सत्संग ८ : साधना के अंग

अष्टांग साधना

साधना करते समय गुरुकृपा अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है । शिष्य की वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति गुरुकृपा से ही होती है; इसीलिए ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्लम्’ अर्थात केवल गुरुकृपा से ही शिष्य का परममंगल हो सकता है’, ऐसा कहा गया है । गुरु अपने शिष्य को अलग-अलग माध्यम से सीखाते रहते हैं । गुरुकृपा के माध्यम से व्यक्ति का ईश्वरप्राप्ति की ओर अग्रसर होने को ही गुरुकृपायोग कहा जाता है ।

गुरुकृपायोग के अनुसार साधना के २ अंग हैं । एक है व्यष्टि साधना और दूसरी है समष्टि साधना ! व्यष्टि साधना का अर्थ व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति हेतु करने आवश्यक प्रयास, तो समष्टि साधना का अर्थ समाज की आध्यात्मिक उन्नति हेतु किए जानेवाले प्रयास ! कालमहिमा के अनुसार व्यष्टि साधना का ३० प्रतिशत, तो समष्टि साधना का ७० प्रतिशत महत्त्व है । व्यष्टि साधना की नींवपर ही समष्टि साधना की इमारत खडी रहती है; इसलिए व्यष्टि साधना भी महत्त्वपूर्ण है । ये दोनों साधनाएं एक-दूसरे के लिए पूरक हैं ।

व्यष्टि साधना के अंग कौनसे हैं, तो नामजप, सत्संग, सत्सेवा, सत् के लिए त्याग, अन्यों के प्रति प्रीति, स्वभावदोष निर्मूलन, अहं निर्मूलन एवं स्वयं में भक्तिभाव जगाने हेतु प्रयास ! नामजप और सत्संग के संदर्भ मे इससे पहले के लेखोंमे हम ने विस्तारसे जानकारी दी है । इस लेख मे हम नामजप और प्रार्थना ये २ सूत्र छोडकर साधना के अन्य अंगोंकी जानकारी लेंगे । !

१. सत्सेवा

सत्सेवा साधनामार्ग का एक महत्त्वपूर्ण चरण है । सत्सेवा निश्चितरूप से क्या होती है ? सत् का अर्थ ईश्वर अथवा परब्रह्म ! सत्सेवा का अर्थ ईश्वर की सेवा ! आज के समय में प्रत्यक्षरूप से ईश्वर की सेवा करना असंभव होने से संतों की सेवा करनी चाहिए, ऐसा कहा गया है । संत ईश्वर के सगुण रूप होते हैं । ईश्वर अथवा संतों की अपेक्षा के अनुरूप कृत्य करना तो सत्सेवा ही है । संतों को अथवा ईश्वर को क्या अपेक्षित है, तो धर्मप्रसार अथवा अध्यात्मप्रसार ! अध्यात्म का अर्थात साधना का प्रसार सर्वाेत्तम सत्सेवा है । सत्सेवा के माध्यम से संतों का अथवा गुरु का मन जीता जा सकता है तथा उस माध्यम से गुरुकृपा कार्यरत होती है । आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से सत्सेवा का १०० प्रतिशत महत्त्व है । सत्सेवा के कारण अहंभाव न्यून होने में सहायता मिलती है ।

स्वामी विवेकानंदजी ने कहा है, ‘अन्नदान, प्राणदान, तथा विद्यादान से धर्मदान सर्वश्रेष्ठ है ।’ इसलिए हमें प्रतिदिन थोडा तो समय सत्सेवा के लिए देना चाहिए ।

२. त्याग

व्यष्टि साधना का अगला अंग है सत् के लिए त्याग करना ! आध्यात्मिक उन्नति के लिए तन, मन एवं धन का त्याग करना होता है । तन का त्याग है ईश्वरप्राप्ति हेतु अपने शरीर को घिसाना, नामजप करना, साथ ही निरंतर ईश्वर के सान्निध्य में रहने का प्रयास करना अर्थात यह एक प्रकार से मन का त्याग है । समझो हमारे सामने पसंदीदा फिल्म देखना तथा सत्संग की तैयारी में सहायता करना, ये २ विकल्प हैं, इसमें हमने फिल्म देखने की अपेक्षा सत्संग को प्रधानता दी, तो उससे हमारे मन का त्याग होता है; क्योंकि यहां हमने मन को सुख प्रदान करनेवाले विषय का ईश्वरीय कार्य के लिए त्याग किया है । धन का त्याग है सत्कार्य हेतु धन देना । शास्त्र यह बताता है कि हमें हमारे धन का एक षष्ठांश भाग धर्मकार्य के लिए अर्पण करना चाहिए; परंतु अर्पण करते समय क्या वह ‘सत्पात्रे दान’ है अथवा नहीं अर्थात यह दान उचित कार्य के लिए दिया जा रहा है अथवा नहीं, इसपर विचार करना भी महत्त्वपूर्ण होता है ।

