श्रीराम की इच्छा बिना कुछ भी नहीं होता, इसकी साधकों को अनुभूति देनेवाले श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज !

श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराजजी का जन्म माघ शुक्ल पक्ष द्वादशी को (१९ फरवरी १८४५ को) सातारा जिले की माण तालुका गोंदवले बुद्रुक में हुआ । जन्म के समय उनका नाम गणपति रखा गया था । श्रीब्रह्मचैतन्य श्रीराम के उपासक थे । वे स्वयं को ब्रह्मचैतन्य रामदासी कहते थे ।

 

गुरुकृपा

उन्होंने ९ वर्ष की आयु में गुरु की खोज में घर छोड दिया । तब उनके पिता कोल्हापुर से उन्हें पुन: ले आए । कुछ समय में उन्होंने पुन: गृहत्याग कर गुरु की खोज में पदयात्रा आरंभ की । वे अनेक संतों और सत्पुरुषों से मिले । आखिर में मराठवाडा के नांदेड जिले के पास येहेळगांव में श्रीतुकामाई से उन्हें शिष्यत्व प्राप्त हुआ । अत्यंत कठोर कसौटियां देकर गुरु आज्ञापालन करते हुए उन्होंने गुरुसेवा की । इस समय उनकी आयु १४ वर्ष की थी । श्रीतुकामाई ने उन्हें ब्रह्मचैतन्य नाम दिया, रामोपासना दी और अनुग्रह देने का अधिकार दिया । तदुपरांत श्रीतुकामाई के आदेशानुसार महाराजजी ने काफी समय तीर्थाटन किया ।

 

तदुपरांत उनका जीवन

गृहत्याग के ९ वर्ष उपरांत श्रीब्रह्मचैतन्य महाराज गोंदवले लौटे । यहां से अगला जीवन उन्होंने राम नाम के प्रसार और विविध स्थानों पर राममंदिरों की स्थापना के लिए समर्पित किया । गुरु आज्ञा के अनुसार स्वयं गृहस्थाश्रम में रहकर जनमानस को प्रपंच करते हुए परमार्थ कैसे साधें ? इसका मार्गदर्शन किया । किसी भी परिस्थिति में राम का स्मरण रखें ओर उनकी इच्छा से प्रपंच के सुख-दुःख भोगें, यह उनके उपदेश का सार है । गोरक्षा और गोदान, अखंड अन्नदान, अनेक बार विविध कारणों से की हुई तीर्थयात्राएं, महाराजजी के चरित्र की कुछ विशेषताएं हैं । सुष्ट और दुष्ट, ज्ञानी और अज्ञानी के विषय में समभाव, निस्पृहता, कल्याणकारी वृत्ति, दीन अनाथों के प्रति सहानुभूति, सहनशीलता, व्यवहारचातुर्य, जनप्रियत्व और मधुर वाणी, ये महाराजजी के सहजगुण हैं । सामनेवाला व्यक्ति कोई भी हो, प्रत्येक को समझ में आए ऐसी भाषा में वे मार्गदर्शन करते थे । सामान्य लोगों से वे घरेलु और सरल भाषा में बोलते थे । वेदसंपन्न, ज्ञानी लोंगों के साथ चर्चा करने का प्रसंग आने पर उन्हें भी वैदिक कर्माें के साथ ही नामस्मरण करने का महत्त्व समझाते थे ।

उनकी श्रीराम से अनन्यता और दृढ श्रद्धा, उनकी बोल-चाल से सतत व्यक्त होती थी । नामस्मरण साधना की आज के युग की महिमा वे अत्यंत लगन से और विविध ढंग से मार्मिक प्रसंगों का वर्णन करते हुए समझाते थे । श्रीराम जय राम जय जय राम ॥ इस त्रयोदशाक्षरी मंत्र की महिमा विषद करने हेतु उन्होंने भजन, कीर्तन, प्रवचन, चर्चा, शंकासमाधान इन सभी मार्गाें को अपनाया । श्रीराम की इच्छा बिना कुछ भी नहीं होता और अखंड रामनाम जपने से आनंद और समाधान मिलता है, यह महाराजजी के बताने का अनुभव उनके सान्निध्य में आए प्रत्येक साधक ने लिया है ।

 

गंगास्नान से पावन होने हेतु यात्रियों में
खरा भाव आवश्यक है ! – श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज

एक बार काशी में बडे तपस्वी शांताश्रमस्वामी का ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराजजी से आगे दिया वार्तालाप हुआ ।

स्वामी : महाराज, इतने लोग काशी में गंगास्नान करके भी पावन क्यों नहीं होते ?

गोंदवलेकर महाराज : क्योंकि उनमें खरा भाव नहीं !

स्वामी (उत्तर से सहमत न होने से) : उनमें खरा भाव हुए बिना वे आएंगे कैसे ?

