१. बुद्धिमान
कंसवध एवं उपनयन के पश्चात बलराम-कृष्ण अवंती में गुरु सांदीपनि के आश्रम गए । वहां श्रीकृष्ण ने ६४ दिनों में १४ विद्याएं एवं ६४ कलाएं सीखीं । सामान्यतः एक विद्या सीखने में दो से ढाई वर्ष लगते थे ।
२. ज्येष्ठों का भी श्रीकृष्ण से परामर्श लेना
ज्येष्ठों के साथ भी श्रीकृष्ण की निकटता थी । सात वर्ष की कोमल आयु में ही श्रीकृष्ण ने गोपियों को मथुरा जाने से रोका, क्योंकि दुष्ट कंस को दूध बेचकर धनार्जन करना उन्हें स्वीकार न था । तब से वयोवृद्ध भी पूर्ण विश्वास रख उनका मत मानने लगे एवं श्रीकृष्ण भी उनके विश्वास के पात्र बने ।
३. अनुभूति देना
अ. एक बार गोपों ने यशोदा को बताया कि श्रीकृष्ण ने मिट्टी खाई है । उस पर यशोदा ने श्रीकृष्ण को मुंह खोलने के लिए कहा एवं श्रीकृष्ण के मुंह खोलते ही यशोदा को उनके मुंह में विश्वरूप के दर्शन हुए । इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि अवतार बचपन से ही कार्य करते हैं ।
आ. श्रीकृष्ण ने शरद ऋतु की एक चांदनी रात में गोकुल में गोपियों के साथ रासक्रीडा रचाई । उस समय गोपियों को ब्रह्मानंद की अनुभूति हुई ।
इ. श्यामवर्ण (तप्त कांचनवर्ण) : भगवान श्रीकृष्ण श्याम वर्ण के हैं । श्याम का अर्थ काला नहीं है । इसका अर्थ निम्नानुसार है –
तप्तकांचनवर्णाभा सा स्त्री श्यामेति कथ्यते ।
अर्थ : श्यामवर्ण अर्थात तप्त कांचनवर्ण । अर्थात, ऐसा वर्ण जिसमें तपे हुए सोने समान लाल, पीला तथा नीला, इन तीनों रंगों की छटाओं का मिश्रण हो !
भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण श्यामवर्ण अर्थात तप्त कांचनवर्ण के थे । सत्त्वशील भक्तों को कृष्ण अर्थात काला यह अर्थ अच्छा नहीं लगता । इस शब्द को वे अति उदात्त अर्थ देते हैं । कृष्ण का अर्थ काला नहीं, अपितु इंद्रनील मणिसमान उज्जवल है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (मासिक घनगर्जित, जून २००७)
४. ऐतिहासिक
श्रीकृष्ण को पकडने के लिए जरासंध ने अठारह बार मथुरा को घेरा । एक व्यक्ति को पकडने के लिए इतनी बार प्रयत्नों का विश्व में अन्य कोई उदाहरण नहीं है । कंस नौकाओं में २८० हाथियों को यमुना नदी के पार ले आया । तीन महीने मथुरा को घेरे रहने पर भी श्रीकृष्ण नहीं मिले । कंस, श्रीकृष्ण को ढूंढ नहीं पाया; क्योंकि प्रतिदिन वे एक सदन में नहीं रहते थे । एक सहस्र बालकों ने श्रीकृष्ण समान मोरपंख पहन लिए । कंस के सैनिकों ने उन्हें मारा-पीटा, फिर भी उन बालकों ने भेद नहीं खोला कि वास्तव में श्रीकृष्ण कौन हैं ।
५. पारिवारिक
अ. आदर्श पुत्र
श्रीकृष्ण अपने आचरण द्वारा माता-पिता वसुदेव-देवकी व पालनकर्ता नंद-यशोदा को आनंदित रखने का प्रयत्न करते थे ।
आ. आदर्श बंधु
श्रीकृष्ण अपने बडे भाई बलराम का मान रखते थे ।
इ. आदर्श पति
जबकि एक पत्नी का मन रखना कठिन होता है, श्रीकृष्ण ने १६००८ पत्नियों को संतुष्ट रखा ! नारद ने उनके बीच कलह उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, परंतु वे असफल रहे ।
ई. आदर्श पिता
बच्चे, पोते इत्यादि के अनुचित आचरण के कारण श्रीकृष्ण ने यादवी युद्ध के समय स्वयं ही उन्हें मार दिया । अवतार एवं देवताओं में अपने कुल को नष्ट करनेवाले श्रीकृष्ण एकमात्र अवतार हैं ।
