सत्‍संग ९ : स्‍वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया का महत्त्व

अष्‍टांग साधना में स्‍वभावदोष निर्मूलन करने का अनन्‍य साधारण महत्त्व है । इस प्रक्रिया का महत्त्व विस्‍तार से देखेंगे । धर्मशास्‍त्र में भी कहा है कि मनुष्‍य को षड्रिपुओं का त्‍याग करना चाहिए । संतों ने भी कहा है कि षड्रिपु मनुष्‍य के शत्रु हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्‍सर, ये षड्रिपु मनुष्‍य को शांति से बैठने नहीं देते । इन षड्रिपुओं के साथ अन्‍य भी अनेक अवगुण, बुरी आदतें मनुष्‍य को जकडी रहती हैं । इसलिए व्‍यक्‍ति का जीवन तनावग्रस्‍त और दुःखी बनता है । आनंदी जीवनयापन करना हो, तो इन षड्रिपुओं को दूर करना अथवा अपने स्‍वभावदोष, बुरी आदतें दूर करना आवश्‍यक होता है । यह वास्‍तव में कैसे साध्‍य करना है, इसकी अद्वितीय प्रक्रिया सनातन संस्‍था के संस्‍थापक परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अत्‍यंत सरल भाषा में बताई है । यह प्रक्रिया आचरण में लानेपर आनंद में बहुत वृद्धि होने की, तनाव दूर होने की अनुभूति अनेकों ने ली है । आज भी अनेक जन ले रहे हैं । कहते हैं ‘स्‍वभाव की कोई औषधि नहीं’; परंतु परात्‍पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा बताई स्‍वभावदोष दूर करने की प्रक्रिया मन से और प्रामाणिकता से आचरण में लाने पर व्‍यक्‍ति के स्‍वभाव में आमूलाग्र परिवर्तन हो सकता है ।

आरंभ में हम समझकर लेते हैं कि स्‍वभाव से क्‍या तात्‍पर्य है । दैनिक जीवन में समाज में हम अनेक व्‍यक्‍ति अपने संपर्क में आते हैं; परंतु क्‍या वे सभी एकसमान स्‍वभाव के होते हैं ? इसका उत्तर है, नहीं ! जितने व्‍यक्‍ति उतनी प्रकृतियां होती हैं । कोई चालाक, तो कोई डरपोक कोई शांत, तो कोई गुस्‍सैल, तो कोई स्नेही स्‍वभाव का होता है । जब प्रत्‍येक कृति से हमारे अंतर्मन का वही-वही संस्‍कार प्रकट होता है, तब उसे स्‍वभाव कहते हैं । जब कोई दूसरों से स्‍वयं ही आकर अच्‍छे से बात करता हो, तो हम कहते हैं कि उसका स्‍वभाव मिलनसार है । संक्षेप में, स्‍वभाव अर्थात व्‍यक्‍ति की प्रकृति । किसी व्‍यक्‍ति को छोटे-छोटे कारणों पर क्रोध आता होगा, तो हम कहते हैं कि वह क्रोधी है । कुछ व्‍यक्‍तियों के संबंध में उसके बर्ताव की बारंबारता इतनी अधिक होती है कि वह व्‍यक्‍ति अर्थात वह गुण अथवा दोष, ऐसा समीकरण ही हो जाता है । जैसे व्‍यक्‍ति के अंतर्मन के संस्‍कार वैसे उस व्‍यक्‍ति की वृत्ति अर्थात स्‍वभाव बन जाता है । उसके अनुरूप उसके मन में विचार आते हैं और विचार के अनुरूप उस व्‍यक्‍ति से अच्‍छी अथवा बुरी कृति होती है । व्‍यक्‍ति की बोलचाल अथवा बर्ताव से उसके संस्‍कारों का प्रकटीकरण होता है ।

सामान्‍यतः अच्‍छे संस्‍कारों को गुण और बुरी आदतों को ‘स्‍वभावदोष’ कहते हैं । अपने स्‍वभाव के कारण यदि व्‍यक्ति की अपनी अथवा अन्‍यों की हानि हो रही हो, तो वह उस व्‍यक्‍ति का स्‍वभावदोष हुआ । आध्‍यात्मिक परिभाषा में उन्‍हें ‘षड्रिपु’ कहते हैं । प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति में वह कम-अधिक प्रमाण में कार्यरत होता है ।

