोपहर की नींद छोडने के लिए तैयार होता है । संक्षेप में, अच्छे स्वास्थ्य की प्रामाणिक इच्छा है, तो दोपहर की नींद छोडनी ही होगी ।

४.आ. दोहपर भोजन के उपरांत नींद आ रही हो, तो थोडा कम खाएं !

४.आ.१. जब भोजन की मात्रा अधिक होती है, तब शरीर को पचन के लिए अधिक शक्ति खर्च करनी पडती है । भोजन के उपरांत पचन ही शरीर का प्रधान कार्य होने से अन्य अवयवों को रक्त की आपूर्ति न्यून होकर पेट की ओर रक्त की आपूर्ति बढा दी जाती है । इसमें मस्तिष्क की भी रक्तआपूर्ति कुछ अंश में न्यून होने से काफी लोगों को सोने के उपरांत नींद आती है । भोजन के पश्चात अन्नपचन के लिए अधिक रक्तआपूर्ति पेट की अंतडियों की ओर, तो अल्प रक्तआपूर्ति मस्तिष्क को होती है । (इस काल में अल्प विश्राम करें ।)

४.आ.२. जिन्हें अधिक श्रम के कारण सोने की इच्छा हो रही हो, वे भोजन के उपरांत कुछ समय लेटकर विश्राम करें; परंतु सोएं नहीं अर्थात नींद न लगने दें ।

४.आ.३. जिन्हें भोजन अधिक करने से नींद आ रही हो, वे नींद न आए, इसलिए मिताहार करें, अर्थात थोडी भूख शेष रखकर भोजन करें । ऐसे भोजन करने से शरीर पर अन्न पचाने के लिए अन्य अवयवों की शक्ति का उपयोग नहीं करना पडता एवं नींद भी नहीं आती ।

४.आ.४. ऊपर दिए गए उपाय करने के पश्चात भी जो दोपहर की नींद नहीं रोक पाते, वे दोपहर बैठे-बैठे नींद लें । वामकुक्षी अर्थात भोजन होने के पश्चात थोडी चहलकदमी कर अधिकाधिक २० मिनट बाएं करवट पर लेटे रहें ।

 

५. रात्रि में जागरण क्यों न करें ?

५.अ. रात्रि में जागरण करने से शरीर में रूक्षता, अर्थात शुष्कता बढती है । इससे शरीर के पानी का, अर्थात आप महाभूत का (पानी का) अंश न्यून होता है ।

५.आ. शरीर में आप महाभूत अग्नि का (पचनशक्ति का) नियमन करता है । आपमहाभूत न्यून होने से अग्नि एकदम प्रज्वलित होती है एवं पचन के समय अन्न जो उसके नियंत्रण में है, उसे जला देती है । इससे दुर्गंधयुक्त डकारें आती हैं । पचन बिगडने से अग्नि से मिलनेवाला पोषण कम होता है । इससे अग्नि मंद होती है । इसके परिणामस्वरूप पचन पुन: बिगड जाता है । खाए हुए अन्न का पचन ठीक से नहीं होता, खमीर उठने लगता है एवं खट्टी डकारें आने लगती हैं । इसे ‘पित्त होना’ अथवा ‘आम्लपित्त’ कहते हैं । ऐसा निरंतर होते रहने से अन्नरस (लिए हुए आहार का पचन होने पर शरीर में अवशोषित होनेवाला रस) का खमीर उठने लगता है । ऐसे अन्नरस से शरीर का पोषण होने से शरीर की सर्व धातुओं में भी आम्लता निर्माण होती है । इससे शरीर में उष्णता प्रतीत होती है, शरीर शिथिल होना, आंखों के सामने अंधेरा छा जाना, चक्कर आना, शरीर में खाज आना, त्वचा पर पित्त उछरना, रक्त का हिमोग्लोबिन न्यून होना, शरीर पर विविध स्थानों पर फोडे-फुंसियां आना, सूजन आना, हड्डियां घिसना, थकान आना आदि विकार होने लगते हैं ।

५.इ. शरीर में आप महाभूत कम होने से मल में विद्यमान पानी का अंश भी न्यून होता है । इसलिए उसके आगे सरकने की गति मंद हो जाती है । मल शुष्क होने पर, वह वहीं पडा रहता है और बद्धकोष्ठता निर्माण होती है । शरीर में सिर से पैरों तक सतत वात बहता रहता है । मल फंसे पडे रहने से वात के मार्ग में बाधा आती है एवं वह उलटी दिशा में घूमने लगता है । ऐसा वायु पेट में जाने पर वहां होनेवाला पचन अर्थात अग्नि से युक्त ऐसा अन्न ऊपर की ओर ढकेल दिया जाता है । इससे छाती में अथवा गले में जलन होती है । वायु के पेट में ही घूमते रहने से पेट में वेदना होने लगती है । इसे ‘वायुगोला’ अथवा ‘उदर का गुल्म’ कहते हैं ।

