‘भक्त भगवान की सेवा नहीं, अपितु भगवान ही भक्तों की सेवा कैसे करते हैं’, परात्पर गुरु डॉक्टरजी के सान्निध्य में रहते हुए पग-पग पर यह बात दिखाई देती है । स्वयं के आध्यात्मिक अधिकार का कोई भी आडंबर न करते हुए साधकों के साथ एक होकर उन्होंने कभी साधकों को भोजन परोसा, कभी सेवा में व्यस्त जागरण करनेवाले साधकों के लिए ओढने एवं बिछौने की व्यवस्था की, कभी साधकों को एक-एक निवाला (कौर) खिलाया, तो अडचन में कभी स्वयं के वस्त्र भी दिए । गत कुछ वर्षों से उनकी प्राणशक्ति अत्यल्प होते हुए भी वे सेवा के लिए कक्ष में आनेवाले साधकों की सहायता करने का प्रयत्न करते हैं । अपना अलग अस्तित्व न रखकर सर्व प्रकार से साधकों की सहायता करनेवाले परात्पर गुरु डॉक्टरजी के सान्निध्य के निम्नांकित प्रसंग निश्चित रूप से आपका मन मोह लेंगे ! उनके अत्यंत सरल एवं सादगी से रहने के कारण ही उनका ‘असामान्य व्यक्तित्व’ ध्यान में आता है ! स्वयं की कृति द्वारा साधकों को अनमोल शिक्षा देनेवाले परात्पर गुरु डॉक्टरजी के चरणों में कोटि कोटि वंदन !
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साधकों की प्रतीक्षा करते हुए रात ढाई बजे तक जागकर
बाहर से आए साधकों को गुरुदेवजी ने स्वयं भोजन परोसा !
वर्ष १९९९ की गुरुपूर्णिमा संपन्न होने के पश्चात हम लोग आगे की सेवा सीखने मुंबई गए थे । एक बार एक साधक के घर से सेवा समेटकर सेवाकेंद्र आते-आते हम लोगों को रात के ढाई बज गए । हमने संध्या समय चाय और अल्पाहार किया था एवं एक साधक के घर कुछ खा लिया था । रात टैक्सी से उतरने पर हमने देखा, तो गुरुदेवजी के कमरे की बत्ती जल रही थी और वे हमारी प्रतीक्षा में जगे हुए थे । हम लोग लिफ्ट से ऊपर आए, उस समय वे लिफ्ट के पास रुके थे । उन्होंने हमें कहा, ‘‘हाथ-पैर धोकर भोजन करें ।’’ तब हम दोनों ने ‘हम खाना खाकर आए हैं’, ऐसे झूठ बोला । हमारी बात अनसुनी कर वे हमें रसोईघर में ले गए, वहां पटल पर दो थालियां रखी हुई थीं । गुरुदेवजी ने हमें बिठाया और स्वयं ही भोजन परोसा । ‘‘हम परोस लेंगे, आप सो जाइए’’, ऐसा कहने पर उन्होंने कहा, ‘‘प्रतिदिन आप जागरण करते हो । मैंने एक दिन जागरण किया तो क्या हुआ ? रसोईघर में सेवा करनेवाली साधिकाओं को सवेरे जल्दी उठकर सेवा (नौकरी) पर जानेवाले साधकों के लिए टिफिन और अल्पाहार बनाना होता है । वे थक जाती हैं; इसलिए मैंने उनसे सोने के लिए कहा और मैं जागता रहा । कल से संध्या समय साथ में टिफिन लेकर जाना; जिससे झूठ न बोलना पडे ।’’ उनकी इन बातों से हमारी आंखों में आंसू आ गए । इतना प्रेम और चिंता परिवार में भी कोई नहीं करेगा ।
– कु. शशिकला कृ. आचार्य, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (२८.११.२०१६)
वर्तमान में भी सनातन के आश्रमों में अत्यंत
प्रेम और आत्मीयता से साधकों का ध्यान रखा जाता है !
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साधकों का उपचार करने को प्रधानता देना
‘उपचार करने के लिए कुडाळ के वैद्य सुविनय दामले आश्रम में पधारे थे । मुझे अनेक व्याधि होने के कारण वैद्य मेघराज पराडकर ने पूछा, ‘‘आप पर भी उपचार करने के लिए वैद्यजी से कहूं क्या ?’’ तब मैंने सहजता से कहा, ‘‘मेरी आयु तो अब समाप्त होने को आई है, इसलिए वैद्य दामले अन्य साधकों पर उपचार करें । साधकों की अभी बहुत आयु शेष है, उन्हें उनसे बहुत वर्षों तक लाभ होगा ।’’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले
वर्षा में भीगे हुए साधक को सभा स्थान पर जाने के लिए स्वयं की पैंट देना
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‘पूर्व में प्रत्येक जिले में परात्पर गुरु डॉक्टरजी ‘सार्वजनिक सभा’ लेते थे । जत (जिला सांगली) की सभा के ठीक एक घंटा पूर्व वर्षा होने से मैदान के स्थान पर पाठशाला के सभागृह में सभा करने का निर्णय हुआ । इससे व्यासपीठ, कपडों के फलक और कनात आदि निकालते समय वर्षा में कुछ साधक पूरी तरह भीग गए । पाठशाला के सभागृह में सभा आरंभ होने से पूर्व वस्त्र बदलने के लिए हम श्री. होमकर के घर गए थे । उनके दिए पजामे की लंबाई छोटी होने से वह मुझे बहुत छोटा हो रहा था । इसलिए छोटा पजामा पहने ही मैं परात्पर गुरु डॉक्टरजी के कक्ष में गया । मुझे देखते ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी शीघ्रता से उठे और मेरे समीप खडे होकर हाथ से अपनी और मेरी लंबाई नापने लगे । वे क्या कर रहे हैं, यह मैं समझ नहीं पा रहा था । तदनंतर उन्होंने कहा, ‘‘यह पजामा आपको बहुत छोटा हो रहा है । मेरी पैंट आपको बराबर होगी, आपको मैं अपनी पैंट देता हूं । ऐसा छोटा पजामा पहनकर सभास्थान पर मत जाईए ।’’ उस समय वहां साधक श्री. प्रमोद बेंद्रे थे । उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, परात्पर गुरु डॉक्टरजी ! मैं मेरी पैंट देता हूं, उनको बराबर होगी ।’’ इस तरह मैंने श्री. बेंद्रेजी की पैंट पहनी । इस छोटे से प्रसंग से ‘परात्पर गुरु डॉक्टरजी अन्यों का कितना विचार करते हैं’, यह प्रत्यक्ष देखने तथा अनुभव करने को मिला ।’