६१ प्रतिशत स्तर पर माया से मुक्त हो जाते हैं, अर्थात क्या होता है, इस पर सूझे विचार एवं ६१ प्रतिशत से आगे जाने के लिए किए जानेवाले प्रयत्न

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श्रीचित्‌शक्‍ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

प्रस्तुत लेख में ६१ प्रतिशत प्राप्त करने और आगे जाने के लिए वास्तव में कौनसे प्रयत्न करने चाहिए, यह दिया है । उनकी दृष्टि से साधना के कौनसे सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं, यह इस लेख से स्पष्ट होता है । अपने मन से साधना न करते हुए गुरु को अपेक्षित ऐसी साधना करना अर्थात गुरुकृपायोगानुसार साधना, यह इसका मूल सूत्र है । यह तत्त्व ६१ प्रतिशत स्तर प्राप्त साध्य करनेवालों के लिए ही नहीं, अपितु सर्व स्तर के साधकों के लिए लागू होता है । केवल इतना ही है कि वैसी साधना नहीं की, तो ६१ प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक स्तर प्राप्त करने की क्षमता होते हुए भी यदि साधकों से वैसा नहीं हुआ तो अधिक दोष लगता है । अत: इस लेख के अधिकांश सूत्र सभी के लिए लागू होते हैं; इसलिए शीघ्र प्रगति होने के लिए सभी को ऐसे प्रयत्न करने चाहिए ।

 

 

१. भाव निर्माण होने पर, ६१ प्रतिशत स्तर साध्य करना

‘साधना में अनेक प्रकार के संघर्ष का सामना करते हुए भाव के स्तर पर साधना आरंभ होने पर ६१ प्रतिशत स्तर साध्य कर पाना

 

२. माया से मुक्त होने हेतु क्रियमाणकर्म का पूर्ण उपयोग करना

इस स्तर पर माया से मुक्त होने हेतु भगवान का आशीर्वाद मिलता है; परंतु वैसा होने के लिए हमें क्रियमाणकर्म का पूर्ण उपयोग करना पडता है । अन्यथा आध्यात्मिक स्तर गिर सकता है ।

 

३. साधना का समय अन्यत्र कहीं अनावश्यक नहीं जाता न, इस ओर सावधानी रखना

५० प्रतिशत स्तर तक साधना के विविध मार्ग का अवलंबन कर साधना करनी पडती है; परंतु ६१ प्रतिशत स्तर से अगली यात्रा करते हुए यह ध्यान में रखना होता है कि हमारा समय अनावश्यक ही अन्यत्र कहीं व्यर्थ तो नहीं हो रहा है न !

 

४. गुरु को अपेक्षित कृति न करना, फिर भले ही
वह भाव के स्तर पर हो, तब भी उसकी गणना भावना में ही होना

गुरु द्वारा बताई सेवा को महत्त्व न देते हुए अपना समय भले ही अन्यों के साथ सत्संग की चर्चा करने में जा रहा हो, तब भी उसे अनावश्यक ही समझें; इसलिए कि गुरू को अपेक्षित कृति न करना, फिर भले ही भाव के स्तर पर ही क्यों न हो, तब भी उसकी गिनती भावना में ही होगी ।

 

५. गुरू को अपेक्षित कृति न करते हुए अन्य कृति करना,
भले ही वह कृति सात्त्विक हो, तब भी उसे स्वेच्छाप्रधान ही समझा जाना

इसप्रकार काल को, अर्थात गुरू को अपेक्षित साधना न करते हुए साधना अंतर्गत ही परंतु अन्य सात्त्विक कृति करने में अपना समय देनेपर, वह भी एक स्वेच्छा ही होती है ।

 

६. गुरू को अपेक्षित अर्थात काल के अनुरूप साधना करना आवश्यक !

गुरु द्वारा दी गई सेवा अथवा गुरु को अपेक्षित सेवा भी काल के अनुरूप होने से वह सेवा करने के लिए अधिकाधिक समय देनेपर, ईश्वरेच्छा से साधना करने का फल मिलता है और शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होती है ।

 

७. ‘साधना के लिए जो आवश्यक वही कर्तव्य है’, ऐसा होना चाहिए !

६१ प्रतिशत स्तर तक ‘जो दिखाई दे, वही कर्तव्य’ ऐसा मार्ग योग्य है; इसलिए कि यह एक व्यष्टि साधना करने का प्रमुख सूत्र है; परंतु ६१ प्रतिशत के आगे वह साधक समष्टि का हो जाने से ‘साधना के लिए जो आवश्यक हो, वही कर्तव्य है’, ऐसा होना चाहिए ।

 

८. गुरुकार्य में योगदान न देनेवाली कृति में भाव होने पर भी वह भावना ही कहलाएगी !

५५ प्रतिशत स्तर के आगे शिष्यपद आता है । शिष्य अर्थात गुरु को अपेक्षित सेवा तन्मयता से करनेवाला जीव । गुरु को जो अपेक्षित नहीं, ऐसी सेवा करने पर अर्थात गुरुकार्य में योगदान न करनेवाली कृति करने पर, उस कृति में भाव होने पर भी वह भावना ही कहलाएगी ।

 

९. ६१ प्रतिशत स्तर के आगे स्थल का नहीं, अपितु काल का नियम लागू होना !

