अनुक्रमणिका
- १. कृषि से लेकर तैयार अन्नपदार्थाें तक सभी स्थानों पर विषैले रसायनों का उपयोग चिंता का विषय !
- २. मंडी में मिलनेवाली ‘विषयुक्त’ सब्जियां और फल
- ३. रसायनों का उत्पादन करनेवाले मुनाफाखोर वृत्ति के प्रतिष्ठानों की लालची वृत्ति के कारण प्रतिदिन विवश जनता को विष का सेवन करना पडना
- ४. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों और आनुवंशिक रूप से परिवर्तित बीजों के कारण उत्पन्न संकटकारी स्थिति
- ५. रासायनिक खेती के कारण कृषिभूमि बंजर होने की कगार पर !
- ६. प्राकृतिक उर्वरकों का बडा स्रोत पराली जलाना अनुचित पराली (सूखे पत्तों का कचरा), फसल के अवशेष इत्यादि पुनः कृषिभूमि में ही वापस जाने चाहिए ।
- ७. कैंसर जैसे रोगों को आमंत्रण देनेवाले खरपतवारनाशक
- ८. कृषि में उपयोग किए जानेवाले रसायनों का अन्नचक्र में प्रवेश कर संपूर्ण परिसंस्था के लिए ही घातक सिद्ध होना
- साधकों को सूचना एवं पाठकों से विनती !
१. कृषि से लेकर तैयार अन्नपदार्थाें तक
सभी स्थानों पर विषैले रसायनों का उपयोग चिंता का विषय !
पैकेटबंद खाद्यपदार्थ ‘मैगी’ में मिले हानिकारक घटकों के विषय में देश में बहुत चर्चा हुई; परंतु घर-घर में मैगी अथवा अन्य फास्टफूड की अपेक्षा रसोई में बने विविध अन्नपदार्थ ही खाए जाते हैं । रसोई के लिए जो सब्जियां, अनाज, दालें, तेल, नमक इत्यादि का उपयोग किया जाता है, उनमें भी मानवीय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक घटक हो सकते हैं, यहांतक विष के अंश भी हो सकते हैं; परंतु उस विषय में कोई बोलता दिखाई नहीं देता । खेतों में, अनाज संग्रहण के गोदाम में, साथ ही प्रसंस्करण उद्योगों में अन्नपदार्थाें में विविध कारणों से मिलाए जानेवाले रासायनिक घटक निश्चितरूप से अनदेखी करनेयोग्य नहीं हैं ।
२. मंडी में मिलनेवाली ‘विषयुक्त’ सब्जियां और फल
मेरा एक किसान मित्र टमाटर को ‘विष का गोला’ बोलता है; क्योंकि टमाटर की फसल पर अनेक बार अर्थात सप्ताह में दो बार भी विषैले रसायनों की फुहार की जाती है । मिर्च, अदरक, खीरा, गोभी, फूल गोभी इत्यादि सब्जियों के संदर्भ में और अंगूर, सेब जैसे फलों का भी थोडे-बहुत अंतर से ऐसा ही है । गोभी और फूल गोभी ठंड की फसलें हैं; परंतु ये सब्जियां आजकल सभी ऋतुओं में मिलती हैं । ऐसा रोपण प्रकृति के अनुरूप नहीं होता । गैरमौसमी और आच्छादित गृहों में (पॉलिहाऊस में) उगी इन सब्जियों के बीमार होने की संभावना अधिक होती है । इसलिए उन पर बार-बार रसायन फुहारने पडते हैं ।
३. रसायनों का उत्पादन करनेवाले मुनाफाखोर वृत्ति के
प्रतिष्ठानों की लालची वृत्ति के कारण प्रतिदिन विवश जनता को विष का सेवन करना पडना
खेत में फुहारने के तुरंत दूसरे-तीसरे दिन वह फसल मंडी में आती है । ‘फुहारने के कितने समय पश्चात ऐसे कृषि उत्पादों का उपयोग नहीं करना चाहिए’, इस विषय में किसान और ग्राहक इन दोनों में अज्ञान है’ । रसायनों का उत्पादन करनेवाले मुनाफाखोर प्रतिष्ठान और उनके गांव-गांव फैले एजेंट, साथ ही विक्रेता कभी भी इन रसायनों के दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलानेवाला समाज प्रबोधन का कार्य नहीं करते; क्योंकि एक बार यदि किसान जागृत हो जाएगा, तो ऐसे प्रतिष्ठानों की मुनाफाखोरी बंद हो जाएगी । आज जनता जो अन्नसेवन कर रही है, वह एक दृष्टि से विषयुक्त है और विवशतावश प्रतिदिन जनता उसका सेवन करती है ।
