अनुक्रमणिका
- १. ‘वारी’ शब्द की व्युत्पत्ति
- २. प्राचीन काल से प्रतिष्ठित पंढरपुर
- ३. भक्त पुंडलिक द्वारा मांगा गया वर
- ४. ‘रूठकर चली गईं रुक्मिणी के शोध में श्रीकृष्ण दिंडीरवन में (आज के पंढरपुर) आए और पुंडलिक के लिए वहीं पर खडे रह गए’, ऐसी आख्यायिका होना
- ५. पहली वारी
- ६. इसवी सन की आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्यजी ने ‘पांडुरंगाष्टक’ नाम से प्रासादिक लिखा हुआ एक स्तोत्र
- ७. वारकरी पंथ का सरल-सुलभ मार्ग
- ८. प्रमुख संतों के निर्वाण के उपरांत उनके नाम की पालकियां एवं शोभायात्रा निकालने की परंपरा
- ९. वारकरियों को नीचे गए नियमों का कठोरता से अनुपालन करना चाहिए !
१. ‘वारी’ शब्द की व्युत्पत्ति
१ अ. वार
‘अमरकोष में ‘वार’ यह शब्द ‘समुदाय’ इस अर्थ से उपयोग किया गया है । इससे ‘भक्तों का समुदाय’, ऐसा ‘वारी’ शब्द का अर्थ होता है ।
१ आ. वारी
संस्कृत भाषा में ‘वारि’ अर्थात पानी । पानी का प्रवाह जैसे अनेक मोड लेकर समुद्र में मिलता है, वैसे वारकरियों का भी भक्तिप्रेम से प्रभारित प्रवाह पंढरपुर में आकर मिलता है ।
१ इ. फेरा
संत ज्ञानेश्वरजी ने ज्ञानेश्वरी में ‘वारी’ यह शब्द ‘फेरा’, इस अर्थ से प्रयुक्त किया है । ‘यह वारी कब आरंभ हुई ?’, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है । केवल इतना कहा जा सकता है कि ‘ज्ञानेश्वर महाराज ने ‘वारी’की महिमा में अत्यधिक वृद्धि की ।
१ ई. पग-पग भगवान का कीर्तन करना अर्थात वारी
श्री शिवलीलामृत ग्रंथ में श्रीधरस्वामी कहते हैं,
‘ज्यासी न घडे सत्समागम । त्याने करू जावे तीर्थाटन ॥’ – श्रीधरस्वामी
अर्थ : प्रतिदिन के जीवन में जिसका संत समागम नहीं हो पाता, वह तीर्थाटन करे ।
ऐसा करते समय अपनेआप ही संतदर्शन होते हैं । पंढरपुर की वारी में ये दोेेनों बातें साध्य होती हैं । सर्व जातिभेद भुलाकर ‘वासुदेवः सर्वम् ।’ अर्थात ‘सब कुछ वासुदेव ही है’, इसका बोध लेते हुए जनसामान्य भी भक्ति का रस चख सकते हैं । केवल पैदल चलना, वारी नहीं है; अपितु पग-पग भगवान का संकीर्तन करना वारी कहलाता है ।
२. प्राचीन काल से प्रतिष्ठित पंढरपुर
ऐसा दिखाई देता है कि पद्मपुराण एवं स्कंदपुराण के उल्लेख से पंढरपुर देवस्थान प्राचीन काल से प्रतिष्ठित था ।
३. भक्त पुंडलिक द्वारा मांगा गया वर
पद्मपुराण में ऐसा उल्लेख है कि भक्त पुंडलिक ने पांडुरंग से ऐसा वर मांगा कि दर्शन के लिए आए हुए सभी के पाप नष्ट करें ।
४. ‘रूठकर चली गईं रुक्मिणी के शोध में
श्रीकृष्ण दिंडीरवन में (आज के पंढरपुर) आए और
पुंडलिक के लिए वहीं पर खडे रह गए’, ऐसी आख्यायिका होना
एक बार रुक्मिणी श्रीकृष्ण से रूठकर दिंडीरवन में चली गईं । श्रीकृष्ण उन्हें ढूंढते-ढूंढते दिंडीरवन में पहुंचे, जहां पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा कर रहा था । पुंडलिक द्वारा दी गई ईंट पर ही श्रीकृष्ण ‘अठ्ठाईस युग’ खडे रहे ।
‘इति स्तुत्वा ततो देवं प्राह गद्गदया गिरा ।
अनेनैव स्वरूपेण त्वया स्थेयं ममान्तिके ॥
ज्ञानविज्ञानहीनानां मूढानां पापिनामपि ।
दर्शनान्ते भवेन्मोक्षः प्रार्थयामि पुनः पुनः ॥ – स्कन्दपुराण
अर्थ : तदुपरांत इसप्रकार स्तुति कर वह आनंद से भगवान से बोला, ‘‘आप इसी रूप में मेरे समीप रहें । आपके केवल दर्शनमात्र से मूढ, अज्ञानी एवं पापी लोगों को भी मुक्ति मिले’, ऐसी आपके श्रीचरणों में मैं पुनःपुन: प्रार्थना करता हूं ।’’
५. पहली वारी
पुंडलिक ने भगवान से यह वर मांगा कि श्री विठ्ठल के रूप में ईंट पर खडे रहकर भगवान श्रीकृष्ण सर्व भक्तों का उद्धार करें । वारकरी पंथ के कुछ सांप्रदायिक भक्तों की एक ऐसी धारणा है कि पहली वारी महादेव ने की ।
६. इसवी सन की आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्यजी
