बीज शुद्ध हो, तो वृक्षके फल पर्याप्त मधुर और रसीले होते हैं (तुकाराम-गाथा, अभंग ३७, पंक्ति १ का अनुवाद) । इस कथनानुसार परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजीका जन्म ६ मई १९४२ (ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी, कलियुग वर्ष ५०४४) को श्री. बाळाजी वासुदेव आठवले (वर्ष १९०५ से १९९५) एवं श्रीमती नलिनी बाळाजी आठवले (वर्ष १९१६ से २००३) के घर हुआ । आगे ये दोनों सन्तत्वको प्राप्त हुए ।
पू. बाळाजी (उपाख्य श्रीकृष्ण) वासुदेव आठवले, मेरे पिताजी । हम उन्हें दादा कहते थे । दादा (आध्यात्मिक स्तर ८३ प्रतिशत) और ताई (मां को हम ताई कहते थे) (आध्यात्मिक स्तर ७५ प्रतिशत) ने बचपन से हम पांचों बच्चों पर व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ सात्त्विकता और साधना के संस्कार अंकित किए । इससे हम साधनारत हुए । हम पांचों भाइयों ने जीवन में मां-पिताजी को कभी झगडते नहीं देखा । इतना ही नहीं, हम पांचों भाइयों में भी किसी का किसी के साथ कभी झगडा नहीं हुआ । हम एक-दूसरे से प्रेम ही करते थे और वह आज भी है । दादा और ताई ने हम पर जो संस्कार किए थे, यह उसी का परिणाम है । वर्ष १९९५ में देहत्याग करने तक, अर्थात १९६६ से १९९५ के मध्य की ३० वर्षों की कालावधि में उन्होंने विपुल लेखन किया । जीवन के अंतिम ५ वर्ष वे शय्याग्रस्त रहे, तब भी उनका अध्यात्मशास्त्र पर लेखन चलता रहता था । शेष समय में उनका वाचन और नामजप चलता था । – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीके ज्येष्ठ बन्धु और सुप्रसिद्ध बालरोग विशेषज्ञ वैद्याचार्य पूज्य डॉ. वसंत आठवलेजीने (वर्ष १९३३ से वर्ष २०१३) भी साधना कर सन्तपद प्राप्त किया था । दूसरे बडे बन्धु श्री. अनंत आठवलेजीका आध्यात्मिक स्तर अभी ६९ प्रतिशत है तथा छोटे बन्धु स्वर्गीय डॉ. सुहास आठवलेजी (वर्ष १९४४ से वर्ष २००७) का आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत था । सबसे छोटे बन्धु डॉ. विलास आठवलेजीकी भी आध्यात्मिक उन्नति हो गई है और वे भी सर्वत्र जाकर साधनाके विषयमें मार्गदर्शन करते हैं ।
(टिप्पणी – आध्यात्मिक स्तर : कलियुग के सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत और मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत, ऐसा मानकर चलें, तो ६० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति का गमन संतत्व की दिशा में आरंभ होता है और संतों का आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत से अधिक होता है।)
शिक्षा तथा छात्र जीवनमें किया कार्य
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की शिक्षा
कक्षा ७ वीं में माध्यमिक छात्रवृत्ति परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को निरंतर ४ वर्षों तक प्रतिमाह छः रुपए छात्रवृत्ति मिली । ग्यारहवीं तक की शिक्षा के समय उन्होंने चित्रकला की एलिमेंटरी और इंटरमीडिएट परीक्षाएं तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी की कोविद पदवी परीक्षा उत्तीर्ण कीं । शालांत माध्यमिक परीक्षा में भी उनका नाम गुणवत्ता सूची में था । वर्ष १९६४ में उन्होंने एम.बी.बी.एस. चिकित्सकीय पदवी प्राप्त की ।
छात्र जीवनमें विविध संस्थाओं में निभाया गया दायित्व
शालेय जीवनसे, चिकित्सकीय उपाधि (एम.बी.बी.एस.) प्राप्त कर इंग्लैंडमें जानेतककी अवधिमें परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीने विविध संस्थाआेंमें विविध पदोंपर रहकर दायित्व निभाया । इस कार्यकी संक्षिप्त सूची नीचे दे रहे हैं ।