४. कृषि में उपयोग किए जानेवाले हानिकारक रसायनों
और आनुवंशिक रूप से परिवर्तित बीजों के कारण उत्पन्न संकटकारी स्थिति
कीटकनाशकों के साथ में खरपतवारनाशकों का बढता उपयोग और जी.एम. बीज (आनुवंशिक रूप से परिवर्तित बीज) के कारण संकटकारी स्थिति उत्पन्न हो रही है । इसके २ उदाहरण हैं –
अ. वर्ष २००० से २००९ की अवधि में आनुवंशिक रूप से परिवर्तित खाद्यान्नों और खरपतवारनाशकों के कारण अर्जेंटिना में किए सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकला है कि वहां के बच्चों में कैंसर तिगुनी गति से बढा है ।
आ. रासायनिक उर्वरकों, खरपतवारनाशकों और कीटनाशकों के अवशेषों के कारण भटिंडा और बटाला परिसर में किसी भी कुएं का पानी पीने योग्य नहीं बचा है ।
(अब महाराष्ट्र भी इसी दिशा में बढ रहा है । ऐसी स्थिति में पडोस के प्राकृतिक खेतों का भी भूजल दूषित होगा; इसीलिए इसके आगे किसी एक खेत में नहीं, अपितु सर्वत्र ही विषमुक्त कृषि आवश्यक है । – संकलनकर्ता)
५. रासायनिक खेती के कारण कृषिभूमि बंजर होने की कगार पर !
‘सभी के भरण-पोषण के लिए रासायनिक कृषि तो आवश्यक ही है । प्राकृतिक कृषि से लोग भूखे मर जाएंगे’, ऐसा दुष्प्रचार विविध माध्यमों से किया जा रहा है । यह दुष्प्रचार लोगों में भ्रम फैलाता है; क्योंकि प्राकृतिक कृषि ने रासायनिक कृषि के सभी कीर्तिमान तोडे, ऐसे भी कई उदाहरण हैं । प्राकृतिक कृषि के कारण कृषिभूमि प्रतिवर्ष अधिक उपजाऊ होती जाती है, जबकि रासायनिक कृषि में पूरा इसके विपरीत होता है । रासायनिक कृषि ही जारी रखी गई, तो हम आनेवाली पीढी को किस प्रकार की कृषिभूमि सौपेंगे ? वह पूर्णरूप से बंजर तो नहीं होगी न ?
६. प्राकृतिक उर्वरकों का बडा स्रोत पराली जलाना अनुचित पराली
(सूखे पत्तों का कचरा), फसल के अवशेष इत्यादि पुनः कृषिभूमि में ही वापस जाने चाहिए ।
उसके लिए युद्धस्तर पर जनजागृति करनी पडेगी । जिससे बहुत ही अच्छा उर्वरक तैयार होता है, उसे जलाने में क्या बुद्धिमानी है ?; परंतु उच्चस्तरीय बस्तियों में भी सफाई करनेवाले सहजता से पत्तों का कचरा जला देते हैं । अनेक किसान भी अपनी कृषिभूमि में स्थित जैविक संपत्ति को जला देते हैं ।
७. कैंसर जैसे रोगों को आमंत्रण देनेवाले खरपतवारनाशक
हमारे देश में ‘खरपतवारनाशक सुरक्षित हैं’, यह दुष्प्रचार कर उन्हें किसानों पर थोपा जाता है । ‘उनके उपयोग का अन्य कोई विकल्प नहीं’, ऐसी स्थिति बनाई जा रही है । पूरे विश्व के ८० से भी अधिक वैज्ञानिकों के समूह ने ‘ग्लाइफोसेट’ नामक खरपतवार को प्रतिबंधित करने की मांग की है । इस समूह ने खरपतवारनाशकों के घातक दुष्परिणामों के प्रमाण इकट्ठा किए हैं । उनका वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ग्लाइफोसेट खरपतवार का वर्गीकरण ‘संभावित