विश्वास, भाव, श्रद्धा एवं भक्ति, ये शब्द अध्यात्ममार्ग में अनेक
बार सुने जानेवाले हैं । गुरुकृपा के संदर्भ में इनका कुछ महत्त्व है क्या ?
‘अविश्वसनीय व्यक्ति पर विश्वास नहीं रखना चाहिए, इतना ही नहीं विश्वसनीय व्यक्ति पर भी विश्वास नहीं रखना चाहिए ।’ इसके विपरीत ‘गुरुशास्त्र पर आंखें मूंदकर श्रद्धा रखनी चाहिए’, ऐसा दूसरा कथन है । ऐसे में मानव क्या करे ? इसका सुंदर विवेचन शास्त्रों में है ।
विश्वास दो प्रकार के होते हैं । पूज्यतामूलक एवं मैत्रीमूलक । स्वयं दुर्बल होने के कारण अभिभावक इत्यादि पर जो विश्वास उत्पन्न होता है, वह प्रथम प्रकार का है ।
स्वयं में बल होते हुए अधिक बल की आशा में जो विश्वास रखा जाता है, वह द्वितीय प्रकार का है । बालक माता पर विश्वास न रखे, तो वह स्वयं कुछ भी नहीं कर पाएगा ।
उसी प्रकार परमार्थ में गुरुशास्त्र के आधार बिना शिष्य असहाय बालक समान होता है; इसलिए प्रथम प्रकार का विश्वास रखना पडता है । ‘गुरु पर दृढ श्रद्धा रखें’, यह वाक्य प्रथम विश्वाससंबंधी है; परंतुु व्यवहार में कार्य की योजना करते समय द्वितीय प्रकार का विश्वास होना आवश्यक है । ‘न विश्वसेत्’ इत्यादि वाक्य इस द्वितीय प्रकार के संदर्भ में हैं ।’
शब्दजन्य ज्ञान से विश्वास उत्पन्न होता है । विश्वास से साधना करने पर कुछ अनुभूतियां होती हैं । अनुभूतियों से भाव जागृत होने में सहायता होती है । ‘जहां भाव वहां भगवान’ ऐसा कथन है । आगे भाव के कारण निरंतर अनुभूतियां होने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है । श्रद्धा से साधना निष्ठापूर्वक होती है । इससे भक्ति जागृत होती है । आगे भक्ति निरंतर रहने पर, जो विभक्त नहीं वह भक्त बन जाता है । यह अद्वैत की अवस्था है । भक्ति पृथकता का अंत करनेवाली शक्ति है ।
१. साधक यदि श्रीगुरु के श्रीचरणों में पूर्ण श्रद्धा और भक्ति रखेंगे तो केवल उनके अस्तित्व से ही सब कुछ संभव हो जाएगा ।
२. अध्यात्म के मार्ग पर चलना, धारदार तलवार पर चलने समान है । इसलिए गुरु का मार्गदर्शन अत्यावश्यक होता है ।
३. गुरु के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना शांति नहीं और शांति के बिना आनंद नहीं ।
४. गुरु की अवहेलना/निंदा करने से लगनेवाले पाप का क्षालन भगवान भी नहीं कर सकते ।
५. हम जितनी अधिक गुरु की सेवा करेंगे, उतना ही अधिक चैतन्य हमें मिलेगा ।
६. गुरु द्वारा उच्चारित प्रत्येक शब्द में संपूर्ण मानवजाति का कल्याण करने का सामर्थ्य है ।
७. ईश्वर की शरण में जानेपर वे हमें संपत्ति और समृद्धि देते हैं; परंतु गुरु की शरण में जानेपर वे हमें साक्षात ईश्वर की प्राप्ति करवाते हैं ।
८. गुरु के चरणकमल, प्रत्येक संकल्प पूर्ण करनेवाले चिंतामणी ही हैं ।
९. जन्मदाता (माता-पिता) हमें केवल अन्न देते हैं; परंतु गुरु हमें आत्मोद्धार का ज्ञान देते हैं ।
१०. गुरु के एक दृष्टिक्षेप से हमारे अनंत कोटि पापों का क्षालन होकर उनके अनंत कोटि कृपाशीर्वादों का हमपर वर्षाव होता है ।
११. ईश्वररूपी अमृत पीने के लिए गुरुरूपी पात्र की आवश्यकता होती है ।
१२. गुरुचरणकमल, अन्य किसी भी संपत्ति से सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है ।