ईश्वरप्राप्ति हेतु तन, मन एवं धन का क्रमबद्ध तरीके से त्याग करना होता है । आपने सर्कस में देखा होगा कि ऊंचे झूलेपर लटकनेवाली लडकी जब अपने झूले की लकडी छोड देती है, तब दूसरा व्यक्ति उस लडकी को तुरंत पकड लेता लेती है । सर्कस के ऊंचे झूलेपर लटकनेवाली लडकी जबतक उसके हाथ में पकडी गई झूले की लकडी नहीं छोडती, तबतक लाठी को उल्टा लटकनेवाला व्यक्ति उसे पकड नहीं सकता । उसी प्रकार साधक जबतक सर्वस्व का त्याग नहीं करता, तबतक ईश्वर उसे आधार नहीं देते । त्याग करने का अर्थ स्थूलरूप से वस्तुओं का त्याग करना नहीं है, अपितु ‘उन वस्तुओं के मन में निहित आसक्ति का छूटना’ त्याग है । आरंभ में गुरु शिष्य से उसके पास होनेवाली वस्तुओं का त्याग करवाते हैं । अंत मं जब उसकी आसक्ति ही छूट जाती है, तब उसे प्रचुर मात्रा में सबकुछ देते हैं । अर्थात गुरु शिष्य को भौतिक सुखों में फंसने नहीं देते ।

३. भावजागृति के प्रयास

हमारे यहां ‘जहां भाव वहां ईश्वर’ अथवा ‘भगवान भाव के भूखे’, ऐसा कहा गया है । हमारे अंतःकरण में ईश्वर के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने को ‘ईश्वर के प्रति भाव होना’ कहा जाता है । जितना शीघ्र हम में भाव उत्पन्न होगा, उतना वह अधिक जागृत रहेगा और उतने ही शीघ्र हम ईश्वर के निकट पहुंच सकते हैं । रामकृष्ण परमहंसजी में निहित अत्युच्च भाव के कारण उन्हें निरंतर श्री कालीमाता के दर्शन होते थे । मीराबाई के भाव के कारण श्रीकृष्णजी ने कदम-कदमपर उनकी रक्षा की । हम भी स्वयं में ईश्वर के प्रति प्रयासपूर्वक भाव बढाकर निरंतर ईश्वर के सान्निध्य में रह सकते हैं । भाव बढाने हेतु मन और बुद्धि के स्तरपर निरंतर कृत्य करते रहने से भाव निश्चितरूप से बढता है ।

४. अन्यों के प्रति प्रीति (निरपेक्ष प्रेम)

व्यष्टि साधना के अंतर्गत अगला चरण है प्रीति अर्थात निरपेक्ष प्रेम ! व्यावहारिक जीवन के प्रेम में अपेक्षाएं होती हैं । समझो हमने किसी संबंधी की बहुत सहायता की और उसने उसका स्मरण नहीं रखा, तो तब हमारे मन की क्या स्थिति होगी ? अगली बार हम उसकी सहायता करने से पूर्व १० बार विचार करेंगे । इसे कहते हैं ‘अपेक्षाओं से युक्त प्रेम !’ अध्यात्म में निरपेक्ष प्रेम अथवा प्रीति के चरणतक पहुंचने का बडा महत्त्व है । ईश्वर हमें निःशुल्क सूर्यप्रकाश और प्राणवायु उपलब्ध कराते हैं; परंतु हम उसके लिए उनका कितनी बार आभार अथवा कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ? अधिकतर समय हमें ईश्वर की इस कृपा का भान ही नहीं होता । तब भी ईश्वर ने हमें देना कभी अल्प किया है क्या ? कोई आभार व्यक्त करे अथवा न करे, कोई स्मरण रखे अथवा न रखे, भगवान को जो देना है, उसे वे देते ही हैं । इसे कहते हैं निरपेक्ष प्रेम ! साधना करने से जब सात्त्विकता बढती है, तब व्यापकता और निरपेक्ष प्रेम उत्पन्न होने का आरंभ होता है । तब साधक को प्रत्येक वस्तु में परमेश्वर का रूप दिखाई देने लगता है । उससे आगे जाकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम् ।’ अर्थात पूरे विश्व के प्रति ही परिवार की भावना उत्पन्न होती है ।

५. स्वभावदोष और अहं निर्मूलन

व्यष्टि साधना के अगले २ महत्त्वपूर्ण चरण हैं स्वभावदोष निर्मूलन और अहंनिर्मूलन ! हम में से प्रत्येक व्यक्ति में ही स्वभावदोष औ अहंकार होता है । किसी को तुरंत क्रोध आता है, तो किसी को छोटी-छोटी बातों से चिडचिडाहट होती है, किसी को उसके मन के विरुद्ध कुछ हुआ, तो उसका स्वीकार करना संभव नहीं होता, किसी को झूठ बोलने की आदत होती है, किसी को प्रत्येक बार उसे सम्मान मिलने की अपेक्षा होती है अथवा अन्यों द्वारा प्रशंसा की जाने की लालसा होती है । हम में से प्रत्येक व्यक्ति में अल्पाधिक मात्रा में स्वभावदोष और अहंकार तो होता ही है; इसलिए साधना करते समय इन दोषों और अहं को अल्प करना और उनका निर्मूलन करना महत्त्वपूर्ण होता है । यह नहीं किया, तो दोषों के कारण होनेवाली चूकों का परिमार्जन करने में साधना खर्च होती है ।

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