अनुक्रमणिका
१. समर्थ रामदास स्वामी की सीख
‘समर्थ रामदास स्वामी की जीवनदृष्टि और विचारधारा, विचारों की परंपरा अन्य संतों से भिन्न है । उन्होंने अन्य संतों समान परमार्थ को महत्त्व दिया; परंतु उतना ही प्रवृत्तिवाद को भी दिया है । इसके अनुसार
आधी प्रपंच करावा नेटका । मग घ्यावें परमार्थविवेका ।
येथें आळस करूं नका । विवेकी हो ॥
प्रपंच सांडून परमार्थ कराल । तेणें तुम्ही कष्टी व्हाल ।
प्रपंच परमार्थ चालवाल । तरी तुम्ही विवेकी ॥
– दासबोध, दशक १२, समास १, ओवी १ आणि २
अर्थ : मनुष्य पहले अपना व्यवहार भली-भांति करे और फिर परमार्थ का विचार करे । हे विवेकी जन ! इसमें आलस न करना । प्रपंच को अनदेखा कर यदि तुम परमार्थ साधने का प्रयत्न करोगे, तो तुम्हें कष्ट होगा । यदि तुम प्रपंच और परमार्थ दोनों ठीक से करोगे, तब तुम विवेकी कहलाओगे ।
२. समर्थ की राजनीति में अभिरुचि
गनिमाच्या देखतां फौजा । रणशूरांच्या फुर्फुरिती भुजा ।
ऐसा पाहिजे किं राजा । कैपक्षी परमार्थी ॥
– दासबोध, दशक १९, समास ९, ओवी २५
अर्थ : शत्रु की फौज के देखते ही जिसकी भुजाएं लढने के लिए फडकने लगें, ऐसा पराक्रमी राजा होना चाहिए । वह सदैव प्रजा का हित देखे और उसकी रक्षा करे ।
छत्रपति शिवाजी महाराज का पालन-पोषण तुम्हें करना चाहिए, भवानी माता से की हुई प्रार्थना ! राजा, तुम हमारे जीवित रहते अपने राज्य का विस्तार शीघ्र करो ।’ इस प्रार्थना में श्री समर्थ की राजनीति में रुचि ही दिखाई देती है ।
३. भिक्षा मांगने का महत्त्व
शिष्यों को भिक्षा के लिए जाना आवश्यक था । ‘ब्राह्मणाची मुख्य दीक्षा । मागितली पाहिजे भिक्षा ।’ (दासबोध, दशक १४, समास २, ओवी १)
अर्थात ब्राह्मण के जीवन आचारों में ‘भिक्षा मांगना’ प्रमुख लक्षण है ।’ यह उनका कहना था । भिक्षा के कारण निरीक्षण कर सकते हैं ।
‘भिक्षामिसे लहान थोरे । परीक्षून सोडावी ।’ (दासबोध, दशक १५, समास ६, ओवी २४)
अर्थात भिक्षा के निमित्त से समाज के छोटे-बडे सभी की निरीक्षण करें,’ ऐसा उसके पीछे का उद्देश्य था । भिक्षान्न खाने के कारण वासना पर, रसना पर जय अर्थात नियंत्रण पा सकते हैं ।
‘जेणें जिंकिली रसना । तृप्त जयाची वासना ।’ (दासबोध, दशक २, समास ७, ओवी ५६)
अर्थात जिसने अपनी जीभ पर और कर्मेंद्रियों पर विजय पा ली है’, ऐसा महंत तैयार हो गया कि वह समाजसेवा का काम अत्यंत दक्षता से करता है ।
४. समर्थ का कार्य करने के चार सूत्र
मुख्य हरिकथा निरूपण । दुसरें तें राजकारण ।
तिसरें तें सावधपण । सर्वविषईं ॥
चौथा अत्यंत साक्षप…….॥’
– दासबोध, दशक ११, समास ५, ओवी ४ आणि ५
अर्थ : नेता के लक्षण बताते हुए समर्थ कहते हैं, अध्यात्म की पार्श्वभूमि होना, यह पहला लक्षण है और व्यवहारपूर्ण आचरण दूसरा लक्षण है । यह करते समय अखंड सावधान रहना तीसरा लक्षण और चौथा लक्षण है सतत उद्योगशील (कार्यरत) रहना ।
यह उनके कार्य करने के चतुःसूत्र थे ।
(संदर्भ : हरिविजय’, दीपावली २०११)