६१ प्रतिशत स्तर के आगे स्थल का नियम लागू नहीं होता, अपितु व्यापक स्तर के काल का नियम लागू होता है । अर्थात ६१ प्रतिशत स्तर के आगे साधक अपने व्यक्तिगत जीवन को त्याग कर काल से जुडने लगता है; इसलिए उसके संदर्भ में काल का एक प्रमुख भाग अर्थात ‘समय’की ओर गंभीरता से देखने लगता है । ‘अपना समय अन्य बातों में व्यर्थ तो नहीं जा रहा है न’, इस ओर अधिक सतर्कता से ध्यान देना आवश्यक होता है ।

 

१०. ‘दो सात्त्विक बातों में से कौनसी बात करनी चाहिए’, यह समझना आवश्यक !

६१ प्रतिशत के साधकों को उनका स्तर न्यून (कम) होने पर अथवा उसी स्तर पर रहने पर लगता है, ‘अरे, हमने तो साधना के अतिरिक्त कहीं भी अपना समय नहीं खर्च किया, फिर अपना स्तर क्यों नहीं बढा ? तो इसका उत्तर एक ही है, ‘दो सात्त्विक बातों में से वास्तव में कौनसी बात करनी चाहिए’, यह समझ में नहीं आया ।

 

११. ‘गुरुकार्य शीघ्र पूर्ण होना,
इसके साथ ही गुरुकार्य में वेग आना,
इन बातों की ओर सेवा करते समय अधिक ध्यान
नहीं दिया, तो काल के आशीर्वाद पाने में हमारा कम पडना

कोई साधक यदि किसी अमुक सेवा में अधिक कुशल होता है; परंतु यदि वह यह सेवा न करते हुए दूसरी ही सेवा करने लगे, तो उसकी साधना की फलनिष्पत्ति न्यून होती है; कारण कि यह सेवा फिर किसी अन्य साधक को करनी पडती है । दूसरे साधक की इस सेवा में कुशलता कम होने से गुरुकार्य शीघ्र पूर्ण न होना, इसके साथ ही गुरुकार्य में वेग न आना, इन बातों से हम काल का आशीर्वाद प्राप्त करने में कम पडते हैं । इसमें गुरुकार्य की हम स्वेच्छा से हानि करते हैं और इसका हमें समष्टि पाप लगता है । ऐसी अनेक कृतियां होने से हम भले ही सतत सेवारत हों, तब भी धीरे-धीरे हमारा स्तर कम होता जाता है ।

 

१२. उस उस स्तर पर अपनी उन्नति के लिए आवश्यक सेवा करना आवश्यक !

६१ प्रतिशत के आगे जाते समय कोई भी सेवा करते समय वह हमारे अगले चरण की उन्नति के लिए आवश्यक है क्या, यह परख लेना चाहिए । अन्यथा साधना में अगले चरण पर जाने में बाधा आ सकती है ।

 

१३. सेवा करते समय अनिष्ट शक्तियों का कष्ट हो
रहा हो, तो सेवा से अधिक आध्यात्मिक उपाय करना आवश्यक !

कई बार हमें दी गई सेवा करते समय अनिष्ट शक्तियों की बहुत बाधा आ जाती हो अथवा हमें आध्यात्मिक कष्ट हो रहा हो, तो सेवा में परिवर्तन करने में कोई आक्षेप नहीं; परंतु वह परिवर्तन तात्कालिक ही हो । तदुपरांत हम अपनी सेवा में शीघ्र से शीघ्र कैसे पहुंच सकते हैं, इस ओर हमारा ध्यान अधिक होना चाहिए । कष्ट की तीव्रता बढने पर सेवा की अपेक्षा आध्यात्मिक उपाय की ओर अधिक ध्यान दें ।

 

१४. प्रत्येक कृति योग्य ही होनी चाहिए !

६१ प्रतिशत से आगे जाते समय प्रत्येक कृति योग्य ही की जानी चाहिए । महाविद्यालयीन शिक्षा लेते समय अगले-अगले चरण की परीक्षा अत्यधिक कठिन होती जाती है, वैसे ही यह भी है ।

 

१५. ६१ प्रतिशत स्तर के आगे प्रवास करते समय
‘गुरुकार्य आगे ले जाने के लिए ही साधना !’, ऐसा सूत्र होना

साधना के मार्ग में उस उस चरण से यात्रा करते समय साधना के नियम भी बदलते जाते हैं, अर्थात ६१ प्रतिशत स्तर प्राप्त होनेतक ‘प्रकृति के अनुरूप साधना !’ ऐसा स्वेच्छादर्शक सूत्र होता है, तो ६१ प्रतिशत स्तर के आगे ‘गुरुकार्य आगे ले जाने के लिए साधना !’, यह सूत्र लागू हो जाता है ।’

– (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (१८.२.२०११)

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