योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन
१. दैनिक ‘सनातन प्रभात’ द्वारा धर्मरक्षा का अतुलनीय कार्य !
१ अ. हिन्दू धर्म पर टीका-टिप्पणी का ठोस प्रत्युत्तर देना
‘सनातन प्रभात’ ही एकमेव दैनिक हैै, जिससे हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्मियों पर अयोग्य एवं निरर्थक की जा रही टीका-टिप्पणी का आप (डॉ. जयंत आठवले) एवं आपके सेवाभावी साधक निर्भयता से सटीक उत्तर देते हैं ।
१ आ. वेदों में किसी वाक्य का संदर्भ न देखते हुए
उसका गलत अर्थ निकालना वादग्रस्त विधान करनेवालों का
दैनिक ‘सनातन प्रभात’ द्वारा विचारपूर्वक खंडन किया जाना
वर्तमान में अनेक स्थानों पर ‘अपने ऋषि-मुनियों ने वेदों द्वारा जो ज्ञान दिया है, उसका योग्य अभ्यास न करते हुए बीच में ही एक-आध वाक्य उठाकर उसके विरोध में होहल्ला मचाना’, यह एक प्रथा ही बन गई है । उन वाक्यों का अगला-पिछला संदर्भ न लेते हुए उस वाक्य का अथवा ऋचा का उलटा-सीधा अर्थ निकालना और वादग्रस्त विधान कर प्रसिद्धि पाना ही कुछ लोगों का उद्देश्य हो गया है; परंतु आप विचारपूर्वक इन सभी का दैनिक ‘सनातन प्रभात’द्वारा बहुअंशी खंडन करते हैं । यह अत्यंत प्रशंसनीय है !
२. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का रूढि एवं परंपराओं का
अंधानुकरण न करते हुए उसके वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टिकोणों पर बल देना, हितकारी होना
सखोल वैद्यकीय ज्ञान के कारण आप साधकों का मानसशास्त्र जानते हैं ! साधकों के भक्तिभाव एवं परमेश्वर पर श्रद्धा के कारण मनःपूर्वक की हुई उपासना एवं साधना में निरंतरता के उपरांत आनेवाले विविध अनुभवों का सुयोग्य अर्थ हम श्रद्धावान साधकों को भली-भांति समझाते हैं, जो उनके पारमार्थिक मार्ग पर प्रगति के लिए सहायक होता है । रूढी एवं परंपरा का अंधानुकरण न करते हुए उसके वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टिकोणों पर आप जो बल देते हैं, वह अत्यंत हितकारी है ।
३. सुयोग्य मार्गदर्शन द्वारा साधकों की आध्यात्मिक प्रगति
करवानेवाले एवं उन्हें संतपद की सीढी तक लेकर जानेवाले परात्पर गुरु डॉक्टर !
३ अ. आश्रम के ज्येष्ठ साधकों का
नवोदित साधकों की बच्चों समान ध्यान रखना और
अहंकार जैसे शत्रु को नियंत्रण में रखने के लिए आश्रम में
परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा आरंभ की गई पद्धति अन्यत्र कहीं भी देखने न मिलना
सनातन के आश्रमों के ज्येष्ठ साधकों द्वारा नवोदित साधकों का ध्यान बालकों समान लिया जाता है । यह दुर्लभ चित्र आपके ही आश्रम में दिखाई देता है । इसलिए नवोदित साधकों को सुयोग्य मार्गदर्शन मिलता है औेर पुराने साधकों को अहंकार का स्पर्श नहीं होता, यह विशेष है । इसीप्रकार साधना में संतुलन रखकर साधक प्रगतिपथ पर जाता है । अहंकार समान शत्रु नहीं । इसे नियंत्रण में रखने के लिए आपने जो पद्धति आरंभ की है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं । साधक ज्येष्ठ हो अथवा नवोदित, उसके हाथों चूकें होंगी और वे उस फलक पर लिखी जाती हैं । इसलिए उन्हें सुधारने का अवसर मिलता है और साधकों का अहंकार दूर होता है । ‘हम सर्वसाधारण साधक होने से हमारे हाथों चूकें होना, स्वाभाविक है; परंतु उसे मान्य कर उसमें सुधार करना, यह विशेष अनुकरणीय है ।
३ आ. साधकों को सतत नामस्मरण सहित सेवा करने की आदत लगे
साधकों में सेवाभाव रहे, इस हेतु उन्हें विविध प्रकार की सेवा देनी होती है । यह सेवा करते समय ही सतत नामजप करने की आदत लगे, ऐसा उनका प्रयत्न होता है । एक बार सतत नामस्मरण की आदत लग गई, तो साधक सतत श्रीकृष्ण के अनुसंधान में रहता है और फिर उद्देश्य की पूर्ति विशेष कठिन नहीं रहती ।
३ इ. सेवा के प्रति भाव निर्माण करना
अपने पूर्वकर्म के अनुसार हम जिस क्षेत्र में कार्यरत हैं, ‘वह परमेश्वर की ही सेवा है’, यह भाव साधक अपने मन में सतत रखे और ‘सतत परमेश्वर के अनुसंधान में रहे’, यह आपकी सीख स्पृहणीय हैं ।
३ ई. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के अति उत्तम मार्गदर्शन से
अनेक साधकों की प्रगति होकर उनका संतपद तक पहुंचना, प्रशंसनीय है !
आपके सदोदित एवं सुयोग्य मार्गदर्शन के कारण ही आपके कुछ श्रमजीवी साधकों का स्तर विशेष प्रतिशत तक पहुंच गया है, तो कुछ साधकों ने संतपद प्राप्त किया है । ये सभी उन्होंने सांसारिक कर्तव्यों को निभाते हुए पूर्ण किया है । कुछ साधकों ने विविध शारीरिक अडचनों की उपेक्षा कर लक्षणीय प्रगति की है । यदि नामों का उल्लेख करना पडे, तो अनेेेेेक नाम लिखने होंगे ! यह वास्तव में अत्यंत प्रशंसनीय है ।
‘आपका कार्य ऐसे ही बढता रहे और इस दर्शनीय कार्य में कोई सरकारी बाधा न आए’, इस उद्देश्य की पूर्ति होने के लिए मैं भगवान श्रीकृष्ण एवं श्री गुरुदेव दत्त से प्रार्थना करता हूं ।’