उ. आदर्श मित्र
द्वारकाधीश होते हुए भी श्रीकृष्ण ने अपने बचपन के निर्धन मित्र सुदामा का बडे आदर-सत्कार एवं प्रेम से स्वागत किया । पांडवों से मित्रता के कारण श्रीकृष्ण ने उनकी सहायता की । पांडवों की श्रीकृष्ण के प्रति सख्यभक्ति थी ।
ऊ. कलासंबंधी
नृत्य, संगीत इत्यादि कलाओं के श्रीकृष्ण भोक्ता एवं मर्मज्ञ (ज्ञानी) थे । उनके बांसुरीवादन एवं रासक्रीडा प्रसिद्ध हैं । श्रीकृष्ण का बांसुरीवादन सुनकर पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते थे ।
६. सामाजिक
अ. अन्याय को न सहनेवाला (तेजस्वी)
कंस, जरासंध, कौरव इत्यादि द्वारा किए गए अन्याय के विरुद्ध श्रीकृष्ण ने स्वयं युद्ध कर अथवा दूसरों की युद्ध में सहायता कर अन्याय का अंत किया ।
आ. सामाजिक कर्तव्य के प्रति सतर्कता
नरकासुर के बंदीवास से मुक्त की गई १६००० कन्याओं को समाज में उचित स्थान नहीं मिल पाएगा और इससे अनेक अनर्थ होंगे, यह ध्यान रख उन्होंने उनसे विवाह रचाया ।
इ. आपातकाल में धर्मानुसार एवं प्रसंगानुरूप उचित आचरण करना
उनका ध्येय समाजरक्षा था तथा उन्होंने जान लिया था कि इस उद्देश्यपूर्ति के मार्ग में बाधाओं का एवं दुष्कर्म करनेवालों का विनाश आवश्यक है । अतएव उन्होंने ऐसे उपदेश दिए – असत्य कभी-कभी सत्य से श्रेष्ठ प्रतीत होता है, इस समय धर्म-बाह्य लडना आवश्यक है, यदि भीमसेन धर्म अपनाकर लडा, तो उसे विजय प्राप्त नहीं होगी, अतः अन्याय को अपनाना उचित होगा ।
७. राजनीतिकुशल
अ. उत्तम वक्ता : अपने अप्रतिम वक्तृत्व द्वारा श्रीकृष्ण ने अनेक लोगों के मन में पांडवों के प्रति अपनापन निर्माण किया ।
आ. उत्तम राजदूत :कौरवों की राज्यसभा में श्रीकृष्ण ने पांडवों का पक्ष उत्कृष्टता से प्रस्तुत किया ।
इ. मानसशास्त्र का उत्तम प्रयोग करनेवाला : उचित समय पर कर्ण को उसका जन्मरहस्य बताकर श्रीकृष्ण ने उसे दुविधा में डाल दिया ।
८. युद्धसंबंधी
१. युद्धकला में निपुण
अ. धनुर्विद्या में प्रवीण : अर्जुन के समान मत्स्य-भेदन कर श्रीकृष्ण ने लक्ष्मणा को जीता ।
आ. गदायुद्ध में प्रवीण : श्रीकृष्ण ने वक्रदंत को गदायुद्ध में मारा ।
इ. मल्लविद्या में प्रवीण : चाणुर को श्रीकृष्ण ने मल्ल युद्ध में मारा ।
ई. शूर एवं पराक्रमी : श्रीकृष्ण ने अनेक दुष्ट राजाओं एवं मायावी राक्षसों का वध किया ।
ए. धैर्यवान : जब दो बलवान राजा, जरासंध एवं कालयवन ने एक ही साथ आक्रमण किया, तब श्रीकृष्ण ने धैर्य न छोडते हुए यादवों की रक्षा की ।
ऐ. उत्कृष्ट सारथी : युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथ्य सर्वोत्कृष्टता से किया ।
ओ. कौरव-पांडवों के युद्ध में स्थूल से नहीं, अपितु सूक्ष्म से युद्ध करना ! : भगवान श्रीकृष्ण ने कौरव-पांडवों के युद्ध में कहा, मैं युद्ध नहीं करूंगा । उन्होंने स्थूल से अर्थात सगुण स्तर पर युद्ध नहीं किया; परंतु उस समय उन्होंने निर्गुण अवस्था में रहकर सूक्ष्म स्तर पर अधिकाधिक प्रभावकारी ढंग से युद्ध किया । फलतः पांडव विजयी हुए ।
