एकादशी की रात्रि में श्रीनामदेवजी के घर अखण्ड कीर्तन होता था । भगवान सूर्य के अस्ताचलगामी होते ही जनाबाई वहां आ जाती और एक कोने में बैठकर रात भर जागरण एवं कीर्तन करती । उसकी आंखों से प्रेमाश्रु बहते रहते ।
भगवान को रोना ही भाता है। जो उसके लिए जितना ही अधिक व्याकुल होकर रोता है, भगवान उससे उतना ही अधिक प्रसन्न होते हैं । आज तक भगवान के जितने भी प्रेमी हुए हैं सब भगवत्प्रेम में रोते ही रहे हैं ।
एक बार एकादशी की रात्रि नामदेवजी के घर में भक्तमण्डल कीर्तन कर रहा था । कोई मृदंग बजा रहा था, तो कोई करताल तो कोई झांझ बजा रहा था । कोई नाच रहा था, तो कोई गाते-गाते अश्रु बहा रहा था, कोई आनन्दमग्न होकर हंस रहा था-सभी भगवत्प्रेम में तन्मय, न किसी को तन-मन की सुधि है, न इस बात का ख्याल कि कितनी रात बीत गई । जनाबाई भी एक कोने में खडी प्रेममग्न होकर झूम रही थी ।
यही भक्तियोग है जिसके प्रभाव से मनुष्य के सारे बंधन कट जाते हैं और वह जन्म-मृत्यु के चक्र से ही छूट जाता है ।
संकीर्तन के आनन्दसागर में डूबे लोगों को पता ही नहीं चला कि कब सुबह हो गई । सभी लोग अपने-अपने घर चले गए । जनाबाई भी अपने घर आकर आराम करने लगी । भक्ति में डूबी वह लेटी ही रह गई और उसकी आंख लग गई । जैसे ही आंख खुली, उसने देखा कि सूर्यदेव उदय हो गए हैं । स्वामी के गृहकार्य में देरी होने से घबराती हुई वह नामदेवजी के घर पहुंची और जल्दी-जल्दी हाथ का काम पूरा करने में लग गई । परन्तु बिलम्ब हो जाने से सभी कार्यों में हडबडाहट होने लगी । कितने काम पडे हैं-झाडू देना, बरतन स्वच्छ करना, कपडे धोना, पानी भरना-ऐसा सोचते हुए कपडे धोने के लिए शीघ्र ही चन्द्रभागा नदी के किनारे गई । वस्त्र पानी में डुबा भी नहीं पायी थी कि नामदेवजी का दूसरा काम याद आ गया और कपडे छोडकर भागती हुई नामदेवजी के घर की ओर चली ।
रास्ते में एक अपरिचित वृद्धा ने प्रेम से उसका आंचल पकड कर कहा-’कहां जा रही हो बेटी?’ जल्दी में वृद्धा से आंचल छुडाते हुए जनाबाई ने कहा, ‘आज मुझे देर हो रही है, स्वामी की सेवा शेष है ।’ बुढिया ने प्रेम से कहा-‘चिंता न कर, बेटी । कपडे मैं धो देती हूं ।’ जनाबाई को नामदेवजी के घर पहुंचने की शीघ्रता थी पर न जाने क्यों बार-बार उसका मन बुढिया को याद कर रहा था । जीवन में पहली बार उसे मां की तरह स्नेह मिला था ।
नामदेवजी का काम समाप्त करके जनाबाई नदी पर वापिस आई तो देखा कि बुढिया ने सारे कपडे धो दिए थे। इस वृद्धा ने कपडों के साथ ही उन्हें पहनने तथा धोनेवालों के तन-मन भी निर्मल कर दिए थे । जनाबाई ने वृद्धा से कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कहा, ‘बडा कष्ट उठाया आपने । आप सरीखी परोपकारी माताएं ईश्वर का रूप होती हैं, मैं आपका आभार मानती हूं ।’ इसमें आभार की कौन सी बात है ।’ ऐसा कहकर वृद्धा वहां से चली गई । कभी आवश्यकता पडी, तो मैं भी वृद्धा की सेवा करूंगी-ऐसा विचारकर जनाबाई वृद्धा का नाम-पता मालूम करने के लिए उसे ढूंढने लगी पर उसे निराशा ही हाथ लगी ।
