जीवामृत : सुभाष पाळेकर प्राकृतिक खेतीतंत्र का ‘अमृत’ !

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‘पद्मश्री’ पुरस्कारप्राप्त सुभाष पाळेकर ने ‘सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषितंत्र’ की खोज की । आज भारत सरकार ने इसका अनुमोदन कर इस तंत्र का प्रसार करने का निश्चय किया है । इस कृषितंत्र में ‘जीवामृत’ नामक पदार्थ का उपयोग किया जाता है ।

इस विषय में आज के लेख की जानकारी लेंगे ।

 

१. वृक्ष को अन्नद्रव्य कैसे प्राप्त होते हैं ?

‘पौधे अथवा वृक्ष अपनी जडों के माध्यम से अन्नद्रव्य खींच लेते हैं । ये अन्नद्रव्य मिट्टी में होते हैं । ऐसा होते हुए भी मिट्टी में विद्यमान अन्नद्रव्य पौधों को मिलने के लिए कुछ सूक्ष्म जीवाणुओं की आवश्यकता होती है । पौधों के लिए नत्र (नायट्रोजन) अत्यंत आवश्यक होता है । हवा में नत्र अधिक मात्रा में होता है; परंतु पौधे हवा से नत्र नहीं ले सकते । पौधे मिट्टी से ही नत्र ले सकते हैं । पौधों के लिए आवश्यक नत्र मिट्टी में उपलब्ध होने के लिए कुछ जीवाणुओं की आवश्यकता होती है । जीवाणुओं के कार्य पर पौधों का पोषण निर्भर होता है । इन जीवाणुओं का कार्य जितना अधिक होगा, उतनी अधिक मात्रा में पौधों को अन्नद्रव्य प्राप्त होता है ।

 

२. देशी गाय के गोबर का महत्त्व

देशी गाय के गोबर में पौधों के लिए अत्यंत उपयुक्त जीवाणु भारी मात्रा में होते हैं । ये जिवाणु जर्सीसमान विदेशी गायों के अथवा भैंसों के गोबर में नहीं होते । एक देशी गाय दिन में लगभग १० किलो गोबर देती है । इतने गोबर से २०० लीटर जीवामृत बना सकते हैं । यह जीवामृत १० गुना पानी में मिलाकर १ एकड (४ सहस्र वर्ग मीटर) खेतों में खाद के रूप में उपयोग कर सकते हैं । यह जीवामृत महिने में एक बार यदि उपयोग करें, तो भी पर्याप्त है । इस अनुसार एक देशी गाय के एक दिन के गोबर से प्रतिदिन एक एकड खेती के लिए लगनेवाली खाद तैयार की जा सकती है, अर्थात महीने के ३० दिनों में एक देशी गाय के गोबर से ३० एकड खेती के लिए खाद की व्यवस्था हो सकती है ।

 

३. ‘जीवामृत’ इस संकल्पना का उगम

‘पद्मश्री’ सुभाष पाळेकर ने देशी गाय के गाोबर का महत्त्व पहचाना । ‘देशी गाय के गोबर में पौधों के लिए उपयुक्त जीवाणुओं की मात्रा कैसे बढा सकते हैं ?’, इस पर उन्होंने चिंतन किया । इसी से ‘जीवामृत’ इस संकल्पना का उदय हुआ । दूध में दही का जामन लगाने से दूध का रूपांतर दही में हो जाता है । दही में ‘लैक्टोबैसिलस’ नामक असंख्य सूक्ष्म जिवाणु होते हैं; परंतु ये जीवाणु दूध में नहीं होते । संक्षेप में, दही इन जीवाणुओं का (कल्चर) होता है । उसे दूध में डालने पर दूध में जीवाणुओं की वृद्धि होकर दही बनता है । दही समान जीवामृत भी जीवाणुओं का एक जामन (कल्चर) है । देशी गाय के गोबर, गोमूत्र एवं मिट्टी में पौधों के लिए उपयुक्त जीवाणु गुड एवं दाल के आटे की सहायता से तेजी से बढते हैं । जीवाणुओं के शरीर के लिए प्रथिनों की (‘प्रोटीन्स’की) आवश्यकता होती है । जीवामृत बनाने के लिए दाल के उपयोग से इस आवश्यकता की पूर्ति होती है । वृद्धि के लिए जीवाणुओं को आवश्यक ऊर्जा गुड से मिलती है ।

 

४. जीवामृत कैसे बनाएं ?