१३. गुरु शिष्य का सर्व अज्ञान दूर कर उसे प्रकाशमान बनाते हैं ।
१४. गुरु का आज्ञापालन सर्वोत्कृष्ट गुरुसेवा है ।
१५. गुरु की कृपा से किसी संपूर्णतः अज्ञानी व्यक्ति का भी भला होता है ।
१६. पिता से मिला जन्म व्यर्थ हो सकता है; परंतु गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता ।
१७. गुरु शब्द का खरा अर्थ ज्ञात न हो; तो जप, तप, व्रत, तीर्थाटन, योग और त्याग आदि सर्व व्यर्थ है ।
१८. ईश्वर पर श्रद्धा और गुरु पर भक्ति हो, तो कोई भी हमें पराजित नहीं कर सकता ।
१९. कृपालु गुरु के कारण हमें ईश्वर से एकरूप होने का मार्ग मिलता है ।
२०. नाम, प्रसिद्धि, शक्ति अथवा संपत्ति की अपेक्षा किए बिना गुरु की सेवा करनी चाहिए ।
२१. गुरु साक्षात ईश्वर का अवतार होने के कारण उनके मुख से निकलनेवाला प्रत्येक शब्द प्रत्यक्ष ईश्वर का ही होता है ।
२२. केवल गुरु ही हमारा प्रारब्ध नष्ट कर सकते हैं ।
२३. जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक वर्षों तक साधना करनी पडती है, वह ज्ञान गुरु की एक दृष्टिक्षेप से एक क्षण में मिल जाता है ।
२४. गुरु की सेवा किए बिना उनकी कृपा प्राप्त होना संभव नहीं है ।
२५. गुरु के सामने ईश्वर अथवा कोई भी उच्च पद श्रेष्ठ नहीं है ।
२६. गुरुमंत्र का जप करनेवाले की ही आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
२७. गुरु की कृपा से केवल आध्यात्मिक ही नहीं अपितु ऐहिक लाभ भी होता है ।
२८. इस विश्व में सबसे बडा ऐश्वर्य है – गुरु !
२९. गुरु की कृपा के बिना ईश्वर का आशीर्वाद भी नहीं मिलता ।
३०. गुरु के शब्दों पर पूर्ण श्रद्धा रखनेवाला ही साधना में निर्भयता से प्रगति कर सकता है ।
३१. संसार की किसी भी वस्तु की तुलना गुरु-शिष्य के मध्य की निरपेक्ष प्रीति से नहीं हो सकती ।
यदि किसी में लगन हो, तो उसे गुरु की कृपा अपनेआप मिलती है । गुरु को उसके लिए कुछ करना नहीं पडता । केवल संपूर्ण श्रद्धा होना आवश्यक है । गुरु ही उसे उसके लिए पात्र बनाते हैं ।
जिस क्षण अनुग्रह प्राप्त होता है, उसी क्षण साधक मुक्त हो जाता है ।
गुरु का अनुग्रह प्राप्त कर लेने पर जब शिष्य पूछता है, ‘अब कितने दिनों में मैं मुक्त हो जाऊंगा’, तब गुरु उत्तर देते हैं, ‘‘जिस क्षण तुझे अनुग्रह दिया, उसी क्षण तू मुक्त हो गया । मुझ पर विश्वास न हो, तो उसकी अनुभूति के लिए तू भक्ति कर; विश्वास हो तो भक्ति की आवश्यकता ही नहीं ।’’
समर्थ रामदासस्वामीजी ने तो दासबोध में लिखा है कि जिस क्षण अनुग्रह प्राप्त होता है, उसी क्षण साधक मुक्त हो जाता है । तत्पश्चात ऐसा समझना ही अनुचित होगा कि आत्मा पर किसी भी प्रकार का बंधन शेष है ।
शिष्य का श्री गुरु के प्रति समर्पण
गुरुगीता में लिखा है कि ‘गुरुपुत्र’ कहलाने योग्य कोई गुरुसेवक शिष्य यदि व्यवहार में नासमझ हो, तब भी उसकी दीक्षा, व्रत, तप इत्यादि साधनाएं सिद्ध होती हैं । जो गुरुसेवक नहीं हैं, उन्हें ऐसा फल प्राप्त नहीं होता । यह उसके समर्पण का परिणाम है ।
संक्षेप में, जिसका गुरु के प्रति पूर्णतः समर्पण हो, वह शिष्य कहलाता है । शिष्य को देवऋण, ऋषिऋण, पितरऋण एवं समाजऋण, ये चार ऋण चुकाने नहीं पडते ।