औ. निःस्वार्थी : श्रीकृष्ण ने कंस तथा कई अन्य राजाओं को मारा, सोने की द्वारका बसाई; परंतु वे स्वयं राजा नहीं बने । फिर भी वे उस काल के अनभिषिक्त सम्राट ही थे ।
अं. नम्र : पांडवों के राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों का पादप्रक्षालन किया एवं जूठे पत्तल उठाए ।
९. महान तत्त्वज्ञाता
श्रीकृष्ण द्वारा बताया हुआ तत्त्वज्ञान गीता में दिया है । उन्होंने अपने तत्त्वज्ञान में प्रवृत्ति (सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति) एवं निवृत्ति (सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति) के बीच योग्य संयोजन दर्शाया है । वैदिक कर्माभिमानियों की कर्म-निष्ठा, सांख्यों की ज्ञाननिष्ठा, योगाभिमानियों का चित्त-निरोध और वेदांतियों का संन्यास, इन सर्व धारणाओं को उन्होंने मान्य किया; परंतु अनेक हठधर्मियों के मतों का उन्होंने निषेध किया । प्रत्येक मत को उचित महत्त्व प्रदान कर, सबका समन्वय कर, उन्होंने उनका उपयोग अपने नए कर्तव्य सिद्धांत अर्थात निरपेक्ष, फलेच्छारहित कर्म के लिए किया । मनुष्य को अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए, इस सूत्र का प्रतिपादन उन्होंने मुख्यतः श्रीमद्भगवद्गीता में किया है । धर्मशास्त्र बताता है कि हमारा कर्तव्य क्या है; परंतु उसे किस प्रकार करना चाहिए, यह श्रीकृष्ण ने उत्तम प्रकार से समझाया । प्रवृत्ति को निवृत्ति में या निवृत्ति को प्रवृत्ति में कैसे परिवर्तित करना चाहिए तथा कर्तव्य-पालन की प्रक्रिया उन्होंने अर्जुन को गीता में बताई ।
अ १. गुरु
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शब्दों के माध्यम से गीता सुनाकर एवं शब्दातीत माध्यम से अनुभूति प्रदान कर उसका संदेह नष्ट किया । भारतीय युद्ध के समय श्रीकृष्ण ज्ञानमुद्रा में थे ।
आ २. जगद्गुरु
संत एकनाथ महाराजजी ने भगवान श्रीकृष्ण का वर्णन जगद्गुरु (कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ।) के रूप में करते हुए कहा है श्रीकृष्ण ने धर्ममर्यादाओं का उल्लंघन कर धर्म का विस्तार किया । – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, महाराष्ट्र.
संदर्भ : सनातन का लघुग्रंथ श्रीकृष्ण
रासलीला अर्थात भगवान द्वारा गोपियों
को दी गई अत्युच्च आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति !
धर्मद्रोहियों का यह आरोप कि रासलीला
श्रीकृष्ण की कामक्रीडा है, कितना निष्फल है इसके कुछ सूत्र..
१. उस समय श्रीकृष्ण की आयु मात्र ८ वर्ष थी । गोपियां सहस्रों थीं । इतनी सारी स्त्रियों से एक साथ संबंध रखना किसी के लिए संभव नहीं है !
२. सप्तदेवता कामदेव के अधीन नहीं होते । कामदेव ने जब शिवजी का ध्यान भंग किया, तो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया ।
३. श्रीकृष्ण स्वयं बताते हैं, मैं साक्षात ईश्वर हूं, इसलिए मुझमें वासनाएं होने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसके विपरीत, मुझमें वासना-विनाश का अपूर्व सामर्थ्य है; इसलिए रासलीला पूर्णतः आध्यात्मिक स्तर पर हो रही थी । रासलीला के कारण गोपियों की वासना नष्ट हो गई और वे भी मेरे समान शुद्ध एवं पवित्र हो गईं ।