घर के घर में ही अपने लिए शाक-सब्जियां उगाने के लिए १० लीटर (१० लोटे) पानी में देशी गाय का लगभग आधा से १ किलो ताजा गोबर और आधा से १ लीटर देशी गोमूत्र भली-भांति मिला लें । (गोबर सदैव ताजा (गीला) हो । वह सूखा न हो । गोमूत्र कितना भी पुराना हो, तब भी चलेगा । गोशाला में भूमि पर गिर कर नाली से बहते हुए आया गोमूत्र भी इसके लिए उपयुक्त है । (गोमूत्र अर्क का उपयोग न करें ।) इस मिश्रण में १ मुठ्ठी मिट्टी, १०० ग्राम बेसन अथवा किसी भी दाल का आटा और १०० ग्राम सेंद्रिय गुड भली-भांति मिला लें । इस मिश्रण को किसी लकडी की सहायता से घडी की सुइयों की दिशा में २ मिनट चलाएं । फिर उस पर बोरी अथवा कपडा ढककर छाया में रखें । इसके आगे ३ दिन सवेरे-शाम इस मिश्रण को हर बार २ मिनट लकडी से घडी की सुइयों की दिशा में चलाकर पुन: ढककर रखें । चौथे दिन यह जीवामृत उपयोग के लिए तैयार हो जाता है । जीवामृत, धातु के बर्तन में न बनाकर मिट्टी अथवा प्लास्टिक के बर्तन में बनाएं । (जीवामृत कैसे बनाएं ?  https://www.sanatan.org/hindi/a/34832.html#i-6 )

५. जीवामृत के उपयोग की पद्धति

जीवामृत बनाने के उपरांत ७ दिनों तक उसका उपयोग कर सकते हैं; परंतु पहले ४ दिनों में (अर्थात जीवामृत के घटक मिलाने के चौथे दिन से सातवे दिन तक) उपयोग करने से अधिक अच्छे परिणाम मिलते हैं । जीवामृत का उपयोग करते समय उसमें १० गुना पानी मिलाकर उपयोग में लाएं । जीवामृत प्रत्येक बार ताजा बनाएं ।

 

अ. सूखी पत्तियां एवं घास-फूस समान विघटनशील कचरे से तैयार हुई सुपीक मिट्टी (ह्यूमस) बनाने के लिए प्रत्येक सप्ताह कचरे पर जीवामृत का छिडकाव करें ।

आ. १० गुना पानी मिलाकर तैयार किया यह पतला जीवामृत छोटे पौधों को एक कप, तो बडे वृक्षों को १ लोटा, इस मात्रा में सर्व ओर से जडों को पानी देते हैं, उस प्रकार दें ।

इ. पौधों पर फफूंद (फंगस) को प्रतिबंधित करने के लिए जीवामृत १० गुना पानी में मिलाकर कपडे से छानकर तुषार की (‘स्प्रे’की) बोतल भरकर पौधों पर तुषारसिंचन (स्प्रे) भी कर सकते हैं ।

ई. सप्ताह में, १५ दिनों में अथवा एकदम ही संभव न हो, तो महिने में एक बार सर्व पौधों को जीवामृत दें ।

 

६. जीवामृत कार्य कैसे करता है ?

 

विघटनशील प्राकृतिक कचरे का विघटन करनेवाले असंख्य जिवाणु जीवामृत में होते हैं । जीवामृत प्राकृतिक कचरे पर छिडकने पर ये जीवाणु कचरे का शीघ्रता से विघटन करते हैं । कचरे के विघटन के कारण पौधों के लिए आवश्यक उपजाऊ मिट्टी (ह्यूमस) बनती है । जीवामृत के जीवाणु पौधों को अन्नद्रव्य भरपूर मात्रा में उपलब्ध करवाते हैं । इससे पौधे हृष्ट-पुष्ट होते हैं । पौधों के पत्तों का आकार बढता है । पौधे अपना अन्न प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा (‘फोटोसिंथेसिस’द्वारा) करते हैं । वृक्षों के फलों में नए बीज के लिए अन्न संग्रह कर रखते हैं । प्रकाश संश्लेषण क्रिया एवं अन्नद्रव्यों की आपूर्ति जितनी अधिक होगी, उतनी ही फलधारणा, अर्थात अन्न संग्रह कर रखने की क्रिया अधिक होती है । जीवामृत के कारण पौधों को अन्नद्रव्य अधिक मात्रा में मिलता ही है, इसके साथ ही पत्तों का आकार भी बढता है । इस कारण प्रकाश संश्लेषण क्रिया भी अधिक मात्रा में होती है और उत्पन्न बढती है । जीवामृत में पौधों अथवा वृक्षों की रोगप्रतिकारशक्ति बढाने का गुणधर्म भी होता है ।

 

७. जीवामृत के लाभ

अ. जीवामृत बनाना अत्यंत सरल और सस्ता है । इसके कारण खाद पर होनेवाला खर्च बहुत ही कम हो जाता है ।

