१. भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्राचीन काल में ‘मनुष्य जीवन
पर नवग्रहों का प्रभाव होता है’, यह जानकर ज्योतिषशास्त्र को विकसित करना
प्राचीन काल में भारतीय ऋषि-मुनियों को ‘आकाश में सूर्य के इर्द-गिर्द भ्रमण करनेवाले ग्रह मनुष्य जीवन को प्रभावित करते हैं’, यह ज्ञान हुआ । योगसाधना और तप करने के कारण ऋषि-मुनियों को क्रमशः योगबल और तपोबल प्राप्त होता था । ऋषि-मुनियों का आध्यात्मिक स्तर उच्च होने के कारण उन्हें ईश्वर की ओर से ज्ञान प्राप्त होता था । उन्होंने इस ज्ञान को वेदों के सूक्तों में पिरोया । ज्योतिषशास्त्र के ऋग्वेद में ३६, यजुर्वेद में ४४, तो अथर्ववेद में १६२ श्लोक हैं । ज्योतिषशास्त्र के ये नियम भारतीय दर्शनशास्त्रों पर आधारित हैं ।
२. मनुष्य जीवन पर नवग्रहों का होनेवाला
परिणाम अब वैज्ञानिकों द्वारा भी स्वीकार किया जाना
२ अ. वैज्ञानिकों को समझ में आना कि विश्व में आनेवाले भूकंप, ज्वालामुखी और
बडे तूफान अथवा बडी दुर्घटनाएं अधिकांश पूर्णिमा अथवा अमावास्या की तिथियों को घटित होती हैं ।
भूकंप एवं ज्वालामुखी का अध्ययन करनेवाले वैज्ञानिकों को यह दिखाई दिया है कि विश्व में आनेवाले भूकंप, ज्वालामुखी, बडे चक्रवाती तूफान और बडी दुर्घटनाएं पूर्णिमा अथवा अमावस्या की तिथियों पर घटित हुई हैं, उदा. ४.४.१९०५ को कांगडा में और ३१.५.१९३५ को क्वेटा में आए बडे भूकंप अमावस्या की तिथि को आए हैं । कुछ भूकंप तो शनि, चंद्र, रवी एवं मंगल के केंद्रयोग में (एक अशुभ योग में) आए हैं ।’
(संदर्भ : प्रज्ञालोक’, जुलाई १९८१)
३. ग्रहदोष क्या होते हैं ?
ग्रहदोष का अर्थ कुंडली में ग्रहों की अशुभ स्थिति ! कुंडली में कोई ग्रह दूषित हो, तो उस व्यक्ति को उस ग्रह के अशुभ फल प्राप्त होते हैं, उदा. कुंडली में शनि ग्रह दूषित होने से सामान्यरूप से कठिन प्रारब्ध, लंबी बीमारियां, पारिवारिक अथवा आर्थिक समस्याएं इत्यादि अशुभ फल मिलते हैं । (ये फल स्थानों, राशियों इत्यादि घटकों के आधार पर अलग-अलग होते हैं ।) इसे कुंडली में ‘शनि ग्रह का दोष’ अथवा ‘व्यक्ति को शनि ग्रह की पीडा है’, ऐसा कहा जाता है । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कष्टों के लिए कुंडली में ग्रहदोष कारण होते हैं ।
४. व्यक्ति का प्रारब्ध कितना कठिन अथवा
कितना सहनीय है ?’, यह कुंडली से ज्ञात होना
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार व्यक्ति की कुंडली में ग्रहदोषों के अनुसार उसे शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक कष्ट भले ही होते हों; परंतु उसका मूल कारण ‘उस व्यक्ति का प्रारब्ध’ होता है । मनुष्य पूर्वजन्मों में किए गए अच्छे-बुरे कर्माें का फल अगले जन्म में प्रारब्ध भोगों के रूप में भोगता है । ज्योतिषशास्त्र इस कर्मसिद्धांत पर आधारित है । व्यक्ति के जन्म के समय बनाई जानेवाली कुंडली उसका इस जन्म का प्रारब्ध दर्शाती है । अनुकूल ग्रह स्थिति में पुण्य का फल धन, सुख, आदर-सम्मान, प्रसिद्धि इत्यादि के रूप में अनुभव होता है, तो प्रतिकूल ग्रह स्थिति में पाप का फल दुख, अपमान, रोग, आर्थिक हानि इत्यादि रूप में अनुभव होता है ।
५. कलियुग में सभी स्तरों के कष्टों का प्रमाण बहुत अधिक होना
वर्तमान कलियुग में रज तम की प्रबलता है । आज के समय में सर्वसामान्य व्यक्ति के कुल कर्माें में से ६५ प्रतिशत कर्म प्रारब्ध के कारण घटित होते हैं; उसके चलते कलियुग में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तरों के कष्टों की तीव्रता बहुत अधिक है ।
६. ग्रहदोषों के कारण होनेवाले दुष्परिणामों के
निवारण हेतु ‘साधना करना’ ही सर्वोत्तम उपाय !
