औषधि वनस्पतियों की संख्या अगणित है । ऐसे समय पर कौन-सी वनस्पति लगाएं ? ऐसा प्रश्न निर्माण हो सकता है । प्रस्तुत लेख में कुछ महत्त्वपूर्ण औषधि वनस्पतियों का घरेलु स्तर पर रोपण कैसे करें ?, इस विषय में जानकारी दी है । ये वनस्पतियां रोपण करने के लगभग ३ महिने पश्चात औषधियों के रूप में उपयोग में लाई जा सकती हैं । आजकल आपातकाल में ध्यान में रखकर वृक्षवर्गीय वनस्पतियों के रोपण की अपेक्षा यदि ऐसी वनस्पतियों को प्रधानता दी जाए, तो हमें इन वनस्पतियों का तुरंत उपयोग हो सकता है । औषधि वनस्पतियों के पौधे सहजता से सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते । इस समस्या पर उपाययोजना भी इस लेख से दी है । पाठक इस लेख में दी गई वनस्पतियों के अतिरिक्त अन्य वनस्पतियां भी लगा सकते हैं ।
१. तुलसी
१ अ. महत्त्व
‘सर्व प्रकार के ज्वर (बुखार) में तुलसी का काढा उपयुक्त है । तुलसी के बीज शीतल होने से मूत्रविकारों पर गुणकारी औषधि है । इसलिए घर के आसपास तुलसी का रोपण जितना अधिक संभव हो, उतनी मात्रा में करें । आने-जाने के मार्ग के दोनों ओर तुलसी के पौधे लगा सकते हैं । इससे वातावरण प्रसन्न रहता है । काली (कृष्ण तुलसी) अथवा सफेद (राम तुलसी) कोई भी तुलसी लगा सकते हैं ।
१ आ. बीजों द्वारा रोपण
तुलसी की सूखी मंजरी हाथ में मसलने पर उससे छोटे-छोटे बीज निकलते हैं । इन बीजों को बोने से पहले उन्हें हाथों में मसलें । ऐसा करने से उन बीजों का ऊपरी छिलका कुछ मात्रा में निकल जाता है और बीजों के अंकुरित होने की संभावना बढ जाती है । ‘सामान्य तौर पर बीज जितना मोटा होता है, मिट्टी की परत भी उतनी ही मोटी होनी चाहिए’, ऐसा शास्त्र है । तुलसी के बीज के आकार के अनुसार बीजों पर थोडी-सी ही मिट्टी बुरकाएं । बीज बहुत नीचे डालने से वे अंकुरित नहीं होते । बीज बो देने के पश्चात उसपर ध्यानपूर्वक पानी डालें, अन्यथा बीज पर से मिट्टी हट जाती है । फिर पौधे ४ से ६ इंच के हो जाने पर धीरे से उन्हें उखाडकर, उचित स्थान पर लगाएं ।
१ आ १. चीटियों पर प्रतिबंध के उपाय
तुलसी के बीजों को तुरंत चींटियां लग जाती हैं । चींटियां न आएं, इसके लिए जिस गमले में बीज बोए हैं, उसे पानी में रखें । इसके लिए रंग के (पेंट के) डिब्बे का प्लास्टिक ढक्कन लेकर उसमें पानी डालें और फिर उसके बीचोबीच गमला रखें । ध्यान रहे कि गमले के आसपास पानी सदैव रहे । यदि पानी नहीं होगा, तो चींटियां बीज खा सकती हैं । चींटियों के प्रतिबंध के लिए गमले के आसपास कपूर अथवा फिनाईल में से कोई एक, गमले के सर्व ओर थोडा-थोडा डालकर रख सकते हैं । बीज के अंकुरित हो जाने पर उसे वहां से उखाड कर भूमि में लगा सकते हैं ।
१ इ. वर्षा में अपनेआप उगनेवाले पौधों से रोपण
वर्षा ऋतु में भूमि पर पहले से ही पडे हुए तुलसी के बीजों से अपनेआप पौधे उगते हैं । इन्हें धीरे से जड से उखाडकर, उचित स्थान पर लगाएं ।
१ ई. पौधों की देखभाल
तुलसी के पौधों को नियमित पानी दें और मंजरियां सूखने पर उन्हें तोड लें ।
२. अडूसा
२ अ. महत्त्व
अडूसा को ‘भिषङ्माता’ (वैद्यों की माता) कहा गया है । अनेक रोगों में इसका उपयोग होता है । अडूसा संक्रामक रोगों में अत्यंत उपयोगी है । खसरा (measles), छोटी माता (chikenpox), ज्वर (बुखार) इत्यादि के फैलने पर (संक्रमित होने पर), अडूसा का सेवन एवं स्नान के पानी में डालकर स्नान करने के लिए इसका उपयोग होता है । इसके पत्तों में सब्जियां एवं फल इत्यादि रखने से अधिक दिनों तक टिकते हैं । अडूसा अपने घर के आसपास अधिकाधिक मात्रा में लगाएं । भूमि के चारों ओर बाड (fence) पर ये पौधा लगाएं ।