रिपु अर्थात शत्रु । जब एक रिपु प्रबल होता है, तब शेष पांचों रिपु कार्यरत होते हैं । इसका एक उदाहरण देखेंगे । एक स्‍त्री में ‘मोह’ यह रिपु प्रबल था । उसमें भी उसे सुवर्णालंकारों का मोह अधिक ही था । उसके पडोस में रहनेवाली महिला ने एक दिन सोने का हार पहना था । उसे देखने पर ‘मुझे भी वैसा ही हार चाहिए’, ऐसा ‘काम’ अर्थात तीव्र इच्‍छा निर्माण हुई । उसने अपने पति को वैसे बताया । उसकी आर्थिक परिस्‍थिति दयनीय थी । इस कारण पति ने कहा कि ‘सोने का हार खरीदना मेरे लिए संभव नहीं ।’, इसपर उसे ‘क्रोध’ आया । उसकी चिडचिडाहट आरंभ हो गई । इसलिए पति ने कर्ज लेकर जैसे-तैसे सोने का हार खरीद लिया । हार मिलने के उपरांत वह पहनकर सभी को इतराते हुए दिखा रही थी । इससे उसमें ‘मद’ यह रिपु उत्‍पन्‍न हुआ । कुछ दिनों पश्‍चात पडोस में रहनेवाली महिला ने अपने हाथों में सोने की चूडियां पहनी थी । यह देखकर उसके मन में लोभ उत्‍पन्‍न हुआ कि ‘मुझे भी वैसी ही चूडियां चाहिए ।’ सोने के हार के लिए कर्ज लेने से अब पति के लिए सोने की चूडियां लेना संभव नहीं था । इसलिए महिला के मन में अपनी पडोसी महिला के प्रति ‘मत्‍सर’ लगने लगा । इससे क्‍या ध्‍यान में आता है कि जब एक रिपु प्रबल होता है, तो अन्‍य पांच रिपु परिस्‍थितीनुसार कार्यरत हो जाते हैं । इसलिए महत्त्वपूर्ण यह है कि एक भी रिपु को कार्यरत न होने दिया जाए । यह एक प्रातिनिधिक उदाहरण हमने देखा । दैनिक जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं अपने संदर्भ में भी होती हैं । सभी संतों ने बताया है कि षड्रिपु मनुष्‍य के शत्रु हैं । उस पर साधना के बल पर मात किया जा सकता है ।

 

स्‍वभावदोषों के कारण होनेवाली आध्‍यात्मिक हानि : साधना व्‍यय (खर्च) होना

स्‍वभावदोषों के कारण व्‍यक्‍ति का जीवन तनावग्रस्‍त बनता है । स्‍वभावदोषों के कारण शारीरिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक स्‍तर पर भी दुष्‍परिणाम होते हैं । शारीरिक स्‍तर पर क्‍या दुष्‍परिणाम होते हैं, वह जान लेते हैं । मान लीजिए किसी का स्‍वभाव अतिचिंता करने का है, तो शरीर के अवयवों पर भी उसका दुष्‍परिणाम होता है और उससे आम्‍लपित्त, अल्‍सर, दमा, हृदयविकार, उच्‍च रक्‍तदाब जैसी बीमारियां उत्‍पन्‍न होती हैं । मानसिक स्‍तर पर क्‍या परिणाम होता है ?, तो स्‍वभावदोषों के कारण निराशा, एकाग्रता और आत्‍मविश्‍वास का अभाव, विस्‍मरण, मनोविदलता (स्‍किजोफ्रेनिया) जैसे विविध मानसिक रोग होते हैं । जितने स्‍वभावदोष अधिक, उतना हमारे मन पर तनाव अधिक । छोटी-छोटी घटनाओं के कारण भी व्‍यक्‍ति को मनस्‍ताप होता है । स्‍वभावदोषों से लडकर टिके रहने के लिए मन की शक्‍ति अथवा ऊर्जा भारी मात्रा में खर्च होती है । इसलिए उस व्‍यक्‍ति को तुरंत ही थकान अथवा निरुत्‍साह लगता है । मानसिक तनाव से बाहर निकलने के लिए कोई व्‍यक्‍ति सिगरेट, मद्य आदि व्‍यसनों का आधार लेता है; परंतु वैसे करने से मानसिक तनाव का निर्मूलन नहीं होता, इसके विपरीत समस्‍याएं और बढ जाती हैं । इसलिए व्‍यावहारिक जीवन में भी स्‍वभावदोषों का निर्मूलन काल की आवश्‍यकता बन गई है ।