ने ‘पांडुरंगाष्टक’ नाम से प्रासादिक लिखा हुआ एक स्तोत्र
महायोगपीठे तटे भीमरथ्या वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः ।
समागत्य निष्ठन्तमानन्दकन्दं परब्रह्मलिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम् ॥
– आदिशंकराचार्य कृत पाण्डुरङ्गाष्टकम्
अर्थ : भीमा नदी के किनारे महायोगपीठ पर पुंडलिक को वर देने के लिए मुनिश्रेष्ठों सहित आए, आनंद का स्रोत, परब्रह्मस्वरूप पांडुरंग की मैं पूजा करता हूं ।
७. वारकरी पंथ का सरल-सुलभ मार्ग
‘भजन, नामस्मरण एवं कीर्तन के माध्यम से परमेश्वर को प्राप्त करना’, यह वारकरी पंथ का सरल-सुलभ मार्ग है । भागवत संप्रदाय में इसे ‘नवविधा भक्ति’ कहते हैं ।
७ अ. नवविधा भक्ति
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम् आत्मनिवेदनम् ॥
अर्थ : भगवान का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य एवं अत्मनिवेदन, ये नौ प्रकार की भक्ति हैं ।
७ आ. वारी का मूल तत्व
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य एवं आत्मनिवेदन, ये नौ भक्ति एक ‘वारी’ करने से सिद्ध होता है एवं मनुष्य का जीवन कृतार्थ होता है । यह वारी का मूल तत्व है ।
८. प्रमुख संतों के निर्वाण के उपरांत उनके
नाम की पालकियां एवं शोभायात्रा निकालने की परंपरा
प्रमुख संतों के निर्वाण के उपरांत उनके नाम की पालकियां एवं शोभायात्रा निकालने की परंपरा हैबतबाबा अरफळकर ने आरंभ की । हैबतबाबा ग्वालियर के सिंधिया के दरबारी सरदार थे । उन्होंने सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर की पादुकाएं गले में बांधकर पदयात्रा की । वे लष्करी अनुशासनबद्ध थे । तत्कालीन राजा एवं सरदारों से उनके घनिष्ठ संबंध होने से संत ज्ञानेश्वर महाराजजी की पालकी को एक भव्य दिव्य स्वरूप देने में वे सफल हुए । उन्होंने महाराजजी की पालकी शोभायात्रा के लिए हाथी, घोडे, पालकी इत्यादि की व्यवस्था करवाई । महाराष्ट्र के प्रमुख संतों की पालकियां आज भी बडे ठाट-बाट एवं अनुशासनबद्ध ढंग से आषाढी एकादशी को पंढरपुर पहुंचती हैं ।’
(संदर्भ : त्रैमासिक ‘सद्धर्म’, जुलै २०१७)
९. वारकरियों को नीचे गए नियमों का कठोरता से अनुपालन करना चाहिए !
अ. मैं सदा सत्य बोलूंगा ।
आ. मैं परसस्त्री को माता समान मानूंगा ।
इ. कोई अपराध होने पर, मैं श्री विठ्ठल के चरणों पर हाथ रखकर मान्य करूंगा एवं क्षमा की याचना करूंगा ।
ई. मैं नित्य शुद्ध सात्त्विक आहार शाकाहार लूंगा ।
उ. मैं वर्ष में एक बार पंढरी, देहू एवं आळंदी की वारी करूंगा ।
ऊ. मैं एकादशी का व्रत करूंगा ।
ए. मैं प्रतिदिन ‘रामकृष्ण हरि’ इस मंत्र का १०८ बार पठन करूंगा ।
ऐ. मैं ‘ज्ञानेश्वरी’, ‘एकनाथी भागवत’ एवं ‘तुकाराम की गाथा’ इन तीन ग्रंथों का नियमित वाचन करूंगा ।
ओ. मैं प्रतिदिन हरिपाठ करूंगा और उसके बिना भोजन नहीं करूंगा ।
औ. संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराजजी का ‘पसायदान’ बोले बिना मैं भोजन नहीं करूंगा ।
अं. मैं नियम से स्नान होने के पश्चात गोपीचंदन का तिलक लगाऊंगा ।
क. मस्तक पर बिना बुक्का लगाए कोई व्यवहार नहीं करूंगा ।
ख. प्रपंच में आनेवाले कार्य श्री विठ्ठल की साक्षी से प्रामाणिकरूप से संपन्न किए या नहीं, यह बताने के लिए मैं प्रतिवर्ष वारी को जाऊंगा ।
ग. पूर्व में एक प्रचलित कहावत थी, ‘वारकरी को वारी में देखें । वारी में न दिखाई दे, तो समझें कि वह विठ्ठल के चरणों में लीन हो गया ।’ मैं इसका पालन करूंगा ।
घ. मेरे वारी के आने पर चंद्रभागा में स्नान कर नगरप्रदक्षिणा करूंगा ।
च. वारी के लिए आनेपर नामस्मरण, सेवा, प्रवचन, भजन, कीर्तन एवं श्रवण करूंगा ।
छ. मैं अपना समय भजन एवं नामस्मरण में बिताऊंगा ।’
– कै. भागवताचार्य वा.ना. उत्पात, पंढरपुर