जनाबाई कपडे लेकर नामदेवजी के घर पहुंची । पर उसका मन वृद्धा के लिए बहुत व्याकुल था, वृद्धा ने जाते-जाते न मालूम क्या चमत्कार कर दिया, जनाबाई कुछ समझ न सकी । जनाबाई ने गद्गद कण्ठ से सारा प्रसंग नामदेवजी को सुना दिया । भगवद्भक्त नामदेवजी लीलामय की लीला समझ गए और प्रेम में मग्न होकर बोले, ‘जना ! तू बडीभाग्यवान है, भगवान ने तुझ पर बडा अनुग्रह किया है । वह कोई साधारण वृद्धा नहीं थी, वह तो साक्षात नारायण थे जो प्रेमवश बिना बुलाए ही तेरे काम में हाथ बंटाने आए थे । यह सुनकर जनाबाई रोने लगी और भगवान को कष्ट देने के कारण अपने को कोसने लगी ।
इस घटना से जनाबाई भक्ति में इतना डूब गई थी कि उन्हें अपने समय का अभास ही नहीं रहा था और इसलिए उनसे अपनी सेवा में देरी हो गई थी । पर इसका उन्हें बहुत खेद लगा था और इसीलिए वह घबराई हुई भागदौड कर रही थी । तब साक्षात भगवान उनकी लिए सहायता के लिए आते हैं, इससे उन्हें दोबारा दु:ख होता है कि उनके कारण ईश्वर को इतना कष्ट उठाना पडा । यहां पर भक्ति में उनकी कर्तव्य परायणता भी दिखती है । तो भक्त को इसी प्रकार अपनी गलतियों का भान रहना चाहिए और आत्मनिवेदन के रूप में उन्हें ईश्वर के सामने रखना चाहिए ।
इस प्रसंग के बाद भगवान के प्रति जनाबाई का प्रेम बहुत बढ गया । भगवान समय-समय पर उसे दर्शन देने लगे । जनाबाई चक्की पीसते समय भगवान के ‘अभंग’ गाया करती थी, गाते-गाते जब वह अपनी सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं चक्की पीसते और जनाबाई के अभंग सुनकर प्रसन्न होते । जनाबाई की काव्य-भाषा सर्वसामान्य लोगों के हृदय को छू लेती है । महाराष्ट्र के गांव-गांव में स्त्रियां चक्की पीसते हुए, ओखली में धान कूटते हुए उन्हीं की रचनाएं गाती हैं ।
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बडा । न मंदिर है न जंगल, न धूप है न चैन ! है तो बस प्रेम की पीडा; इसे तो केवल भोगने में ही सुख है । जनाबाई की भक्ति के वश में होकर स्वयं भगवान मूर्तिमान होकर जनाबाई का हाथ बंटाते थे । महाराष्ट्र में कवियों ने लिखा है, ‘जना संगे दळिले’ अर्थात ‘जना के संग भगवान चक्की पीसते थे’।
भगवान विट्ठलनाथ के दरबार में जनाबाई का क्या स्थान है, यह इससे सिद्ध होता है कि नदी से पानी लाते समय, चक्की से आटा पीसते समय, घर में झाड़ू लगाते समय, और कपडे धोते समय भगवान स्वयं जनाबाई का हाथ बंटाते थे ।
झाडू लगाए जनाबाई । कूडा भरें चक्रपाणि ॥१॥
टोकरी लिए सिर पर । फेंकती दूर ले जाकर ॥२॥
ऐसे भक्ति में फंसा । नीच काम करने लगा ॥३॥
जनाबाई कहें विठ्ठलजी से । कैसे चुकाऊं ऋण आपका ॥४॥
भावार्थ : भक्त जनाबाई झाडू लगाती है; परंतु श्रीकृष्णजी कूडा भरते हैं । वे ही अपने सिर पर टोकरी लेकर उस कूडे को दूर ले जाकर फेंक आते हैं । केवल भक्ति के भूखे श्रीहरि भक्त के लिए निम्न स्तर के काम भी करने लगे । तब जनाबाई विठ्ठलजी से कहती हैं, ‘मैं आपका यह ऋण कैसे चुकाऊं !’
अपने भक्त और अनन्यचिन्तक के योगक्षेम का वहन वह दयामय स्वयं करते हैं । किसी दूसरे पर वह इसे कैसे छोड सकते हैं । जिसे एक बार भी वह अपना लेते हैं, जिसकी बांह पकड लेते हैं, उसे एक क्षण के लिए भी छोडते नहीं । भगवान ऊंच-नीच नहीं देखते, जहां भक्ति देखते हैं, वहीं ठहर जाते हैं ।
जनाबाई जैसे भक्त बनने के लिए उनकी ही तरह हर काम में, हर प्रसंग में ईश्वर को अपने साथ अनुभव करना, उनसे हर प्रसंग का आत्मनिवेदन करते रहना, उनको ही अपना सब मानकर अपनी सब बातें बताना आवश्यक है । तो आज हम भी भगवान के प्रेम का अनुभव कर सकते हैं ।