अनुक्रमणिका
- १. अलौकिक, अद्भुत एवं मंजीरे-मृदुंग के मंजुल निनाद में झूमती चहुंदिशाएं, अर्थात अविस्मरणीय पंढरी की वारी
- २. साधकों द्वारा पंढरी की इस वारी का चित्रीकरण करते हुए वारकरियों ने अनुभव किया भावानंद !
- ३. पंढरपुर की वारी के लिए संत ज्ञानेश्वर महाराज के समाधि मंदिर का संकेत मिलने पर वारी का प्रस्थान होता है ।
- ४. वारी के अश्वों का अनुभव हुआ दैवीय रिंगण एवं उत्कट भाव की परमोच्च अवस्था !
- ५. संत ज्ञानेश्वर महाराज के अश्व के माध्यम से हुई अकल्पित दैवीय अनुभूति से अनुभव हुई ज्ञानेश्वर महाराजजी की वात्सल्यमय प्रीति !
- ६. यह दैवीय चमत्कार देखकर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ की अत्यधिक भावजागृति होना एवं उन्हें ‘प्रत्यक्ष ज्ञानेश्वर महाराजजी ने गुरुकार्य के लिए आशीर्वाद देने से परात्पर गुरु डॉक्टरजी दैवीय कार्य के कारण ऐसी दैवीय अनुभूति आ रही है’, ऐसा कहना
- ७. सनातन संस्था के साधकों के लिए प्रत्येक दिन ईश्वरप्राप्ति का दैवीय रिंगण होने से उसमें गुरुदेव का अश्व सदैव ही आगे दौडता है और साधक उसके पीछे होते हैं ।
बोलावा विठ्ठल पहावा विठ्ठल । करावा विठ्ठल जीवभाव ॥’ (मराठी भाषा में भजन)
इस अभंग (भगवान की स्तुति करनेवाली काव्यरचना) की प्रचीति आज प्रत्येक वारकरी एवं विठ्ठल भक्त नित्य नियम से लेता है । इतना ही नहीं, पंढरी का विठ्ठल वारकरियों की श्वास है । उनके नाम के बिना उनका कोई भी कर्म नहीं होता । ऐसे भगवद्भक्त वारकरियों का महासंगम पंढरपुर यात्रा अर्थात वारी के निमित्त होता है; परंतु इस वर्ष कोरोना महामारी का प्रादुर्भाव होने की संभावना से संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज एवं जगद्गुरु संत तुकाराम महाराजजी की प्रतिकात्मक पालकियां निकलीं । इस माध्यम से भगवान और भक्त की भेंट होगी ।
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ एवं उनके साथ महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के साधक गुट ने एक पंढरी की वारी का एवं उसमें होनेवाले रिंगण का चित्रीकरण किया । (सभी वारकरी एक मैदान में गोलाकार में एकत्र होते हैं । बीच में जो रिक्त स्थान है वहां दैवीय अश्व तेजी से दौडता है । इसे रिंगण कहते हैं । ) उसकी जानकारी यहां देखेंगे !
पंढरपुर की वारी में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने
अनुभव की वारकरियों की परमोच्च भावस्थिति एवं ज्ञानेश्वर महाराजजी के वात्सल्यमय कृपाशीर्वाद !
श्रीचित्शक्ति श्रीमती अंजली गाडगीळ
१. अलौकिक, अद्भुत एवं मंजीरे-मृदुंग के मंजुल निनाद में
झूमती चहुंदिशाएं, अर्थात अविस्मरणीय पंढरी की वारी
१ अ. पंढरी की वारी अर्थात भक्ति का महासागर !
‘भगवान के लिए अपनी भूख-प्यास भुलाकर विठ्ठल दर्शन का एकमेव ध्यास रख, भाव-भक्ति से पंढरपुर के लिए निकली वारी, मानो भगवद्भक्ति का महासागर ! भक्ति का महासागर भगवान के अमृतानंद में धुंध होकर एक ही निनाद करता है, ‘संपूर्ण पंढरपुर में एक ही घोष, वह है भगवान विठ्ठल का जयघोष !’
२. साधकों द्वारा पंढरी की इस वारी का
चित्रीकरण करते हुए वारकरियों ने अनुभव किया भावानंद !
२ अ. पंढरी की वारी का चित्रीकरण करना, अर्थात वारी करने समान ही होना
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ एवं उनके साथ के साधक गुट ने पंढरी की वारी का एवं उसमें होनेवाले रिंगण का चित्रीकरण संपूर्ण एक माह धूप-वर्षा, घंटों-घंटों तक खडे रहकर एवं अपार कष्ट लेकर संग्रहित किया है । वारी के चित्रीकरण की यह सेवा, प्रत्यक्ष वारी में ही जाने समान थी । वारी के विचार से ही भावजागृति होती है, तो ‘प्रत्यक्ष वारी का अनुभव लेनेवाले वारकारियों की भावावस्था क्या होगी ?’, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है ।
२ आ. वारकरियों ने अनुभव की अनुपम विठ्ठलभक्ति !
