उदयकाल के संदर्भ में पालन करने योग्य आचार

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अनुक्रमणिका

१. उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श क्यों न होने दें ?

उदयकालीन सूर्य की किरणों की तुलना में उस समय वातावरण में रज-तमात्मक कणों
की मात्रा अधिक होती है । इस कारण उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने देना अधिक आवश्यक होता है ।

आरोहणं गवां पृष्ठे प्रेतधूमं सरित्तटम् ।

बालातपं दिवास्वापं त्यजेद्दीर्घं जिजीविषुः । – स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड, धर्मारण्यमाहात्म्य, अध्याय ६, श्लोक ६६, ६७

अर्थ : जो दीर्घकाल जीवित रहना चाहता है, वह गाय-बैल की पीठ पर न बैठे, चिता का धुआं अपने शरीर को न लगने दे, (गंगा के अतिरिक्त दूसरी) नदी के तट पर न बैठे, उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने दे तथा दिन के समय सोना छोड दे ।

१ अ. उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने देने का अध्यात्मशास्त्रीय आधार

‘उदयकालीन सूर्य की किरणों के आगमन से पृथ्वी के वातावरण में रात के समय निर्मित रज-तमात्मक कणों का विघटन होना आरंभ होता है । इससे इस कालावधि में वातावरण में घर्षणयुक्त उष्ण ऊर्जा का निर्माण आरंभ होता है । इस समय वातावरण में उदयकालीन सूर्य की किरणों की तुलना में रज-तमात्मक कण अधिक होते हैं । किरणों के माध्यम से वातावरण में रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण भी अल्प-अधिक मात्रा में होता है । इसलिए जहां तक संभव हो, इन किरणों के संपर्क में अधिक न रहें । जब सूर्य की किरणों में तेजतत्त्व की प्रबलता बढ जाती है, तब वातावरण में रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण अत्यल्प हो जाता है तथा वातावरण शुद्ध बनता है ।’ – एक विद्वान [(पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २१.३.२००५, दोपहर १.५६]

कु. युवराज्ञी शिंदे (सनातन की साधिका) : आपने बताया कि ‘संभवतः जहां तक हो सके, उदयकालीन किरणों के संपर्क में अधिक न रहें’; इसके विपरीत उदयकालीन उपासना में सूर्य की किरणों का स्पर्श होता है तथा उसकी ओर देखते भी हैं । इन दो विषयों में का समन्वय कैसे स्थापित करें ?
एक विद्वान : शक्ति-उपासक तेजतत्त्व पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए त्राटक अथवा देह को कष्ट देकर देते हैं और जानबूझ कर सूर्य की किरणों के संपर्क में आकर शक्ति-उपासक ऐसी साधना करते हैं; परंतु सहजयोग में ऐसा करने का कोई कारण नहीं है । उदयकालीन उपासना, अर्थात सूर्य की किरणों के संपर्क में आए बिना उस काल में अधिकाधिक नामजप एवं साधना करें । – [(पू.) श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळ के माध्यम से, २२.३.२००५, सायं. ७.३२]

२. सूर्योेदय एवं सूर्यास्त के संधिकाल में साधना करने का महत्त्व

सूर्योदय एवं सूर्यास्त के संधिकाल में
रज-तमात्मक तरंगें प्रबल होने से साधना करना आवश्यक

‘सूर्य के उदयकालके समय में वातावरण में रज-तमात्मक तरंगों का बल क्षीण होना आरंभ होता है, जब कि सूर्यास्त के समय से रज-तमात्मक तरंगों का बल बढना आरंभ होता है । रज-तमात्मक तरंगों से संबंधित इन दो प्रमुख स्थितियों के अंतरण का विपरीत परिणाम जीव पर न हो, इस उद्देश्य से सूर्योदय एवं सूर्यास्त के संधिकाल में साधना कर अपनी सात्त्विकता बढाने के लिए कहा गया है । जब जीव में सात्त्विक तरंगों का संक्रमण बढ जाता है, तब उसके सर्व ओर इन तरंगों का सुरक्षा-कवच निर्मित होता है । परिणामस्वरूप उस पर वातावरण के रज-तमात्मक स्थिति-अंतरण का परिणाम अल्प होता है ।’ – एक विद्वान [(पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २२.३.२००५, सायं. ६.१९]

उषाकाल में सोते रहनेवाले को नरकगमन करना पडना

‘सात्त्विक तरंगों के भूतल पर आगमन का समय है उषाकाल । इस काल में अनेक देवता गंधरूप से भूतल पर आते हैं । ऐसे में यदि जीव साधना न कर सोता रहे, तो अनेक कनिष्ठ देवताओं के कोप की बलि चढने की संभावना होती है । सोते रहने से जीव की देह पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों से दूषित होती है । इससे वह वायुमंडल में रज-तम कणों का प्रक्षेपण कर सात्त्विक तरंगों के आगमन में बाधक बन सकता है । इसलिए ‘जीव पापकर्म का भागी बनता है, अर्थात उसे नरकगमन करना पडता है । – एक विद्वान [(पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २.६.२००७, दोपहर १२.०६]

 

३. उषाकाल में सोए रहने से सवेरे की सात्त्विक तरंगों का लाभ न लेने का पाप लगना

‘उषाकाल में सोए रहना अर्थात सवेरे की सात्त्विक तरंगों के संक्रमण का लाभ उठाकर नामजप न करते हुए से वंचित रहकर, निद्रा के अधीन होना, यह पापकर्म ही माना गया है ।’ – एक विद्वान [(पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २२.२.२००५, सायं. ७.२२]

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘आदर्श दिनचर्या एवं अध्यात्मशास्त्र’

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