आ. यह पूर्णरूप से प्राकृतिक होने के साथ-साथ पेड-पौधों के लिए अमृतसमान है । विषमुक्त अन्न की निर्मिति के लिए जीवामृत महत्त्वपूर्ण घटक है ।

इ. जिवामृत के कारण प्राकृतिक कचरे से शीघ्र विघटन होकर उसका उपजाऊ मिट्टी में (‘ह्यूमस’में) रूपांतर होता है ।

ई. मिट्टी भुरभरी होती है । इसलिए मिट्टी में काम करना सरल हो जाता है ।

उ. मिट्टी की पानी रोककर रखने एवं उसे पेड-पौधों को उपलब्ध करवाने की क्षमता बढती है । इसलिए अल्प पानी में पेड-पौधों की अच्छी बढत होती है और पानी की बचत होती है ।

ऊ. पेड-पौधों को आवश्यक वे अन्नद्रव्य और ‘मित्र जिवाणु (उपयुक्त जिवाणु)’ भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं ।

ए. पेड-पौधों में रोगप्रतिकारशक्ति निर्माण होने से उनमें रोग होने की मात्रा घटती है ।

ऐ. जीवामृत के तुषारसिंचन से (फव्वारणी से) पेड-पौधों में रोग उत्पन्न करनेवाली फफूंद को रोकने में सहायता होती है ।

ओ. पेड-पौधे कठिन वातावरण में भी डटे रहते हैं । इससे उष्णता, ठंडी अथवा वर्षा कम अधिक होने से होनेवाली हानि टल सकती है ।

 

८. जीवामृत के लिए देशी गाय का गोबर और गोमूत्र कहां मिलेगा ?

आजकल सर्वत्र देशी गायों की गोशालाएं होती हैं । मुंबई-पुणे जैसे शहरी भागों में भी गोशालाओं में जाकर उनसे जीवामृत बनाने के लिए गोबर और गोमूत्र खरीदकर अथवा अर्पण ले सकते हैं । अनेक देशी गाय रास्ते पर घूमती रहती हैं । रास्तों पर पडा उनका गोबर उठाकर ला सकते हैं । (ऐसा करने से पहले गाय देशी ही है न, इसकी निश्चिती किसी जानकार व्यक्ति से कर लें ।) कछु गोशालाएं जीवामृत बनाकर बेचती हैं । उनसे जीवामृत खरीद सकते हैं; परंतु उसे स्वयं बनाना सस्ता पडता है ।

 

९. साधको, घर-घर बागवानी अभियान के
अंतर्गत नियमितरूप से जीवामृत का उपयोग करें !

कुछ साधकों का एकत्रित गट बनाकर जीवामृत बना सकते हैं । बना हुआ जीवामृत साधक अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार आपस में बांटकर ले सकते हैं । ऐसा करने से श्रम अल्प होेंगे । अपने संपर्क की पास की गोशालाओं से देशी गाय का गोबर एवं गोमूत्र उपलब्ध हो सकता है । जीवामृत का उपयोग करने पर किसी भी बाहर की खरीदी खाद की आवश्यकता नहीं लगती । इसलिए साधक केंद्रस्तर पर जीवामृत बनाने का नियोजन कर, नियमितरूप से (कम से कम १५ दिनों में एक बार) जीवामृत का उपयोग करें । इसमें प्रायोगिक स्तर पर जो शंकाएं आएंगी, उन्हें Comments में पूछें ।

सर्वत्र के साधकों द्वारा अपने-अपने घर में शीघ्र से शीघ्र शाक-सब्जियां, फल के पेड एवं औषधि वनस्पतियों का रोपण हो, ऐसी भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में प्रार्थना !’

(पद्मश्री सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषितंत्र पर विविध लेखों के आधार पर संकलित लेख)

 

साधकों को सूचना एवं पाठकों से विनती !

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‘बागवानी एक प्रायोगिक विषय है । इसमें छोटे-छोटे अनुभवों का भी अत्यधिक महत्त्व होता है । जो साधक अब तक बागवानी करते आए हैं, उन्हें बागवानी में आए अनुभव, हुई चूकें, उन चूकों से सीखने मिले सूत्र, बागवानी संबंधी किए विशिष्ट प्रयोग इत्यादि संबंधी लेखन अपने छायाचित्र सहित भेजें । यह लेखन दैनिक में प्रकाशित करेंगे । जिससे अन्य भी सीख सकेंगे ।

लेख भेजने के लिए डाक पता : श्रीमती भाग्यश्री सावंत, द्वारा ‘सनातन आश्रम’, २४/बी, रामनाथी, बांदिवडे, फोंडा, गोवा. पिन – ४०३४०१
संगणकीय पत्ता : [email protected]

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