इस वायु के हृदय में जाने पर हृदय के विकार; फेफडों में जाने पर दमा अथवा खांसी जैसे श्वसनसंस्था के विकार; आंखों में जाने पर आंखों के विकार; सिर में जाने पर सिरदर्द अथवा सिर की रक्तवाहिनियों में जाने पर वहां की कोई रक्तवाहिनी के फूटने पर मस्तिष्क में रक्तस्राव होने से पक्षघात जैसे विकार हो सकते हैं ।

प्रतिदिन का जागरण इसप्रकार अनेक रोगों का कारण हो सकता है । जब तक जागरण बंद नहीं करते, तब तक यह जारी ही रहने से ये रोग ठीक नहीं होते । विकार ठीक कर शरीर निरोगी रखना हो, तो जागरण टालना ही चाहिए ।

युवावस्था अथवा शारीरिक बल उत्तम रहने तक जागरण झेल लेते हैं; परंतु सातत्य से ऐसा होते रहने से, शारीरिक बल क्षीण होने लगता है और ऊपर दिए गए अथवा अन्य भी विकार हो सकते हैं । इसलिए रात में जागरण करना टालें ।

 

६. सोते समय पालने हेतु आचार

६.अ. सोते समय अथवा सोने से पूर्व फिल्मीगीत सुनना अथवा अन्य वीडियो देखना, भ्रमणभाष का उपयोग इत्यादि न करें, अपितु नामजप अथवा संतों द्वारा गाए हुए भजन सुनें ।

६.आ. संभव हो तो पूर्व की अथवा दक्षिण की ओर सिर करके सोएं । ‘पश्चिम अथवा उत्तर दिशाओं में सिर करके सोने से आयु का नाश होता है’, ऐसा विष्णु एवं वामन पुराणों में कहा है ।

६.इ. संभव हो तो बाईं करवट पर सोएं ।

६.ई. तिरछे, पेट के बल, दक्षिण की ओर पैर कर, इसके साथ ही एकदम भगवान के सामने न सोएं ।

६.उ. सोते समय जोर से पंखा न चलाएं; कारण इससे शरीर की रूक्षता बढती है, त्वचा का आरोग्य बिगडता है और जोडों में अकडन होती है ।

६.ऊ. प्रत्येक को आवश्यक उतनी नींद लेनी ही चाहिए । सामान्य मनुष्य के लिए सर्वसाधारण ६ से ८ घंटे नींद पर्याप्त होती है । हमें स्वयं ही अपना अभ्यास कर यह निश्चित करना होगा कि कितनी नींद लेने से हमारी कार्यक्षमता अच्छी रहती है ।

६.ओ. सोने के कक्ष में पूर्ण अंधेरा न करें ।

६.औ. सोते समय बिस्तर के चारों ओर देवताओं की सात्त्विक नामजप-पट्टियों का मंडल बनाएं ।

६.अं. सोने से पहले दिनभर में स्वयं से होनेवाली चूकों के लिए भगवान से क्षमा मांगें ।

६.अ: सोने से पहले उपास्यदेवता से प्रार्थना करें, ‘आपका सुरक्षाकवच मेरे आसपास सतत बना रहने दें एवं नींद में भी मेरा नामजप अखंड होने दें ।’

६.क. सोने का स्थान स्वच्छ एवं बिस्तर सात्त्विक रहेगा, इसका ध्यान रखें ।

 

७. रात की नींद पूरी होने के लक्षण !

रात की नींद पूर्ण होने पर सवेरे अपनेआप नींद खुलती है । उठने पर मन उत्साही एवं प्रसन्न होता है । आंखों में भारीपन नहीं रहता ।

2 thoughts on “नींद कब और कितनी लें ?”

  1. ६.आ. संभव हो तो पूर्व की अथवा दक्षिण की ओर सिर करके न सोएं
    ऐसा लिखा है ,सम्भवतः लेखन में “न” अक्षर की चूक हुई है

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    • नमस्कार श्री. विवेक कुमारजी,

      ये सुधार हमारे ध्यान में लाकर देने के लिए धन्यवाद ।

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