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने वारी में चलते हुए कुछ वारकरियों का मनोगत पूछा ।
१. श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने वारी में एक वृद्ध वारकरी से पूछा, ‘‘बाबा, आप कब से वारी कर रहे हैं ?’’ इस पर वह वारकरी बोला, ‘‘मैं जब अपनी मां के गर्भ में था, तब से वारी कर रहा हूं ।’’
२. दूसरे एक वारकरी से पूछा, ‘‘चाचा, आप इस धूप में कितने दिन ऐसे ही चलेंगे? निरंतर धूप में चलते रहने से तुम काले नहीं हो जाओगे ?’’ इस पर वह वारकरी बोला, ‘‘जब तक हम अपने विठ्ठल समान काले नहीं हो जाते, तब तक ऐसे ही चलते रहेंगे ।’’ तात्पर्य यह कि जब तक हम अपने विठ्ठल जैसे पूर्ण काले नहीं होते, अर्थात उनसे पूर्णतः एकरूप नहीं होते, तब तक हम भगवान के लिए ऐसे ही चलते रहेंगे ।’
वारकरियों के इस उत्तर से उनका विठ्ठल के प्रति भाव एवं अनुपम भक्ति हम अनुभव कर पाए । भगवान के प्रति असीम भक्ति एवं प्रेम से चलतेेे इन वारकरियों के चरणों की धूल हमने अपने मस्तक पर लगाई और इस वारी में गुरुसेवा करने के लिए तैयार हो गए ।
३. पंढरपुर की वारी के लिए संत ज्ञानेश्वर महाराज के
समाधि मंदिर का संकेत मिलने पर वारी का प्रस्थान होता है ।
आळंदी से संत ज्ञानेश्वर महाराज की संजीवन समाधि मंदिर का कलश दैवीय प्रेरणा से मान का डौल (संकेत) देता है, अर्थात डोलता है । (इसे ही वहां की बोली भाषा में ‘डौल देना’ कहते हैं ।) मान के डौल के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर महाराज वारी के लिए अनुमति देते हैं और फिर पालकी आलंदी से पंढरपुर की दिशा में प्रयाण करती है ।
४. वारी के अश्वों का अनुभव हुआ दैवीय रिंगण एवं उत्कट भाव की परमोच्च अवस्था !
पंढरी की वारी के चलते हुए मार्ग में ‘रिंगण’ नामक एक सुंदर प्रकार देखने मिलता है । इस दिव्य पंढरी की वारी में होनेवाले ज्ञानेश्वर महाराजजी के दैवीय अश्व का रिंगण, एक सुंदर एवं दिव्य अनुभव है !
गोल रिंगण – वेळापुर (जि. सोलापुर) के निकट परंपरागत गोल रिंगण ! इनमें दौडनेवाले दो घोडों में १. दूसरे घोडे को ‘ज्ञानेश्वर महाराज का अश्व’कहते हैं । (गोल में बडा कर दिखाया है ।) इस अश्व पर स्थूल से कोई नहीं बैठता । वारकरियों की श्रद्धा है कि उस पर स्वयं ज्ञानेश्वर महाराज बैठते हैं । जैसे-जैसे ज्ञानेश्वर महाराजजी का अश्व आगे जाता है, वैसे-वैसे उस मार्ग की मिट्टी अपने शरीर पर लगाने के लिए उपस्थित वारकरियों का दल टूट-सा पडता है ।
अ. आरिंगण में २ अश्व होते हैं उनमें से एक पर विठ्ठल भगवान का घुडसवार बैठा होता है और दूसरा अश्व, संत ज्ञानेश्वर इनका होता है । उस पर स्थूल से कोई भी नहीं बैठा होता है । स्वयं ज्ञानेश्वर महाराज उस अश्व पर आरूढ हैं और वे ही वह अश्व हांक रहे हैं’, ऐसा सभी वारकरियों का भाव होता है ।
आ. रिंगण के समय सभी वारकरी एक मैदान में एकत्र आकर भजन-कीर्तन करते हुए मंजीरों-मृदुंग के निनाद में खडे होते हैं । उस आंगन में एक गोलाकार वर्तुल बनाया होता है । इस वर्तुल में संत ज्ञानेश्वर महाराज का अश्व एवं दूसरा अश्व एकत्र भागते हैं । इसमें घुडसवारयुक्त अश्व आगे दौड रहा होता है । एकाएक ही ज्ञानेश्वर महाराजजी का अश्व उस घुडसवार को पीछे छोड कर आगे निकल जाता है । बस, यही वह क्षण है जब गगन ‘ज्ञानेश्वर माऊली, माऊली’ के जयघोष से गूंज उठता है ।
इ. जैसे ज्ञानेश्वर महाराजजी का अश्व आगे बढ जाता है, वैसे वारकरी उस मार्ग की मिट्टी को प्रसाद के रूप में उठा लेते हैं । कुछ वारकरी उस मिट्टी में लोट लगाते हैं । भाव की उच्चावस्था के इन दैवीय क्षण जतन करने समान हैं । वारकरियों की संत ज्ञानेश्वर महाराज के प्रति यह प्रेम देखकर हमारी भी आंखें नम हो जाती हैं ।
श्री गुरुकृपा से इस दैवीय रिंगण का चित्रीकरण करने का अवसर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ एवं उनके साथ के साधकों को भी मिला ।
५. संत ज्ञानेश्वर महाराज के अश्व के माध्यम से हुई
अकल्पित दैवीय अनुभूति से अनुभव हुई ज्ञानेश्वर महाराजजी की वात्सल्यमय प्रीति !
