अनुक्रमणिका
- १. आचार्य देवव्रत द्वारा आरंभ में गुरुकुल के १.५ सहस्र निवासी छात्रों के लिए अन्यों के समान रासायनिक खेती करना
- २. खेत में काम करनेवाले एक श्रमिक के कीटकनाशक की गंध से मूर्च्छित हो जाने पर ‘रासायनिक कृषि’ विषयुक्त कृषि है तथा वह अनुचित है’, इसका भान होना
- ३. कृषि वैज्ञानिकों के सुझाव से जैविक कृषि आरंभ करना; परंतु उससे रासायनिक कृषि जितनी आय न मिलने से आर्थिक हानि होना
- ४. जैविक कृषि तो केवल दिखावा है, जो सामान्य किसानों की आर्थिक क्षमता से बाहर है, इसका भान होना
- ५. पद्मश्री सुभाष पाळेकर के मार्गदर्शन में ५ एकड भूमि में प्राकृतिक कृषि का प्रयोग करना सुनिश्चित किया जाना
- ६. प्राकृतिक कृषि से योजनाबद्ध पद्धति से रासायनिक कृषि से भी अधिक आय मिलना
- ७. खेती में उपयोग किए जानेवाले रसायनों के कारण भूमि अनुपजाऊ होने से किसानों द्वारा किराए पर कृषि भूमि लेना अस्वीकार किया जाना
- ८. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों के उपयोग के कारण भूमि में स्थित जैविक कर्ब का (कार्बन का) स्तर बडी मात्रा में घट जाना
- ९. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों द्वारा कर्ब तैयार करनेवाले जीवाणुओं के मारे जाने से भूमि अनुपजाऊ होना
- साधकों को सूचना और पाठकों से अनुरोध !
गुजरात में प्राकृतिक कृषि के विषय पर राष्ट्रीय परिषद संपन्न हुई । इस परिषद में गुजरात के मा. राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने प्राकृतिक कृषि के विषय में अपने अनुभव कथन किए । प्रत्येक व्यक्ति को इससे सीखने के लिए बहुत कुछ है । आचार्य देवव्रत के भाषण का सारगर्भ यहां दे रहे हैं !
१. आचार्य देवव्रत द्वारा आरंभ में गुरुकुल के
१.५ सहस्र निवासी छात्रों के लिए अन्यों के समान रासायनिक खेती करना
मैं स्वयं एक शिक्षक हूं । उसके साथ मैं एक किसान भी हूं । मेरे खेत के लिए जो नियम हैं, वही नियम भारत के प्रत्येक किसान के लिए भी हैं । मैं हरियाणा के कुरुक्षेत्र में स्थित एक गुरुकुल में ३५ वर्ष तक प्राचार्य था । वहां एक ही समय में १.५ सहस्र छात्र निवासी पद्धति से शिक्षा लेते हैं । उनके भोजन के लिए खाद्यान्न के उपज की व्यवस्था हमारे गुरुकुल की २०० एकड कृषि भूमि में की है । मैं स्वयं ९० एकड भूमि में खेती कर उससे उन बच्चों के लिए गेहूं, चावल, दलहन और सब्जियों का प्रबंध करता था । मेरे पास बची हुई कृषि भूमि मैंने किराए पर अन्य किसानों को दी थी ।
२. खेत में काम करनेवाले एक श्रमिक के
कीटकनाशक की गंध से मूर्च्छित हो जाने पर ‘रासायनिक कृषि’
विषयुक्त कृषि है तथा वह अनुचित है’, इसका भान होना
एक दिन एक घटना हुई । मुझे मेरे खेत से यह जानकारी मिली कि खेत में एक श्रमिक कीटकनाशक फुहार रहा था । तब गर्मी के दिन थे । कीटकनाशक की गंध से वह मूर्च्छित हुआ । उसे चिकित्सालय ले जाया गया । उसके २-३ दिन उपरांत वह होश में आया । ऐसी घटनाएं बार-बार होती हैं, यह सभी किसानों को ज्ञात है । उस दिन मेरे मन में यह विचार आया कि मैं बच्चों को जो खाना खिलाता हूं, उस पर अर्थात गेहूं, चावल, दलहन और सब्जियों पर कीटकनाशक फुहारा जा रहा है । जिस कीटकनाशक की केवल गंध से वह श्रमिक मूर्च्छित हुआ, वही कीटकनाशक मैं अन्न में डालकर उन निष्पाप बच्चों को दे रहा हूं, इसका अर्थ मैं बडा अपराध कर रहा हूं ।’ उस दिन से मैंने यह सुनिश्चित किया कि ‘अब मैं ऐसा नहीं करूंगा ।’