कैंसरकारी’ के रूप में किया है । ग्लाइफोसेट के दीर्घकालीन संपर्क में आने से केवल कैंसर ही नहीं, अपितु बांझपन, गर्भपात, जन्मजात दोष, संप्रेरकों का (हार्माेन्स से) असंतुलन, गुरदों की बीमारियां जैसी अनेक बीमारियां होने की आशंका रहती है । ग्लाइफोसेट के कारण संपूर्ण अन्नचक्र को ही बाधा पहुंचती है । फसलों और भूमि को अन्नद्रव्यों की आपूर्ति करनेवाले सूक्ष्म जीवों, मछलियों, अन्य जलचर, उभयचर प्राणियों (मेंढक, कछुए, केकडे इत्यादि) मधुमक्खियों, पक्षियों, दुधारू पशुओं और मानवीय शरीर में स्थित सूक्ष्मजीवों पर घातक परिणाम होते हैं ।
८. कृषि में उपयोग किए जानेवाले रसायनों का अन्नचक्र
में प्रवेश कर संपूर्ण परिसंस्था के लिए ही घातक सिद्ध होना
कृषि के लिए भले किसी भी प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए; वह पर्यावरणस्नेही होनी चाहिए; क्योंकि हवा, पानी और मिट्टी, सजीवों के मूलाधार हैं । उनके स्वास्थ्य पर ही मनुष्य, पशु-पक्षी और अन्य सजीवों का स्वास्थ्य निर्भर होता है । ‘कृषिभूमि में विष डालने पर वह विष अन्न और पानी में तो आएगा ही, उससे गिद्धों से लेकर केंचुओं तक सभी जीव प्रभावित होंगे’, इसका भान प्रत्येक व्यक्ति को रखना चाहिए । आज मैं भूमि में विष डाल रहा हूं । कृषि तो सांप, केंचुआ, बिच्छू, चींटी, भूमि में स्थित सूक्ष्म जीव, मछली, मेंढक, पशु-पक्षी, वनस्पति, इन सभी की परिसंस्था (इको सिस्टम) है । इस परिसंस्था को जब बाधा पहुंचती है, तब संपूर्ण अन्नचक्र बाधित होता है और एक बार यह चक्र टूट गया, तो उसे पुनः जोडना मनुष्य के नियंत्रण से बाहर है ।
(इस लेख से यह ध्यान में आता है कि रासायनिक कृषि स्वास्थ्य के लिए कितनी हानिकारक है । मंडी में मिलनेवाली सब्जियों पर विषैले रसायन छिडकने से अब प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने लिए स्वयं ही सब्जियां उगाकर खाना आवश्यक है । घर पर ही थोडी सी भूमि में भी नित्य भोजन हेतु आवश्यक सब्जियां उगाई जा सकती है । इसके लिए ही सनातन ने ‘घर-घर रोपण’ अभियान चलाया है । इस अभियान के अंतर्गत सनातन के अनेक साधक घर पर ही सब्जियां उगा रहे हैं । – संकलनकर्ता)
– श्री. वसंत फुटाणे, विषमुक्त जैविक किसान, अमरावती.
(साभार : ‘कृषि उपज में स्थित रासायनिक अंश : समस्याएं और उपाय’ इस मासिक ‘वनराई’ में प्रकाशित लेख का संपादित अंश)
साधकों को सूचना एवं पाठकों से विनती !
रोपण (बागवानी) संबंधी प्रायोगिक लेखन भेजें !
‘रोपण’ एक प्रायोगिक विषय है । इसमें छोटे-छोटे अनुभवों का भी बहुत महत्त्व होता है । जो साधक अब तक बागवानी करते आए हैं, वे रोपण संबंधी अपने अनुभव, उनसे हुई चूकें, उन चूकों से सीखने मिले सूत्र, बागवानी संबंधी किए विशिष्ट प्रयोगों के विषय में लेखन अपने छायाचित्र सहित भेजें । यह लेखन सनातन प्रभात पाक्षिक द्वारा प्रकाशित किया जाएगा । इससे अन्यों को भी सीखने के लिए मिलेगा ।
लेखन भेजने हेतु डाक पता :
श्रीमती भाग्यश्री सावंत, द्वारा ‘सनातन आश्रम’, २४/बी, रामनाथी, बांदिवडे, फोंडा, गोवा. पिन – ४०३४०१
संगणकीय पता : [email protected]