आज यह बात सभी के ध्यान में आ चुकी है कि किसी न किसी प्रकार से हमें भी संक्रमण हो सकता है । वह न हो; इसका ध्यान लेने के दिन बीत गए । अब सभी को इसी तत्त्व का पालन करना होगा कि हमें भी संक्रमण हो सकता है; परंतु उसके लिए हमारा स्वास्थ्य सामान्य स्थिति में आने की गति (रिकवरी रेट) अच्छी होनी चाहिए । यह संक्रमण किसी भी स्थिति में फेफडेतक नहीं पहुंचना चाहिए । उसके लिए कहीं भी प्राणवायु (ऑक्सीजन) की खोज करने की स्थिति न आए और इन सभी बातों के लिए औषधियों की अपेक्षा एक ही बात महत्त्वपूर्ण सिद्ध होनेवाली है और वह है ‘चयापचय’ (मेटाबॉलिज्म) ! हमारा चयापचय जितना अच्छा रहेगा, हमारे स्वास्थ्य की स्थिति सामान्य होने की गति उतनी अच्छी रहेगी ।
१. चयापचय अच्छा कैसे रखना चाहिए ?
चयापचय अच्छा रखने हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण नियम बता रहे हैं –
अ. हल्का आहार
भूख लगे बिना कुछ नहीं खाना चाहिए । औषधि का सेवन करते समय अनेक बार ऐसा होता है कि भूख नहीं होती; परंतु औषधि लेनी है; इसलिए उसके पूर्व हमें खाना पडता है । आयुर्वेदीय औषधियों के लिए ऐसा कुछ नियम नहीं होता; परंतु यदि हम अन्य औषधियां ले रहे हों और भूख न लगी हो; ऐसे समय में चावल की मांड का सेवन करना चाहिए । पाचन में हल्की होने से बिना भूख के खाई जाए, तब भी कोई बात नहीं है ।
आ. ऋतु के अनुसार आहार
आहार ऋतु के अनुसार होना चाहिए । आजकल ऋतु पर आधारित विषयों का ज्ञान दुर्लभ हो गया है । इसका एक सरल उदाहरण देखना हो, तो अंगूर, तरबूज जैसे फल समय से पूर्व ही हाट में आ जाते हैं । प्रकृति की रचना अत्यंत समर्पक होती है । प्रकृति, जब मांग आएगी (अर्थात जब आवश्यकता होगी), तभी आपूर्ति करती है । जैसे-जैसे ग्रीष्मऋतु निकट आता है और तब केवल पानी पीने से प्यास नहीं बुझती, वैसे में शरीर में स्थित पानी के अभाव की भरपाई करने हेतु इन रसीले फलों की ऋतु आती है; परंतु इस सामान्य तत्त्व का उपयोग न कर वसंत ऋतु में ही जब कफ प्राकृतिकरूप से बढा होता है और तब जब शरीर को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता नहीं होती, तभी ये फल बाजार में आते हैं और उन्हें खाया जाता है । बिना मांग के आपूर्तित यह जल कफ में रूपांतरित होता जाता है और इस प्रकार फेफडे पर कफ का भार बढाने की नींव रखी जाती है ।
इ. दही, अंडे और प्रथिनों (प्रोटीन) की संकल्पना
हम यदि संक्रमित हुए और घर में अथवा चिकित्सालय में भर्ती हुए, तो तुरंत ही हमें प्रथिनों का (‘प्रोटीन’का) आहार सुझाया जाता है । (अर्थात रोगी को भूख है अथवा नहीं, इसका कोई विचार किए बिना) । इसके संदर्भ में देखना हो, तो दही में प्रचुर मात्रा में प्रथिन होते हैं । यह एक बाजू है; परंतु उसकी दूसरी बाजू देखी जाए, तो वह गर्म होता है (दही का स्पर्श ठंडा होता है; परंतु पाचन होने पर वह गर्मी उत्पन्न करता है), पाचन के लिए भारी होता है और वह शरीर में कफ बढाने का काम बहुत अच्छी तरह करता है । इस दूसरी बाजू को ध्यान में लिया जाए, तो बुखार और न्यूमोनिया के संदर्भ में केवल प्रथिनों के लिए दही का विचार करना, तो स्थिति को अधिक बिगाड देता है । जिन्हें अपना स्वास्थ्य टिकाए रखना है, वे भी इस ऋतु में दही का सेवन न करें ।
घर रहकर चिकित्सा ले रहे व्यक्ति के साथ ही अतिदक्षता विभाग में भर्ती रोगी को भी अंडे दिए जाते हैं । अंडे तो प्रथिनों का एक अच्छा स्रोत हैं; परंतु क्या हम प्रथिनों का पाचन और शोषण के संदर्भ में अपनी सुविधा को भूल जाते हैं ? मूलतः बीमारी में भूख धीमी होती है, तब कुछ भी खाने का मन नहीं करता । उसमें अंडे पाचन के लिए भारी होने से वे कैसे पच पाएंगे ? और यदि पचे नहीं, तो शरीर में उनका शोषण कैसे होगा ? परंतु इसका कुछ विचार किए बिना प्रथिनों के नाम पर अंडे खा लिए जाते हैं और उसका जो परिणाम होना है, वह होकर रहता है और उससे स्थिति और अधिक बिगड जाती है ।
ई. फल, फलों का रस और नारियल पानी