ग्रहदोषों के कारण होनेवाले दुष्परिणामों के निवारण हेतु ज्योतिषशास्त्र में जाप, दान, शांति, रत्न धारण करना आदि उपाय बताए गए हैं । इन उपायों से दुष्परिणामों की तीव्रता कुछ मात्रा में न्यून होने में सहायता मिलती है; परंतु ये उपाय केवल तात्कालिक ही परिणामकारक होते हैं । कालांतर में कष्टों की तीव्रता पुनः बढती है । मनुष्य को उसके प्रारब्ध के भोगों को भोगकर ही समाप्त करने पडते हैं । अतः जन्म-मृत्यु के चक्र से स्थाई रूप से मुक्त होने हेतु ‘साधना करना’ ही सर्वोत्तम उपाय है ।
६ अ. साधना क्या होती है ?
साधना का अर्थ ईश्वरप्राप्ति हेतु प्रतिदिन किए जानेवाले आवश्यक प्रयास ! ईश्वर की प्राप्ति होने का अर्थ ‘सत्-चित्-आनंद’ की अवस्था को निरंतर अनुभव करना है ! केवल साधना से ही जीवन के दुखों का साहस के साथ सामना करने का बल और सर्वोच्च श्रेणी का निरंतर टिका रहनेवाला आनंद मिलता है । साधना ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग इत्यादि योगमार्गाें के अनुसार की जाती है । अनेक संतों ने बताया है कि ‘कलियुग में नामजप साधना ही सर्वोत्तम साधना है ।’
६ आ. उचित साधना हेतु गुरु की आवश्यकता होना
अकेले साधना कर स्वबल से ईश्वरप्राप्ति करना बहुत कठिन होता है । उसकी अपेक्षा अध्यात्म के किसी अधिकारी व्यक्ति अर्थात गुरु अथवा संतों की कृपा संपादन करने से ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य शीघ्र साध्य होता है । इसके लिए गुरुप्राप्ति होना आवश्यक है । गुरु शिष्य का अज्ञान दूर कर उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो’, इसके लिए उसे साधना बताते हैं, उससे वह करवा लेते हैं और उसे अनुभूतियां भी देते हैं ।
६ इ. गुरुकृपा के कारण कठिन प्रसंगों में शिष्य की रक्षा होना
मंद प्रारब्ध भोगने की क्षमता मध्यम साधना से, मध्यम प्रारब्ध भोगने की क्षमता तीव्र साधना से, तो तीव्र प्रारब्ध भोगने की क्षमता केवल गुरुकृपा से ही प्राप्त होती है । आगे इस संदर्भ में कुछ उदाहरण दिए गए हैं –
६ इ १. मरणासन्न अवस्था में साधिका कु. दीपाली मतकर की गुरुकृपा से रक्षा होना
६ इ १ अ. सनातन संस्था की साधिका कु. दीपाली मतकर की मरणासन्न अवस्था
सनातन संस्था के मार्गदर्शन में साधना करनेवाली साधिका कु. दीपाली मतकर को २२.१०.२०१६ को डेंग्यू, न्यूमोनिया और पीलिया जैसे गंभीर रोग हुए। जिससे उनके पेट में यकृत (लिवर) और प्लीहा (स्प्लीन) में सूजन थी । उनके फेफडों में पानी जम गया जिससे उन्हें एक गंभीर प्रकार का न्यूमोनिया हो गया। उनके रक्त में ‘प्लेटलेट्स’ की संख्या भी बहुत न्यून हुई थी । ऐसी स्थिति में अपनेआप तीव्र रक्तस्राव होकर मृत्यु तक होने की संभावना बहुत अधिक होती है । उनकी चिकित्सा करनेवाले आधुनिक वैद्यों ने तो कु. दीपाली के जीवित रहने की आशा ही छोड दी थी ।
६ इ १ आ. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कु. दीपाली की कुंडली में तत्कालीन ग्रहस्थिति के अनुसार उनका ‘अकाल मृत्युयोग’ होना !
