अनुक्रमणिका
‘अध्यात्म विषयक बोधप्रद ज्ञानामृत’ लेखमाला से भक्त, संत तथा ईश्वर, अध्यात्म एवं अध्यात्मशास्त्र तथा चार पुरुषार्थ ऐसे विविध विषयों पर प्रश्नोत्तर के माध्यम से पू. अनंत आठवलेजी ने सरल भाषा में उजागर किया हुआ ज्ञान यहां दे रहे हैं । इस से पाठकों को अध्यात्म के तात्त्विक विषयों का ज्ञान होकर उनकी शंकाओं का निर्मूलन होगा तथा वे साधना करने के लिए प्रवृत्त होंगे ।
प्रश्न : ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यके जन्मके समय विधाता, ब्रह्मदेव, मनुष्यके ललाटपर उसका भाग्य लिखता है । भाग्य कैसे निश्चित होता है ?
उत्तर : हमारे सनातन धर्ममें और अन्य कई विचारधाराओंमें ‘कर्मफलन्याय’ मानते हैं, अर्थात् हम जो कर्म करेंगे उसका फल भोगना पडता है, यह सिद्धांत है ।
१. कर्मफल
अ. सत्कर्मोंका अच्छा परिणाम होता है, उनका फल है पुण्य ।
आ. दुष्कर्मोंका बुरा परिणाम होता है, उनका फल है पाप ।
इ. कई कर्म ऐसे होते हैं, जो तत्काल फल देकर समाप्त होते हैं । उनसे पाप-पुण्य नहीं लगता; यथा कपडे धोये, तो कपडे धोनेके कर्मका, कपडे स्वच्छ होना यह फल तत्काल मिलता है । वहां पाप-पुण्य निर्मित नहीं होता । दिनभरमें हमारे अधिकांश कर्म ऐसे ही होते हैं ।
२. संचित कैसे बनता है ?
एक जन्ममें किये कर्मोंसे बना पाप-पुण्य उसी जन्ममें भोगकर समाप्त हो, ऐसा नहीं है। यथा एक व्यक्तिने तीन हत्याएं कीं। एक प्रकरणमें पकडा जाकर दण्ड दिया गया । तो उस जन्ममें की दो अन्य हत्याओंका पाप भोगना शेष रहेगा ।
२ अ. संचित : ऐसे कई जन्मोंके पाप-पुण्यके शेष भोगको संचित कहते हैं ।
२ आ. क्रियमाण : इस जन्मके अपने कर्मोंसे अर्थात् क्रियमाणसे नया पाप-पुण्य बनता है और भोगकर शेष बचा पाप-पुण्य संचितमें जुड जाता है । यह सारा संचित अगले कुछ जन्मोंमें भोगना पडता है ।
३. प्रारब्ध
पूरा संचित इतना अधिक होता है कि सामान्यत: अगले एक जन्ममें भोगकर समाप्त नहीं हो सकता । ऐसेमें चालू एक जन्ममें भोगनेका संचितका जो भाग, उसे प्रारब्ध कहते हैं । इसीको विधिलिखित, दैव, भाग्य, प्राक्तन (नशीब) भी कहते हैं ।
४. संचित और प्रारब्ध नष्ट करने के उपाय
अच्छा संचित, पुण्य, नष्ट करना कोई नहीं चाहता । दुष्कृत्योंका फल, पाप नष्ट करनेकी इच्छा रहती है । ऐसा संचित नष्ट करना सामान्यत: हमारे हाथमें नहीं है । प्रारब्ध मुख्यत: भोगकर ही समाप्त करना पडता है, किंतु सनातन धर्ममें कुछ उपाय बताये गये हैं ।
४ अ. विभिन्न पापोंके लिये अलग अलग प्रायश्चित्त बताये गये हैं ।
४ आ. स्वयं पूरा प्रयास कर प्रारब्धको पछाडना ।
वसिष्ठमिुन श्रीरामको बताते हैं –
‘प्राक्तनं चैहिकं चेति द्विविधं विद्धि पौरुषम् ।
प्राक्तनोऽद्यतनेनाशु पुरुषार्थेन जीयते ॥’
– योगवासिष्ठ, मुमुक्षव्यवहारप्रकरणम्, ४-१७
अर्थ : ‘यह जानो कि दैव और कर्म, दोनों पुरुषार्थ हैं । हमारे अभीके पुरुषार्थसे (कर्तुत्वसे) प्राक्तनको पछाड सकते हैं ।’
४ इ. ईश्वरकी कृपा प्राप्त करना ।
तुकाराम महाराज कहते हैं
‘तुटे भवरोग । संचित क्रियमाण भोग ॥
ऐसे विठोबाचें नाम । उच्चारिता खंडे जन्म ॥’
अर्थ : ‘विट्ठलका (कृष्णका) नाम ऐसा है कि उसके उच्चारणसे भवरोग, संचित-क्रियमाणके भोग और जन्म-मृत्युचक्र खंडित हो जाता है ।’
४ ई. कुछ मंत्रोंसे भी, पंचमहापाप छोडकर अन्य, संचित पाप नष्ट हो सकते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण गीतामें बताते हैं
‘ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥’
– गीता, अध्याय ४, श्लोक ३७
अर्थ : ‘आत्मज्ञानरूप अग्नि सभी संचित कर्मोंको भस्मसात् करता है ।’
ज्ञानी निष्काम होता है, इसलिए उसके कर्मोंसे नया क्रियमाण निर्मित नहीं होता । प्रारब्ध भोगकर समाप्त होता है ।
५. निष्काम कर्म करने से प्रारब्ध और संचित निश्चित बढेगा नहीं ।
एक बात निश्चित ही हमारे हाथमें है कि आचरण शुद्ध रखकर, यथासंभव निष्काम होकर क्रियमाण, नया पाप-पुण्य, निर्मित न होने देना; जिससे प्रारब्ध और संचित बढेगा तो नहीं ।
६. प्रारब्धकी तीव्रता एवं उपायोंकी परिणामकारकता
अ. प्रारब्ध मंद हो तो उपर्युक्त उपायोंसे नष्ट हो सकता है ।
आ. प्रारब्ध मध्यम हो तो उपर्युक्त उपायोंसे कष्ट घट सकता है ।
इ. प्रारब्ध तीव्र हो तो उसे भोगना ही पडता है और भोगकर ही समाप्त होता है ।
– अनंत आठवले
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