बीमारी में जब भूख अधिक नहीं लगती और कुछ खाने की इच्छा नहीं होती, उस समय शरीर की शक्ति को टिकाए रखने हेतु फलों के रस अथवा नारियल पानी देने की पद्धति है । इस प्रकार के बुखार में बहुत ही दुर्बलता आ जाती है । ऐसी स्थिति में चिकित्सालय में भर्ती अथवा घर पर ही चिकित्सा ले रहे रोगी को स्मरणपूर्वक फलों का रस दिया जाता है । यहां ध्यान में लेने योग्य महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि कोई भी फल चाहे उसे चबाकर खाया जाए अथवा उसका रस निकालकर पीया जाए, उसके कारण कफ पतला होता है, बढता है और उससे फेफडे पर संकट आ सकता है । (जो व्यक्ति बीमार नहीं हैं, वे ऋतु के अनुसार चबाकर फल खा सकते हैं ।) नारियल पानी के संदर्भ में भी यही सूत्र लागू है ।
उ. दलहन
दलहन पाचन के लिए भारी होते हैं । पूरा दिन शारीरिक परिश्रम उठानेवाले लोगों को अथवा अन्य लोगों को ठंड के मौसम में दलहन पच सकता है; परंतु बीमारी में दलहन होने ही नहीं चाहिए । साथ ही जिन्हें स्वस्थ रहना है, वे भी इस ऋतु में दलहन टालें ।
ऊ. ड्रायफ्रूट्स (सूखे फल/मेवे)
सूखे फल खाने के लिए उचित ऋतु होती है ठंड का मौसम; परंतु नियमितरूप से शारीरिक परिश्रम उठानेवाले अथवा व्यायाम करनेवाले लोग किसी भी ऋतु में सूखे फल पचा सकते हैं । बीमारी में जब भूख अल्प हो जाती है, तब पाचन के लिए भारी सूखे फल(अपवाद काली किशमिश) बीमारी को और बढा सकते हैं ।
संक्षेप में बताना हो, तो हमें यदि स्वस्थ रहना हो अथवा शीघ्र सामान्य स्थिति में पहुंचना हो, तो मांसाहार (अंडे इत्यादि), फल, फलों का रस, नारियल पानी, दलहन और खमीर चढे हुए पदार्थ आदि खाना टालना चाहिए ।
२. रोगी को क्या खाना चाहिए ?
अ. चावल की मांड
बचपन में अन्नसेवन से लेकर चावल से आरंभित पोषण आगे जाकर भी आयु के विभिन्न चरणों में हमारा साथ देता है । ‘चावल चिकने और ठंडे होते हैं; इसलिए वे कफ को बढाते हैं’, इस अवधारणा के चलते ‘बीमारी में चावल खाना बंद कीजिए’ जैसे परामर्श दिए जाते हैं । चावल के असंख्य प्रकार और उन प्रकारों के अनुसार उनके गुणधर्म हैं, साथ ही चावल के नए और पुराने होने के आधार पर भी उसके गुणधर्म बदलते हैं । पुराने चावल की कनी को थोडे से घी में भूनकर उसमें अधिक मात्रा में पानी डालकर भगोने में उबालने से अच्छी मांड तैयार होती है । उसमें स्वाद के अनुसार नमक, जीरे का चूर्ण, थोडी सी सौंठ और गुड डालकर गर्म परोसें । मांड पाचन के लिए हल्की होने से उससे रोगी की पाचनशक्ति का तनाव नहीं आता और आवश्यक पोषण भी मिल जाता है ।
आ. मूंग की दाल और चावल की पतली खिंचडी
यह पोषण के लिए बहुत अच्छी, पाचन के लिए हल्की और बल देनेवाली है ।
इ. खील
मुरमुरे और खील में बडा अंतर है । मुरमुरे पाचन के लिए भारी और वातजन्य होते हैं, तो खील पाचन के लिए हल्की और बल देनेवाली होती है । थोडे से घी में जीरा, हींग, हल्दी और आवश्यकता के अनुसार मिर्च पाऊडर-नमक डालकर उन्हें अच्छी तरह भून लिया, तो उससे बहुत अच्छा और पौष्टिक चिऊडा तैयार होता है और उससे रोगी के स्वाद में भी परिवर्तन आता है ।
ई. लाजा मंड
२ गिलास पानी में २ मुट्ठियां खील डालकर उसे ५ मिनटतक उबालें । उसमें स्वाद के अनुसार जीरा पाऊडर डालकर उसे छान लें । इस तैयार मंड को पूरे दिन थोडा-थोडा लें । इससे शारीरिक शक्ति की शीघ्र भरपाई होती है ।
उ. मुनक्का (काली किशमिश)
स्वास्थ्य शीघ्र सामान्य हो; इसके लिए जिस प्रकार अग्नि का महत्त्व है, उसी प्रकार ‘अनुलोमान’ का भी महत्त्व है । शरीर को स्वयं ही उचित समय पर उसमें निहित मल की निकासी करनी चाहिए । मल की शुद्धि जितनी अधिक, सामान्य स्थिति उतनी शीघ्र आती है । इसके लिए सौम्यता के साथ काम करनेवाले द्रव्यों की आवश्यकता होती है । काली किशमिश उन्हीं में से एक है । दिन में थोडी-थोडी भिगोई हुई काली किशमिश खाएं अथवा उनका काढा बनाकर पीएं । इससे मल की शुद्धि होने के साथ शरीर को शक्ति भी मिलती है ।
ऊ. रामदाना
पौष्टिक और पाचन के लिए हल्के रामदाने के लड्डू अथवा उसकी खील खाने के ये दोनों अच्छे विकल्प हैं ।
आपमें संक्रमण के कोई लक्षण दिखाई दे रहे हों अथवा आप किसी भी चिकित्सकीय शाखा की चिकित्सा ले रहे हों और आपने खाने के संदर्भ में उक्त नियमों का पालन किया, तो आपका स्वास्थ्य शीघ्र सामान्य होता है ।
– वैद्य ज्योत्स्ना पेठकर
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात