अनुक्रमणिका
हिन्दू धर्म : जगत को मिली अद़्भुत देन !
१. धर्म का अर्थ ‘रेलीजन’ नहीं है !
यूरोप और अमेरिका आदि पाश्चात्त्य देशों में ‘धर्म’ जैसी कोई भी संकल्पना नहीं है । वहां रेलीजन’ है । इसलिए उन्होंने धर्म’ शब्द का अनुवाद किया रेलीजन । भारत के बुद्धिवादी लोगों ने उसे मान्य किया । वास्तव में यहीं से समस्या का आरंभ हुआ । इस समस्या ने अब विकराल रूप धारण कर लिया है । अंग्रेज तो समझते ही नहीं थे; किंतु भारत के ज्ञानी लोगों की बुद्धि पर भी आवरण आया था और उन्होंने भी रेलीजन’ का अर्थ किया धर्म । इसलिए धर्म और रेलीजन में आकाश और पाताल जितना अंतर है’, यह ठीक से समझ लेना आवश्यक है । रेलीजन छोटा टीला है, तो धर्म विशाल पर्वत ! रेलीजन ‘गंगू तेली’ है, तो धर्म ‘राजा भोज’ !
रेलीजन के लिए योग्य समानार्थी शब्द है पंथ । अन्य समानार्थी शब्द संप्रदाय’, मत’, पंथ’ आदि हैं । किंतु रेलीजन का अर्थ धर्म निश्चित ही नहीं । ऑक्सफोर्ड और केंब्रिज के शब्दकोशों में प्रत्येक वर्ष अन्य भाषाओं के कुछ शब्द अंग्रेजी भाषा में समाविष्ट किए जाते हैं । उसी प्रकार रेलीजन’, नेशन’, सेक्युलर’, कल्चर’ आदि शब्दों को भी अब हिन्दी भाषा में समाविष्ट करना चाहिए; क्योंकि हिन्दी भाषा में इन शब्दों का अर्थ ठीक से व्यक्त करनेवाला दूसरा कोई भी शब्द नहीं है ।
२. रेलीजन और धर्म का स्पष्ट भेद
रेलीजन का संबंध पूजा अथवा उपासना पद्धति से है, तो धर्म संपूर्ण सृष्टि का ध्यान रखता है । रेलीजन आपस में संघर्ष उत्पन्न करता है, तो धर्म सभी में सामंजस्य अथवा ऐक्य का वातावरण निर्मित करता है । रेलीजन दुराग्रह को जन्म देता है और धर्म उदारता का वातावरण निर्मित करता है । रेलीजन मनुष्यों में भेद निर्मित करता है और धर्म समस्त सृष्टि के कल्याण की दिशा में अर्थात अद्वैत की ओर जाने की प्रेरणा देता है ।
३. रेलीजन क्या है ?
व्यक्ति अथवा समाज जिस ईश्वर पर विश्वास करता है और वह जिस प्रकार से उसकी पूजा-आराधना करता है, वह उसका रेलीजन’ है । इसलिए रेलीजन को ‘उपासनापद्धति’ भी कहा जाता है । कोई बडा महापुरुष बताता है कि मेरे कहे अनुसार करने पर व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होगा । उस बडे महापुरुष के अनुयायियों को सदैव स्मरण रहे, इसके लिए उनके उपदेश अथवा वाक्य लिखे जाते हैं और उन्हें पुस्तक अथवा ग्रंथ का स्वरूप दिया जाता है । साथ ही उस महापुरुष अथवा प्रेषित, ईशदूत अथवा ईश्वर की पूजा करने की पद्धति सुनिश्चित हो जाती है । इस प्रकार एक नए रेलीजन का जन्म होता है ।
रेलीजन के लिए ४ तत्त्व आवश्यक होते हैं । एक तो प्रेषित, उपदेशक अथवा प्रवर्तक । दूसरा तत्त्व है एक ग्रंथ, जिसमें प्रवर्तक के उपदेश और उसका जीवनदर्शन आदि जानकारी रहती है ।
रेलीजन का तीसरा तत्त्व है पूजा-आराधना की एक निश्चित पद्धति और चौथा तत्त्व है आराधना से फलप्राप्ति, यथा प्रेषित (पैगंबर) महम्मद इस्लाम के प्रवर्तक हैं और उन्होंने इस्लाम रेलीजन का आरंभ किया । इस्लाम को माननेवालों के लिए ‘कुराण’ पवित्र ग्रंथ है, जिसमें महम्मद साहेब की सीख लिखी है । मस्जिद में नमाज पढने की एक निश्चित पद्धति है । उस उपासना की फलप्राप्ति जन्नत, अर्थात स्वर्गप्राप्ति के रूप में होती है ।
इसी प्रकार ख्रिस्ती रेलीजन के प्रवर्तक, प्रेषित अथवा उपदेशक ईसा मसीह हैं । पवित्र ग्रंथ है बायबल, जिसे मानना अथवा पढना आवश्यक है । चर्च में जाना उनकी उपासना की पद्धति है और इस सबका परिणाम ‘हेवेन’ प्राप्ति के (स्वर्गप्राप्ति के) रूप में होता है ।
यहुदी रेलीजन के प्रवर्तक मोजेस अथवा मूसा हैं । उनका पवित्र ग्रंथ है ‘टोराह’, और ‘सायनेगॉग’ में जाना उनकी उपासना पद्धति है ।
पारसी पंथ के प्रथम पुरुष जरथुस्त्र’ हैं और उनका पवित्र ग्रंथ है जेंस्दावेस्ता तथा अग्नि की पूजा करना, यह उनकी निर्धारित उपासना पद्धति है । बौद्धों के लिए क्रमश: गौतम बुद्ध, त्रिपिटक और बौद्ध मठों में आराधना करना, ये ३ तत्त्व हैं । सिक्ख रेलीजन का आरंभ पूज्य गुरुनानक देव ने किया । ‘श्रीगुरु ग्रंथसाहेब’ उनका पवित्र ग्रंथ है और गुरुद्वारा में उपासना करना, यह उनकी एक निर्धारित पूजापद्धति है । वैष्णव, शैव, वीरशैव आदि इसी प्रकार के रेलीजन हैं ।
यह स्पष्ट है कि किसी महापुरुष के दिखाए मार्ग से जाते हुए जब कोई जनसमूह नया आचार, विचार, नई उपासना पद्धति आत्मसात करता है, तब उस रेलीजन का उदय होता है । पारसी, यहुदी, क्रिश्चियन, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख, वैष्णव, शैव आदि सभी रेलीजन हैं; किंतु हिन्दू’ नाम का कोई भी रेलीजन नहीं है ।
४. धर्म क्या है ?
धर्म यदि रेलीजन’ नहीं, धर्म कोई संप्रदाय अथवा मजहब, मत अथवा पंथ नहीं, तो धर्म वास्तव में क्या है ? वास्तव में अनेक प्रकार से धर्म समझाने का प्रयास हुआ है । कुछ विद्वान् ऋषि-महर्षि कहते हैं कि जो धारण करता है, वह है धर्म’ !’ अनेक ग्रंथों में क्षमा, धैर्य, चोरी न करना, इंद्रियनिग्रह करना आदि धर्म के १० लक्षण बताए गए हैं ।
कहीं स्वभाव को ही धर्म’ कहा गया है, यथा अग्नि का धर्म है जलाना, पानी का धर्म है बहना आदि । पत्नी धर्म, पति धर्म, संतान (पुत्र) धर्म, व्यक्ति धर्म, समाज धर्म और राष्ट्र धर्म का उल्लेख भी बार बार किया जाता है । कभी धर्मसंकट का विषय आता है, कभी आपद्धर्म की चर्चा होती है । इस कारण धर्म का योग्य अर्थ समझना कठिन हो जाता है । धर्म की एक विशिष्ट परिभाषा भी नहीं कर सकते; क्योंकि धर्म सनातन है । यह कोई भी नहीं बता सकता, धर्म कहां और कब आरंभ हुआ है ।
तो भी धर्म की परिभाषा बताने का एक प्रयास किया जा सकता है । हमारी इस सृष्टि में अनेक विविधताएं हैं, नानाविध बातें हैं । सृष्टि की विविधता संजोते हुए और इनमें सामंजस्य स्थापित करते हुए सृष्टि का विकास जिन शाश्वत सिद्धांतों के कारण होता है, उसे धर्म’ कहते हैं ।
चराचर विश्व से संबंधित है । किसी एक जनसमुदाय से जुडा नहीं है । इसे हिन्दू धर्म इसीलिए कहा जाता है कि हिन्दू समाज की इच्छा ने (मनीषा ने) इसका आविष्कार किया है । वैसे देखा जाए, तो यह मानव धर्म है और सनातन समय से अस्तित्व में है । इसे ‘हिन्दू धर्म’ कहें, ‘मानव धर्म’ कहें अथवा ‘सनातन धर्म’ कहें, है तो वह एक ही । धर्म संपूर्ण सृष्टि, अर्थात चराचर विश्व से संबंधित है । किसी एक जनसमुदाय से जुडा नहीं है; इसलिए वह ‘मानव धर्म’ है । सनातन समय से वह चलता आ रहा है; इसलिए वह ‘सनातन धर्म’ है ।
५. जीवन के शाश्वत सिद्धांत !
इस सृृष्टि में भी कुछ सत्ताएं हैं । पहली सत्ता है व्यक्ति, तदनंतर समाज है । एक सत्ता संपूर्ण सृष्टि है और एक सत्ता ईश्वर की भी है । जिन शाश्वत सिद्धांतों के आधार पर व्यक्ति, समाज, सृष्टि और ईश्वर परस्पर एक दूसरे को सहयोग करते हुए सामंजस्य सहित अपना (?) संपूर्ण विकास कर सकेंगे, वे शाश्वत सिद्धांत ही धर्म’ हैं । यहां ईश्वर का अर्थ रेलीजन से (?) है । प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखता है । उसकी उपासना करता है । निरीश्वरवादियों की श्रद्धा ईश्वर पर नहीं, अपितु तर्क/विज्ञान पर होती है ।
पाश्चात्त्य जगत अथवा पाश्चात्त्य विचारशील दार्शनिक व्यक्ति, समाज, सृष्टि और रेलीजन में कोई भी तालमेल नहीं बिठा सके हैं, तब चारों सत्ताओं में सामंजस्य होना तो बहुत दूर की बात है । अब तक यूरोपीयन विद्वान व्यक्ति और समाज के संघर्ष को भी नहीं मिटा सके हैं ।
जब व्यक्ति को अधिक महत्त्व मिल जाता है, सब कुछ करने की अनुमति मिलती है, तब समाज का विभाजन आरंभ होता है । अनियंत्रित व्यक्ति समाज के मूल्यों पर राक्षसी बल प्राप्त करता है और तदनंतर अपने ही समाज के लोगों का शोषण करने और उनको सताने लगता है । महाजनी व्यवस्था में भी यही होता है ।
इससे व्यथित होकर कार्लमार्क्स ने श्रमिकों की अधिनायकता की बात की और समाज को सर्वशक्तिमान बनाया । इस साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्ति यंत्र का कलपुर्जा बन गया । सभी लोग एक समान होने की अपेक्षा कुछ लोग अन्य लोगों से अधिक समान हुए ।
६. रेलीजन के नाम पर नरसंहार करना
इतिहास में जितने अत्याचार, जितना नरसंहार हुआ, उतना अन्य किसी समय में नहीं हुआ । यही स्थिति रेलीजन के संबंध में है । एक व्यक्ति अथवा समाज जिस रेलीजन को मानता है, उसे वह श्रेष्ठ समझता है । क्रिश्चियन मानते हैं कि ईसा के मार्ग पर चलने से जगत के लोगों का कल्याण हो सकता है ।
इसलिए उनका ध्येय है संपूर्ण जगत को ईसामय बनाना, और इसके लिए वे बल, आमिष, ठगी आदि सभी मार्गों का आधार दे रहे हैं । लैटिन (दक्षिण) अमेरिका, अफ्रिका, ऑस्ट्रेलिया आदि भागों में ईसा मतावलंबियों ने ईसाईपना थोपने के लिए जो रक्तपात किया, उसका काला इतिहास सभी जानते हैं ।
इसी प्रकार इस्लाम को माननेवाले भी ऐसा ही मानते हैं, केवल मुसलमानों को ही जन्नत (स्वर्ग) मिल सकती है । जो मुसलमान नहीं, वह काफीर है और काफिरों को जीने का कोई भी अधिकार नहीं । इस कारण इस्लाम को माननेवाले संपूर्ण जगत को दारुल-इस्लाम, अर्थात इस्लाम की भूमि बनाने के प्रयास में लगे हैं ।
मध्य-समय में ईसाई और मुसलमानों में अनेक क्रूसेड (धर्मयुद्ध) हुए । मध्य एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, भारत, पश्चिमी यूरोप, अफ्रिका आदि स्थानों में इस्लाम के बंदों ने जो अत्याचार किए, उन्हें पढने अथवा सुनने पर, रोंगटे खडे हो जाते हैं । भारत की तो एक एक इंच भूमि धर्मांध और ईसाईयों के किए अत्याचारों की साक्षी है । दोनों ने मिलकर विश्व के प्राचीन रेलीजन को नष्ट किया । इन दोनों ने यहूदी और पारसियों को भी नष्ट करने का बहुत प्रयास किया ।
साम्यवाद भी एक रेलीजन ही है । साम्यवाद के अनुसार केवल मार्क्सवाद ही मनुष्य को सुखी रख सकता है । जो साम्यवादी नहीं, वह पापी है और ऐसे पापियों को मार डालना कॉमरेड अपना कर्तव्य मानते हैं । रूस, चीन, विएतनाम, उत्तर कोरिया और पूर्व यूरोप के देशों में यही हुआ । केरल में आज भी यही हो रहा है । इससे स्पष्ट होता है कि आपस में संघर्ष का मुख्य कारण रेलीजन ही है ।
७. निसर्ग का (सृष्टि का) विनाश !
पाश्चात्त्य समाज और सृष्टि (मानव, जीव, जगत और निसर्ग) का भी संघर्ष सातत्य से हो रहा है । कोई भी एक समुदाय जब बलवान होता है, तब संपूर्ण विश्व अपने अधिकार में लेने का प्रयास करता है । दोनों विश्वयुद्ध संपूर्ण जगत पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के उद्देश्य से ही हुए । पोर्तुगीज, स्पेनवासी, फ्रांसवासी और अंग्रेजों ने अन्य समुदायों को दास बनाने का ही कार्य किया ।
अधर्म पर चलनेवाला समाज जब बलवान हो जाता है, तब साम्राज्यवाद का जन्म होता है । यह साम्राज्यवाद शोषण, अत्याचार, अनाचार का आधार लेता है और मानव जगत को पीडा ही देता है । आज भी तथाकथित महाशक्तियां अन्य समाजों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पूरी शक्ति से प्रयास कर रही हैं ।
बलवान समाज अपनी शक्ति बढाने के लिए निसर्ग का भी विनाश कर रहा है । आज पर्यावरण की जो गंभीर समस्या हमारे सामने खडी है, उसका कारण व्यक्ति और समाज से निसर्ग का अतिशोषण होना ही है । स्पेन, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, रूस आदि देशों ने नैसर्गिक साधनसामग्री का भयंकर दुरुपयोग किया है ।
अमेरिका की जनसंख्या जगत की जनसंख्या का २५ वां भाग, अर्थात ४ प्रतिशत है, तो भी इस महाशक्ति ने विश्व की नैसर्गिक साधनसामग्री का ४० प्रतिशत भाग निगल लिया है । इस दुरुपयोग के कारण नैसर्गिक असंतुलन निर्मित हुआ है । पर्यावरण का नाश हो रहा है । वन नष्ट हो रहे हैं । परिणामस्वरूप वन्यजीवों की संख्या निरंतर घट रही है ।
अपने देश में नगरों में चिडियां, कौए, तोते आदि पक्षियों के दर्शन दुर्लभ होते जा रहे हैं । इससे स्पष्ट होता है कि पश्चिम का कोई भी विचार, कोई भी पंथ, कोई भी दर्शन व्यक्ति, समाज, सृष्टि और ईश्वर के मध्य सामंजस्य निर्मित नहीं कर सका । इनमें से कोई भी दोनों के हितों के संरक्षरण को नहीं रोक सकता था ।
भारत के ऋषि, चिंतक तथा तपस्वियों ने ऐसे शाश्वत सिद्धांत दिए, जिसमें उपर्युक्त चारों सत्ताओं में सामंजस्य बना रहता है । एक-दूसरे को सहयोग करते हुए समस्त विविधताओं की रक्षा करते हुए ये सत्ताएं पूर्ण विकास की दिशा में अग्रसर होती थीं । इन शाश्वत सिद्धांतों को ही धर्म संज्ञा दी गई और यही धर्म संपूर्ण विश्व को भारत की अद़्भुत देन है ।’
– कन्हैयालाल चतुर्वेदी, बी.टेक एड, एम.एस.सी.(गणित), डी. जे., ज्योतिष विशारद तथा भूतपूर्व व्यवस्थापक, भारतीय रिजर्व बैंक