२ आ. पहचान एवं मिलने का स्थान
यह वनस्पति शहरों में भी मिलती है । कुछ स्थानों पर यह वनस्पति भारी मात्रा में मिलती है । इस वनस्पति के पत्ते हरे-हरे और भाले की नोक समान नुकीले होते हैं । पके हुए पत्ते पीले रंग के होते हैं । पत्तों को विशेष गंध होती है ।
अडूसा पर दिसंबर से फरवरी तक फूल आते हैं । फूल सफेद रंग के होते हैं । फूलों का आकार सिंह के खुले हुए मुख समान होता है । इसलिए उसका एक संस्कृत नाम है ‘सिंहास्य’ ! ‘सिंहास्य’ अर्थात ‘सिंह के मुख समान आकारवाला ।’
२ इ. टहनियों से रोपण
अडूसा की धूसर रंग की परिपक्व टहनी काट कर लगाएं । टहनी काटते समय पेर के कुछ नीचे काटें । (‘पेर’, अर्थात ‘तने से पत्ते जहां मिलते हैं । जो भाग मिट्टी में रहेगा, वहां के पेर से पत्ते काट दें । उस स्थान पर जडें उगती हैं । पत्तों के कारण पानी का वाष्पीकरण होता है, इसके साथ ही वृक्ष इसकी सहायता से अपना अन्न तैयार करता है । गर्मियों में रोपण करना हो, तो टहनियों के पानी का वाष्पीकरण अधिक न हो; परंतु टहनियां अपना अन्न भी बना सकें, इसके लिए ऊपर के आधे पत्ते छोडकर काटें । वर्षा के दिनों में रोपण करते समय ऊपर के पत्तों को काटने की आवश्यकता नहीं होती । अडूसा की टहनी लगाने पर लगभग १५ दिनों में उसकी जडें निकलती हैं । पहले के पत्ते गिर जाते हैं और नए पत्ते आते हैं ।
३. गिलोय
३ अ. महत्त्व
गिलोय के गुणों का अंत नहीं । कोरोना के काल में गिलोय का महत्त्व सभी को पता चल गया है । ज्वर (बुखार) से लेकर दमे तक अनेक रोगों में उसका लाभ होता है । गिलोय उत्तम रसायन (शक्तिवर्धक) है । दुधारू पशुओं को गिलोय खिलाने पर वे अधिक दूध देते हैं । गिलोय का अधिकाधिक मात्रा में रोपण करें ।
३ आ. पहचान
रास्ते से आते-जाते वर्षा के दिनों में कुछ वृक्षों से पीले-से हरे रंग के २ – ३ मिलिमीटर व्यास के तंतु लटकते दिखाई देते हैं । ये तंतु गिलोय के होते हैं । इसका बाहरी छिलका भूरे रंग का होता है और छिलके पर फोडे समान छोटे-छोटे उभार होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में ‘लेंटिसेल्स (lenticels)’ कहते हैं । गिलोय की कलम कूटने पर उसके ऊपर का भूरे रंग का छिलका निकल जाता है और अंदर के हरे रंग का छिलका दिखाई देने लगता है । अंदर का भाग पीले रंग का होता है । गिलोय की कलम को धारदार उपकरण से ‘आडा काटने पर (क्रॉस सेक्शन लेने पर), उसके अंदर चक्राकार भाग दिखाई देता है । गीली गिलोय को काटने पर उससे पारदर्शक पानी समान द्रव रिसता है । यह द्रव थोडासा कडवा होता है ।
३ इ. रोपण
गिलोय की कलम काटकर भूमि पर रख दी जाए और उसे पोषक वातावरण मिले, तो उससे बेल तैयार हो जाती है । काटकर फेंक दी गई गिलोय से पुन: बेल तैयार हो जाती है; इसलिए उसे ‘छिन्नरुहा (छिन्न – काटने पर, रुहा – पुन: निर्माण होनेवाली)’ ऐसा भी संस्कृत नाम है । गिलोय की कलम के बित्ताभर लंबे टुकडे मिट्टी में सीधे गाढें । कलम काटते समय जड का सिरा तिरछा काटें । यह तिरछा भाग बाजार में मिलनेवाले ‘रूटेक्स’ पाउडर में डुबाकर, गिलोय की कलम मिट्टी में लगाने पर कलम को शीघ्र जडें आती हैं । (किसी भी वनस्पति की टहनियों की अभिवृद्धि करनी हो, तो इसीप्रकार रूटेक्स पाउडर का उपयोग करने से टहनियों पर शीघ्र जडें निकलती हैं और उनके जीने की संभावना बढ जाती है ।) बाड (fence) पर आम, नीम जैसे वृक्षों पर यह बेल छोडनी है । यह बेल विषैले वृक्षों पर (उदा. काजरा (कुचला, Nux vomica) पर न छोडें; इसलिए कि वैसा करने से उस वृक्ष का विषैला गुण गिलोय में उतरता है ।
