अनुक्रमणिका
१. संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज साक्षात परब्रह्म
होते हुए भी उन्हें संत नामदेव के सत्संग की इच्छा होना
संत नामदेव समान प्रिय भक्त की संगत (सत्संग) सभी को मिले; इसलिए ज्ञानेश्वर महाराजजी ने स्वयं पंढरपुर में आकर नामदेव की भेंट ली और वे उनके साथ तीर्थयात्रा के लिए निकले । उस समय पांडुरंग नामदेव से बोले, ‘ज्ञानेश्वर स्वयं साक्षात परब्रह्म हैं, तब भी उन्हें तुम्हारी संगत चाहिए; इसलिए तुम उनके साथ तीर्थयात्रा करके शीघ्र लौट आओ । प्रवास में मुझे भुला मत देना । मुझ पर मोह बना रहने देना । मुझे भी तुम्हारी सतत याद आएगी ।’ नामदेव विठ्ठल के सर्वाधिक प्रिय भक्त थे ।
२. संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर को नामदेव से भक्ति का रहस्य जानने की इच्छा होना
ज्ञानेश्वर को भी तीर्थयात्रा के समय नामदेव को बहुत समझाना पडा, कारण नामदेव को भी पांडुरंग को छोडकर तीर्थयात्रा करने में रुचि नहीं थी । नामदेव की भक्ति के कारण ज्ञानेश्वर में भी उनसे भक्ति का रहस्य जानने की इच्छा निर्माण हुई थी ।
३. संत नामदेव ने ज्ञानेश्वर को बताया ‘भक्ति का रहस्य’ !
३ अ. भजन
ज्ञानदेव की उत्कंठा देखकर नामदेव बोले, ‘‘देह में वैराग्य होना, मन में सर्व भूतोंविषयी दया होना, अंतःकरण में प्रपंच की, मैं-तू की खलबली न होना, ऐसी स्थिति को ही ‘भजन’ कहते हैं ।
३ आ. अखंड नमन
व्यवहार में एक श्रेष्ठ, तो दूसरा कनिष्ठ, ऐसा भेदभाव न होना ही ‘अखंड नमन’ है ।
३ इ. ध्यान
सर्व स्थान पर एक ही परमेश्वर व्याप्त है, इसका निरंतर अनुसंधान ही ध्यान है ।
३ ई. श्रवणभक्ति
देहभान भुलाकर समरस होकर हरिकीर्तन सुनना ही खरी ‘श्रवणभक्ति’ है ।
३ उ. मनन
प्रपंच में रहते हुए स्वहित का (आत्मोद्धार का) विचार करना, ही ‘मनन’ है ।
३ ऊ. निदिध्यास
संसार में जनसमूह में विचरण करते हुए भी (लोकाचार करते हुए) चित्त सतत परमेश्वर के चरणों में रखना, अर्थात ‘निदिध्यास’ !
३ ए. विश्राम
अपने मन, काया एवं वाचा के माध्यम से परमेश्वर की शरण जाना, ही खरा ‘विश्राम’ है ।
३ ऐ. नरजन्म का ध्येय
हरिकीर्तन ही इस जगत में सर्वश्रेष्ठ साधन है, तो ईश्वर की प्राप्ति करना सर्वोत्तम ध्येय ! सर्व साधनों का जीतोड प्रयास केवल ईश्वर की प्राप्ति करने के लिए ही है और यही है उद्देष्य की पूर्ति ! इसके अतिरिक्त जो भी प्रयत्न होंगे वे सर्व बंधन हैं ।’’
संत नामदेव ने इसप्रकार भक्ति का रहस्य बताया । इसीलिए कहते हैं, ‘विष्णुभक्त अनेक हैं, आगे भी होंगे; परंतु नामदेव समान केवल नामदेव ही हैं’, इस गौरवोद्गार के साथ संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर ने नामदेव को दृढ आलिंगन दिया ।