स्‍वभावदोषों से आध्‍यात्मिक स्‍तर पर भी हानि होती है । किसी भी योगमार्ग से साधना करें, जब तक स्‍वभावदोष निर्मूलन और अहं-निर्मूलन कुछ प्रमाण में साध्‍य नहीं होता, तब तक साधना में प्रगति करना अत्‍यंत कठिन होता है । उदा. ध्‍यानयोग से साधना करनेवाले ध्‍यान लगाने का कितना भी प्रयत्न करें, तब भी उनके दोेषों के कारण उनके मन में असंख्‍य विचार आते रहेंगे, तो ठीक से ध्‍यान नहीं लगा सकेंगे । स्‍वभावदोषों के कारण होनेवाली अयोग्‍य कृतियों के कारण व्‍यक्‍ति की साधना खर्च होती है । इसलिए व्‍यक्‍ति की आध्‍यात्मिक उन्‍नति नहीं होती । उदाहरणार्थ, एक बार झूठ बोलने पर ३० माला जब व्‍यर्थ चला जाता है । इसलिए साधना करते समय नामजप करना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही स्‍वभावदोष निर्मूलन का प्रयत्न करना भी महत्त्वपूर्ण है । यदि किसी बर्तन में छिद्र हो, तो उसमें कितना भी जल डाले क्‍या वह बर्तन जल से पूरा भर सकेगा? नहीं, छिद्र बंद करने पर ही बर्तन में जल रह सकता है । उसीप्रकार व्‍यक्‍ति में विद्यमान स्‍वभावदोषरूपी छिद्र बंद करने के उपरांत ही व्‍यक्‍ति के मनरूपी बर्तन में साधनारूपी जल रख सकते हैं ।

 

खरा व्‍यक्‍तित्‍व विकास स्‍वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया द्वारा ही संभव !

आजकल व्‍यक्‍तित्‍व आदर्श बनाने के लिए अनेक जन विशेषरूप से तरुण वर्ग बडी राशि शुल्‍क के रूप में देकर व्‍यक्‍तित्‍व विकास वर्ग personality development class अथवा शिविर में जाते हुए दिखाई देते हैं । अनेक बडे आस्‍थापनों अर्थात कंपनियों में भी आत्‍मविश्‍वास से और कार्यकुशलता से काम कर सके, इस हेतु व्‍यक्‍तित्‍व की त्रुटियों कोेेेे दूर करने के लिए व्‍यक्‍तित्‍व विकास के अर्थात personality development के वर्ग लिए जाते हैं । soft skills के अंतर्गत सभ्‍यता के शिष्‍टाचार सिखाए जाते हैं; परंतु वहां मूल स्‍वभावदोषों पर प्रक्रिया न की जाने से वे मर्यादित समय और सतही होते हैं । दैनिक जीवन में अथवा कोई काम करते समय भाव-भावनाओं का उत्तम व्‍यवस्‍थापन कर पाना, इसके साथ ही परिस्‍थिति अच्‍छे ढंग से संभाल पाना महत्त्वपूर्ण होता है । उसके लिए नम्रता, निरपेक्षता, विवेक, निःस्‍वार्थीपना, कठिन प्रसंग का सामना करते समय सकारात्‍मक रहकर स्‍थिर चित्त से विवेकबुद्धि से निर्णय लेना इत्‍यादि बातों की आवश्‍यकता होती है । वह सहजता से होने के लिए समूल और आध्‍यात्मिक स्‍तर पर प्रयत्न करना महत्त्वपूर्ण है । साधना से जैसे-जैसे बुद्धि सात्त्विक होती जाती है, स्‍वभावदोषों की मात्रा घटती जाती है, वैसे-वैसे उस व्‍यक्‍ति का अपनेेआप विकास होता जाता है । दूसरी भाषा में यदि कहना हो, तो ‘व्‍यक्‍तित्‍व विकास’ यह स्‍वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया का ‘बाइ प्रॉडक्‍ट’ है । व्‍यक्‍ति के दोष दूर कर उसके चित्तपर गुणों का संस्‍कार निर्माण करनेकी प्रक्रिया को ‘स्‍वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया’, कहते हैं । शारीरिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक स्‍तर पर लाभदायक यह प्रक्रिया सीखके सभी का जिवन आनंदमय बने यहीं इश्‍वर चरणों में प्रार्थना करते है।

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