४. घृतकुमारी (ग्वारपाठा या एलोवेरा)
४ अ. महत्त्व
घृतकुमारी, नियमित लगनेवाली औषधि नहीं है । जलना-झुलसना, मासिक धर्म का कष्ट, खांसी, कफ इत्यादि में घृतकुमारी का उपयोग होता है । ४ लोगों के परिवार के लिए २ से ४ पौधे पर्याप्त हैं; परंतु घर के सर्व ओर भूमि उपलब्ध हो, तो १० से १२ पौधे लगा सकते हैं ।
४ आ. रोपण
बहुत से लोग घृतकुमारी लगाते हैं । घृतकुमारी को नए मुनवे आते हैं । ये मुनवे घृतकुमारी से सटकर आते हैं । (मुनवा अर्थात पौधे के मूल से आनेवाले नए रोप) इन मुनवों को निकालकर लगाने से, उनसे भी नए पौधे तैयार होते हैं । आस-पडोस से १ – २ मुनवे मांगकर लगाने से, वर्षभर में हमारे पास ४ लोगों के लिए पर्याप्त घृतकुमारी तैयार हो जाती है । इसके रोप (छोटे पौधे) रोपवाटिका से भी खरीद सकते हैं ।
५. कालमेघ
५ अ. महत्त्व
यह वनस्पति संक्रमक रोगों पर अत्यंत उपयुक्त है । यह अत्यंत कडवी होती है । इसका उपयोग ज्वर (बुखार) और कृमि के लिए किया जाता है । यह सारक (पेट साफ करनेवाली) होने से कुछ स्थानों पर वर्षा में एवं उसके पश्चात आनेवाली शरद ऋतु में सप्ताह में एक बार इसका काढा बनाकर लेने की प्रथा है । इससे शरीर निरोगी रहता है । यह वनस्पति वात बढानेवाली होती है, इसलिए ज्वर न होने पर और बिना वैद्यों की सलाह से इसका काढा प्रतिदिन न लें ।
५ आ. पहचान
इस वनस्पति को कोकणी में ‘किरायते’ कहते हैं । वर्षा के आरंभ में इसके पत्ते चौडे होते हैं । वर्षा के चले जाने पर पत्ते मुड जाते हैं अर्थात छोटे हो जाते हैं । वर्षा के उपरांत पानी देने से यह वनस्पति टिकती है, अन्यथा सूख जाती है । कई बार कोकण में वर्षा के उपरांत सूखी हुई अवस्था में भी यह वनस्पति अनेक स्थानों पर मिलती है । वर्षा ऋतु के अंत में इसे छोटे-छोटे फल लगते हैं । इसमें बीज होते हैं ।
५ इ. रोपण
यह वनस्पति कोकण में अनेक लोगों के घरों में होती है । पहली वर्षा में भारी मात्रा में इन वनस्पतियों के रोप पहले से गिरे हुए बीजों से तैयार हो जाते हैं । इन तैयार रोपों (पौधों) को लाकर लगा सकते हैं । वर्षा समाप्त होने पर जो बीज होते हैं, उन्हें एकत्र कर रखने से अगले वर्ष बारिश के आरंभ में उन्हें बो कर, उससे रोप तैयार किए जा सकते हैं ।
६. चमेली (चंबाली)
६ अ. महत्त्व
रक्तस्राव रोकने के लिए चमेली के पत्तों का उपयोग होता है । मुंह में छाले होने पर जाही के पत्ते चबाकर थूकने पर तुरंत ही अच्छा लगने लगता है । ४ लोगों के परिवार के लिए एक पौधा होना चाहिए ।
६ आ. मिलने का स्थान
कुछ देवस्थानों में चमेली के फूलों का उत्सव होता है उदा. गोवा में शिरोडा का कामाक्षी देवस्थान, म्हार्दोल का महालसा देवस्थान । ऐसे गांवों में चमेली की खेती की जाती है । अनेक लोगों के घर में चमेली होती है ।
६ इ. रोपण
चमेली की टहनियों को लगाने पर वे लग जाती हैं । वर्षाकाल में चमेली की टहनी लगाने पर, जडों को उष्णता मिले, इसके लिए टहनी के जड के भाग के सर्व ओर सूखी हुई घास की १ – २ टहनी लपेट दें । इससे आवश्यक उष्णता मिलकर टहनी को जडें आती हैं । घास न लपेटने पर नमी से टहनी सड सकती है ।
संकलकश्री. माधव रामचंद्र पराडकर एवं वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. मार्गदर्शकडॉ. दिगंबर नभु मोकाट, सहायक प्राध्यापक, वनस्पतिशास्त्र विभाग, सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ, पुणे तथा प्रमुख निर्देशक, क्षेत्रीय सहसुविधा केंद्र, पश्चिम विभाग, राष्ट्रीय औषधि वनस्पति मंडल, आयुष मंत्रालय, भारत सरकार. |
भाग २ पढें… महत्त्वपूर्ण औषधि वनस्पतियों का घरेलु स्तर पर रोपण कैसे करें ? भाग – २