गोंदवलेकर महाराज : वह शीघ्र ही दिखाऊंगा । तदुपरांत चार दिनों में गोंदवलेकर महाराजजी ने शांताश्रमस्वामीजी के हाथ-पैरों में कपडे की पट्टियां लपेटकर उन्हें महारोगी का रूप दिया और जहां बहुत से लोग गंगास्नान के लिए उतरते हैं, वहां जाकर बिठा दिया । महाराज स्वयं बैरागी के वेश में साथ में खडे हो गए । कुछ समय उपरांत बहुतसे लोग एकत्र हो गए । बैरागी ने उपस्थित लोगों से कहा, ‘‘लोगों, सुनो ! यह महारोगी मेरा भाई है । गत वर्ष हम दोनों ने विश्वेश्वर की अत्यंत मन से सेवा की । तब उन्होंने प्रसन्न होकर मेरे भाई को वर दिया कि इस गंगा में स्नान करने पर अपने पाप नष्ट हो गए और हम शुद्ध हो गए, ऐसे भावसे युक्त किसी यात्री ने तुम्हें एक बार आलिंगन दिया, तो तुम्हारा रोग दूर हो जाएगा । यहां आप इतने लोग हो, कोई तो मेरे भाई पर इतना उपकार करे !’’ बैरागी के बोल सुनकर भीड में से ८-१० लोग आगे आए । तभी बैरागी ने उन्हें रोका और बोले, ‘‘पल भर रुक जाओ ! विश्वेश्वर ने आगे कहा, जो यात्री इसे आलिंगन देगा, उसे यह रोग लगेगा; परंतु उसके पुन: गंगा में स्नान करनेपर उसका भाव शुद्ध होने के कारण वह रोगमुक्त होगा ।’’ ऐसा कहने पर सब लोग निकल गए; परंतु वहां एक युवक किसान ने अधिक विचार न करते हुए बडी निष्ठा से शांताश्रमस्वामीजी को आलिंगन दिया । तदुपरांत तुरंत ही गोंदवलेकर महाराजजी ने स्वयं किसान को आलिंगन दिया और वे बोले, ‘‘बेटा तेरी काशीयात्रा वास्तव में फलद्रुप हुई । तुम्हारे जन्म का कल्याण हुआ, ऐसा निश्चित समझो !’’ शांताश्रमस्वामीजी स्वयं ही इस प्रसंग से सबकुछ समझ गए !

संदर्भ : पू. बेलसरे लिखित श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज चरित्र और वाड्मय

 

प्रत्येक को नामजप करने के लिए कहनेवाले
प.पू. गोंदवलेकर महाराजजी के प्रत्येक अवयव को कान लगाकर नामजप सुनाई देना

एक बार साहित्यसम्राट न.चि. केळकर प.पू. गोंदवलेकर महाराजजी के दर्शन के लिए गए थे । प.पू. महाराजजी के सामने जाने पर उनके ध्यान में आया कि प.पू. महाराजजी के लिए जो भी दर्शन के लिए आता है, उन्हें नाम की महिमा बताकर नामजप करने के लिए कहते हैं; परंतु वे स्वयं कभी नामजप करते दिखाई नहीं देते । उन्हें आश्चर्य लगा । उन्होंने साहस जुटाकर प.पू. महाराजजी से पूछा, ‘‘महाराज, आप यहां आनेवाले प्रत्येक को नामजप करने के लिए कहते हैं; परंतु स्वयं कभी करते हुए हमें प्रतीत नहीं होते ।’’

केळकर के इस प्रश्न पर प.पू. महाराजजी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘नरसोपंत, आओ मेरे हृदय को कान लगाओ ।’’ उत्सुकता से केळकरने प.पू. महाराजजी के हृदय को कान लगाया । और क्या आश्चर्य ! उन्हें प.पू. महाराजजी के हृदयमंदिर से स्पष्टरूप से नाम सुनाई दिया, श्रीराम जय राम जय जय राम ।’

कुछ समय पश्चात प.पू. महाराज ने कहा, ‘‘नरसोपंत, अब मेरे इस हाथ को कान लगाओ ।’’ केळकर ने वैसा किया तब उन्हें प.पू. महाराजजी के हाथों से रामनाम की ध्वनि सुनाई दी । तदुपरांत प.पू. महाराजजी के कहे अनुसार केळकर ने इसी प्रकार प.पू. महाराजजी के पैर, घुटने, उंगलियां इत्यादि अवयवों पर कान लगाया । प्रत्येक स्थान पर रामनाम ही सुनाई दे रहा था । प.पू. महाराजजी के रोमरोम से रामनाम सुनाई देने पर केळकर ने प.पू. महाराजजी को साष्टांग नमस्कार किया ।’

– श्री. मुरलीधर का. वानखेडे, नांदुरा
(शक्तिब्रह्माश्रम समाचार, जुलै २००९, पृ. २४)

1 thought on “श्रीराम की इच्छा बिना कुछ भी नहीं होता, इसकी साधकों को अनुभूति देनेवाले श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज !”

Leave a Comment