कु. दीपाली की गोचर (तत्कालीक) कुंडली के छठे स्थान में अर्थात रोग स्थान में पापग्रह राहू था । छठे स्थान के स्वामी रवि ग्रह अष्टम स्थान में अर्थात मृत्यु स्थान में थे । गोचर कुंडली के मंगल ग्रह का भ्रमण जन्म कुंडली के शनि ग्रह से आरंभ होता है । कु. दीपाली को केतू की महादशा चल रही थी । ये सभी योग तीव्र शारीरिक कष्ट अथवा अकाल मृत्युयोग दर्शाते हैं ।
६ इ १ इ. महर्षियों और संतों द्वारा किए गए आध्यात्मिक उपायों के कारण कु. दीपाली को हुई सभी गंभीर बीमारियों का केवल १५ दिन में ही ठीक हो जाना
कु. दीपाली की अत्य अस्वस्थ स्थिति में महर्षियों और संतों ने उन पर नामजपादि उपाय किए । भृगु महर्षिजी एवं सप्तर्षियों ने नाडीपट्टिका के माध्यम से अनेक उपाय करने के लिए कहे । संतों ने कई घंटों तक कु. दीपाली पर नामजपादि उपाय किए । उसके फलस्वरूप कु. दीपाली को हुई सभी गंभीर बीमािरयां केवल १५ ही दिन में ठीक हो गईं ।
६ इ १ ई. कु. दीपाली के साधना करने के कारण गुरुदेवजी ने अकालमृत्युयोग जैसे संकट में उनकी रक्षा की ।
कु. दीपाली तन-मन-धन अर्पण कर पूर्णकालीन गुरुकार्य और साधना करती हैं । उनमें गुरुदेवजी के प्रति श्रद्धा और ईश्वरप्राप्ति की लगन है । उनकी विशेषता यह है कि उनमें ‘गोपीभाव’ है । उसके कारण वे निरंतर श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहती हैं । कु. दीपाली के साधनारत होने के कारण उन पर गुरुकृपा हुई और गुरुदेवजी ने अकाल मृत्युयोग जैसे संकट में उनकी रक्षा की ।
६ इ २. कठिन प्रारब्ध भोगते हुए भी उसकी ओर साक्षीभाव से देखकर संतपद को प्राप्त करनेवाली पू. (श्रीमती) संगीता पाटिलजी !
६ इ २ अ. पू. (श्रीमती) संगीता पाटिलजी का कठिन प्रारब्ध
पू. (श्रीमती) संगीता पाटीलजी के जन्म के उपरांत उनके बचपन में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हुई । आगे जाकर उनका विवाह हुआ और उनके एक पुत्र हुआ ; परंतु अल्पायु में ही उसकी मृत्यु हो गई । पू. (श्रीमती) संगीताजी को विषमज्वर (टाइफॉइड) होने से वे दृष्टिहीन हो गईं । उनके पति की नौकरी के स्थान पर दुर्घटना होने से नौकरी चली गई । आगे जाकर उनके पति की एक आंख की भी दृष्टि चली गई । उनकी आर्थिक स्थिति बहुत विकट थी ।
६ इ २ आ. पू. (श्रीमती) संगीता पाटिलजी का प्रारब्ध ७५ प्रतिशत होना
सनातन के सूक्ष्म ज्ञानप्राप्तकर्ता साधक श्री. निषाद देशमुख ने पू. (श्रीमती) संगीताजी का सूक्ष्म परीक्षण कर बताया कि श्रीमती संगीताजी का प्रारब्ध ७५ प्रतिशत है; परंतु भक्तिभाव के बल पर उन्होंने उस पर विजय प्राप्त की ।’’ (कलियुग के आज के समय में सर्वसामान्य व्यक्ति का प्रारब्ध ६५ प्रतिशत होता है और समस्याओं के कारण सर्वसामान्य व्यक्ति का मनोबल गिरकर वह दुखी बन जाता है ।)
६ इ २ इ. कठिन प्रारब्ध होते हुए भी परिस्थिति को दोष न देनेवाली पू. (श्रीमती) संगीता पाटिलजी संतपद पर विराजमान !
ऐसी प्रतिकूल स्थिति में भी बिना डगमगाए पू. (श्रीमती) संगीता पाटिल बडे आनंद के साथ साधना कर रही हैं । कठिन प्रारब्ध होते हुए भी उन्होंने कभी परिस्थिति को दोष नहीं दिया, उसके विपरीत उन्होंने समर्पित भाव से गुरुकार्य और साधना की । वे कहती हैं, ‘‘मेरे जीवन में कई दुखद प्रसंग आए; परंतु गुरुकृपा के कारण वे उनसे पार हुईं ।’’ ईश्वर के प्रति भाव के कारण पू. (श्रीमती) संगीता पाटिलजी संतपद पर विराजमान हुईं ।