रिंगण होने पर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के मन में क्षणभर के लिए विचार आया, ‘हमें भी ज्ञानेश्वर महाराजजी के इस दैवीय अश्व के दर्शन मिलें’; परंतु बाद में वे बोले, ‘‘भगवान हमारी प्रार्थना ज्ञानेश्वर महाराजजी के चरणोंतक अवश्य ही पहुंचाएंगे ।’’ ऐसा कहते हुए वे वहां से निकलनेवाली ही थीं कि उतने में उन्हें अपनी पीठ पर किसी का स्पर्श प्रतीत हुआ । उन्होंने पीछे मुडकर देखा, तो रिंगण में ज्ञानेश्वर महाराजजी का अश्व ही उनके पीछे आकर खडा था एवं उसने प्रेम से अपना मुुंह पीठ पर टेका था । ऐसा प्रतीत हुआ मानो ज्ञानेश्वर महाराज ही उनकी पीठपर वात्सल्यभाव से हाथ फेर रहे हों ।
६. यह दैवीय चमत्कार देखकर
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ की अत्यधिक भावजागृति
होना एवं उन्हें ‘प्रत्यक्ष ज्ञानेश्वर महाराजजी ने गुरुकार्य के लिए आशीर्वाद देने से
परात्पर गुरु डॉक्टरजी दैवीय कार्य के कारण ऐसी दैवीय अनुभूति आ रही है’, ऐसा कहना
यह दैवी चमत्कार देखकर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ की बहुत भावजागृति हुई । ‘संत ज्ञानेश्वर ने ही अपनी प्रार्थना सुनकर हमें गुरुकार्य के लिए आशीर्वाद दिया है’, ऐसा उन्हें लगा । उन्हें नीचे झुककर ज्ञानेश्वर महाराजजी के अश्व को भावपूर्ण नमस्कार किया । ‘मैदान पर रिंगण के लिए सहस्रों की संख्या में वारकरी एकत्र होेेते हुए इस दैवीय अश्व ने श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के पीछे ही आकर खडे रहना’, यह चमत्कार नहीं तो और क्या है ? श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने इस अश्व की आंखों में अत्यंत करूणामय भाव अनुभव किया । ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी के दैवीय कार्य के कारण ही ऐसी दैवीय अनुभूति अनुभव करने का भाग्य हमें मिलता है’, ऐसा श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ ने कहा ।
७. सनातन संस्था के साधकों के लिए
प्रत्येक दिन ईश्वरप्राप्ति का दैवीय रिंगण होने से उसमें
गुरुदेव का अश्व सदैव ही आगे दौडता है और साधक उसके पीछे होते हैं ।
‘परात्पर गुरु डॉ. आठवले यांचे कार्य हे ईश्वरी नियोजन ही है’, यह ऐसी अनेक अनुभूतियों से साधकों को अनुभव करने के लिए मिलता है । ऐसा कहते हैं कि, ‘जीवन में एक बार तो वारी देखें और अनुभव करें’; परंतु परात्पर गुरुदेवजी ने साधकों का संपूर्ण जीवन ही वारीसमान दैवीय कर रखा है । इसलिए सनातन संस्था के साधकों के लिए प्रत्येक दिन, यह ईश्वरप्राप्ति के लिए रिंगण ही है । साधकों के इस साधनाप्रवास के रिंगण में गुरुदेवजी का अश्व सदैव ही आगे होता है और साधक उसके पीछे ! यह गुरुदेवजी का अश्व ही हमारा मार्गदर्शक है, इसमें शंका नहीं ।’