३. कृषि वैज्ञानिकों के सुझाव से
जैविक कृषि आरंभ करना; परंतु उससे
रासायनिक कृषि जितनी आय न मिलने से आर्थिक हानि होना
मैं कृषि वैज्ञानिकों, साथ ही कृषि विभाग के अधिकारियों से मिला । उन्होंने मुझे बताया कि ‘आपके पास जैविक कृषि का विकल्प है; इसलिए आप जैविक कृषि कर सकते हैं ।’ तब मैंने तुरंत ही गड्ढे खोद लिए, उसमें गोबर डाला । गोबर खानेवाले केचुएं मंगाए और योजनाबद्ध पद्धति से जैविक कृषि आरंभ की । पहले वर्ष ५ एकड में मैंने यह काम किया; परंतु उससे मुझे कोई भी आय नहीं हुई । उससे उत्पन्न सब आय कीटकों ने ही खा डाली । अगले वर्ष भी मैंने वही किया, तब मुझे रासायनिक खेती की अपेक्षा लगभग ५० प्रतिशत फसल मिली । तीसरे वर्ष भी मैंने प्रयास जारी रखे, तब जाकर कहीं लगभग ८० प्रतिशत आय अर्जित करना संभव हुआ ।
४. जैविक कृषि तो केवल दिखावा है, जो
सामान्य किसानों की आर्थिक क्षमता से बाहर है, इसका भान होना
तब मैंने यह विचार किया कि मेरे पास तो २०० एकड भूमि है । तो जिस किसान के पास केवल २-३ एकड ही भूमि है, उसने यदि जैविक कृषि की, तो उसकी हानि ही होगी । तो उसके बच्चों का भरण-पोषण कैसे हो सकेगा ? इस जैविक पद्धति के कारण मेरा खर्चा न्यून नहीं हुआ और परिश्रम भी न्यून नहीं हुए; परंतु उत्पादन घट गया । इस पद्धति से यह कृषि चलाना संभव नहीं है; उसके कारण मेरे मन में ‘क्या मुझे पुनः रासायनिक कृषि ही करनी चाहिए ?’, ये विचार आने लगे ।
५. पद्मश्री सुभाष पाळेकर के मार्गदर्शन में ५ एकड
भूमि में प्राकृतिक कृषि का प्रयोग करना सुनिश्चित किया जाना
इसी अवधि में मेरा परिचय पद्मश्री सुभाष पाळेकर से हुआ । श्री. सुभाष पाळेकर ने ‘प्राकृतिक कृषि’ के विषय में बडा काम किया है । मैंने उन्हें मेरे गुरुकुल में आमंत्रित कर ५०० किसानों के लिए ५ दिन का शिविर रखा । उसमें मैंने स्वयं बैठकर प्राकृतिक कृषि की सभी जानकारी ली और मेरी ५ एकड कृषि भूमि पर ‘प्राकृतिक कृषि’ करना आरंभ किया ।
६. प्राकृतिक कृषि से योजनाबद्ध पद्धति से
रासायनिक कृषि से भी अधिक आय मिलना
मुझे एक बहुत सुखद अनुभव हुआ कि प्राकृतिक कृषि से मैं पहले ही वर्ष रासायनिक कृषि से मिलनेवाली आय के जितनी आय ले सका । उसके अगले वर्ष मैंने १० एकड भूमि में प्राकृतिक पद्धति से खेती की और तब रासायनिक कृषि से मुझे जितनी आय मिलती थी, उतनी ही आय मिली । अब मुझे रासायनिक कृषि से भी अधिक आय मिल रही है ।
७. खेती में उपयोग किए जानेवाले रसायनों के कारण
भूमि अनुपजाऊ होने से किसानों द्वारा किराए पर कृषि भूमि लेना अस्वीकार किया जाना
वर्ष २०१७ में एक और घटना हुई । विगत ३५ वर्षाें से जो मैं मेरे गुरुकुल की १०० एकड कृषि भूमि किसानों को किराए पर दे रहा था, उन किसानों ने मेरी वह भूमि छोड दी । ‘उस भूमि से कोई आय नहीं होती । उससे आनेवाली फसल से खेती का खर्चा भी वसूल नहीं होता; इसलिए इसके आगे हम आपकी कृषि भूमि किराए पर नहीं लेंगे’, ऐसा बताकर उन्होंने वह भूमि छोड दी । उससे मेरी चिंता बढ गई; क्योंकि मैंने उन्हें उपजाऊ कृषि भूमि दी थी और वे तो कह रहे थे कि उस भूमि से कुछ उपज ही नहीं होती !
८. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों के
उपयोग के कारण भूमि में स्थित जैविक कर्ब का (कार्बन का) स्तर बडी मात्रा में घट जाना
मैंने हिस्सार, हरियाणा के कृषि महाविद्यालय के वरिष्ठ कृषि विज्ञानी तथा कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख डॉ. हरि ओम् से मिलकर उनके सामने यह समस्या रखी । वे कहने लगे, ‘‘आप मिट्टी का नमूना परीक्षण के लिए प्रयोगशाला में भेज दीजिए, जिससे यह समझ में आएगा कि उस भूमि की निश्चित रूप से क्या स्थिति है ।’ तब हमने भूमि के अलग-अलग भागों में स्थित मिट्टी के अनेक नमूने लेकर उसे विश्वविद्यालय भेज दिया । उस परीक्षण से यह निष्कर्ष मिला कि मेरी भूमि में स्थित जैविक कर्ब का (कार्बन का) स्तर ०.३ से भी निचले स्तर तक पहुंच गया है । मैंने उनसे इसका अर्थ पूछा, तो डॉ. हरि ओम् कहने लगे, ‘आपकी भूमि अनुपजाऊ बन गई है, ऐसा जो वे कह रहे हैं, वह सत्य है । अब आपकी कृषि भूमि में उपज की कोई क्षमता नहीं बची है ।
९. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों द्वारा
कर्ब तैयार करनेवाले जीवाणुओं के मारे जाने से भूमि अनुपजाऊ होना
मैं संपूर्ण देश के किसानों से यह अनुरोध करता हूं कि आप इस पर विचार कीजिए कि यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई ? किसानों ने मेरी भूमि किराए पर ली और उन्होंने उस भूमि से अधिकाधिक आय मिलने हेतु यूरिया, डीएपी (डाइ एमोनियम फॉस्फेट) और कीटकनाशकों का इतनी बडी मात्रा में उपयोग किया कि उससे मेरी उपजाऊ कृषि भूमि अनुपजाऊ बन गई । आज संपूर्ण देश में यही स्थिति है । रासायनिक कृषि में उपयोग किए जानेवाले यूरिया, डीएपी, कीटकनाशक इत्यादि के कारण, जिनसे जैविक कर्ब (कार्बन) तैयार होता है, वे केचुएं और जीवाणु मर जाते हैं । मेरी कृषि भूमि में स्थित ये उपयुक्त जीवाणु मर जाने से मेरी कृषि भूमि अनुपजाऊ बन गई थी ।
साधकों को सूचना और पाठकों से अनुरोध !
स्वयं के लिए आवश्यक सब्जियां घर पर ही उगाएं !
रासायनिक कृषि स्वास्थ्य के लिए कितनी हानिकारक है, यह इस लेख से समझ में आता है । मंडी में बिकनेवाली सब्जियों पर विषैले रसायनों की फुहार किए जाने से अब प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए आवश्यक सब्जियों की स्वयं ही उपज करना आवश्यक बन गया है । नित्य भोजन में लगनेवाली सब्जियां घर पर ही उगाई जा सकती हैं । इसके लिए ही सनातन ने ‘घर-घर रोपण’ अभियान आरंभ किया है । इस अभियान के अंतर्गत सनातन के अनेक साधक घर पर ही सब्जियां उगा रहे हैं । – संकलनकर्ता
रोपण (बागवानी) संबंधी प्रायोगिक लेखन भेजें !
‘रोपण’ एक प्रायोगिक विषय है । इसमें छोटे-छोटे अनुभवों का भी बहुत महत्त्व होता है । जो साधक अब तक बागवानी करते आए हैं, वे बागवानी के अपने अनुभव, उनसे हुई चूकें, उन चूकों से सीखने के लिए मिले सूत्र, बागवानी संबंधी किए विशिष्ट प्रयोगों के विषय में लेखन अपने छायाचित्र सहित भेजें । यह लेखन दैनिक द्वारा प्रकाशित किया जाएगा । इससे औरों को भी सीखने के लिए मिलेगा ।
लेखन भेजने हेतु डाक पता : श्रीमती भाग्यश्री सावंत, द्वारा ‘सनातन आश्रम’, २४/बी, रामनाथी, बांदिवडे, फोंडा, गोवा. पिन – ४०३४०१
संगणकीय पता : [email protected]
रासायनिक अथवा जैविक कृषि नहीं, अपितु प्राकृतिक कृषि अपनाइए ! (भाग २)