वर्ष | विद्यालय / संगठन | शाखा | कार्यभार |
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१९५६ – १९५७ | आर्यन एज्यूकेशन सोसाइटीका हाइस्कूल, मुंबई. | आर्यसभा | पुस्तकालय मन्त्री |
१९५६ – १९५७ | आर्यन एज्यूकेशन सोसाइटीका हाइस्कूल, मुंबई. | आर्य सम्पादक मंडल | सम्पादक (विद्यार्थी प्रतिनिधि) |
१९५८ – १९५९ | विल्सन महाविद्यालय, मुंबई. | ज्यूनियर केमिस्ट्री असोसिएशन | अध्यक्ष |
१९५८ – १९५९ | विल्सन महाविद्यालय, मुंबई. | हिन्दी वाङ्मय मंडल | वर्गप्रतिनिधि |
१९६४ | ग्रैंट मेडिकल कॉलेज, मुंबई. | ग्रैंट मेडिकल कॉलेज मैगजिन | सम्पादक (हिन्दी विभाग) |
वर्ष | विद्यालय / संगठन | शाखा | कार्यभार |
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१९६५ | यूथ फोरम (राजनीतिक दलोंसे असम्बद्ध विद्यार्थी संगठन) | अध्यक्ष | |
१९६९ – १९७१ | शिवसेना | भारतीय विद्यार्थी सेना | कार्यकारिणी परामर्शदाता |
१९७० – १९७१ | आर्यन एज्यूकेशन सोसायटी, भूतपूर्व विद्यार्थियोंका संघ, मुंबई. | कार्याध्यक्ष |
छात्र जीवनमें किए गए कार्यका भविष्यमें मिला लाभ
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजीने छात्र जीवनमें विविध संगठनोंसे जुडकर कार्य किया । इससे मिले अनुभवोंका लाभ उन्हें आगे दिए कार्योंके लिए हुआ – अध्यात्मप्रसारके कार्यका दायित्व सम्भालना; आध्यात्मिक ग्रन्थोंका संकलन करना; सनातन प्रभात नियतकालिकोंका सम्पादन करना, तथा हिन्दू राष्ट्र-स्थापना हेतु राष्ट्रप्रेमियों एवं धर्मप्रेमियों का संगठन करना ।
चिकित्सा क्षेत्र में शोधकार्य
मुंबईके विविध चिकित्सालयोंमें ५ वर्ष नौकरी करनेके पश्चात परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी वर्ष १९७१ से वर्ष १९७८ की अवधिमें ब्रिटेनमें नौकरीनिमित्त रहे । इस अवधिमें उन्होंने निम्नांकित शोधकार्य किए ।
अ. मानसिक व्याधियों के लिए सम्मोहन-उपचार पद्धतियों पर शोध किया ।
आ. उपयोगके पश्चात फेंक देनेयोग्य (Use & Throw) प्लास्टिकका कर्णपरीक्षा उपकरण (डिस्पोजेबल ऑरल स्पेक्यूलम) चिकित्साक्षेत्रमें प्रथम ही बनाया । इस उपकरणकी ब्रिटेनसहित यूरोपके अन्य देशोंमें बहुत मांग थी । उस समय अनेक कान-नाक-गला विशेषज्ञोंने भी इस शोधकार्यकी प्रशंसा की ।
इ. उपयोग करने के पश्चात फेंक देने योग्य नाक का परीक्षण करने का प्लास्टिक का उपकरण (डिस्पोजेबल नोजल स्पेक्युलम्) बनाने का विचार चल रहा था; परंतु भारत में लौट आने के कारण यह शोध अपूर्ण रह गया । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वर्ष १९७१ से वर्ष १९७८ के कालखंड में इंग्लैंड में सम्मोहन-उपचारपद्धति पर सफल शोधकार्य किया । तदुपरांत ‘सम्मोहन उपचार विशेषज्ञ’ के रूप में वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हुए । वर्ष १९७८ में मुंबई लौटने पर उन्होंने मुंबई में मानसिक व्याधियों पर सम्मोहन-उपचार विशेषज्ञ के रूप में स्वतंत्र व्यवसाय आरंभ किया । वर्ष १९८२ में उन्होंने ‘भारतीय वैद्यकीय सम्मोहन और अनुसंधान संस्था’ की स्थापना की । वर्ष १९७८ से १९८३ के कालखंड में उन्होंने ५०० से अधिक डॉक्टरों का सम्मोहन शास्त्र और सम्मोहन-उपचार के सिद्धांतों एवं प्रयोगों संबंधी अमूल्य मार्गदर्शन किया ।
टिप्पणी – स्टेथोस्कोप अर्थात हृदयकी धडकन अथवा श्वासोच्छ्वास सुननेके लिए उपयोग किया जानेवाला चिकित्सकीय उपकरण ।