१. सत्संग क्या है ?
सत्संग क्या होता है ?, सत् का संग होता है । सत् का अर्थ ईश्वर अथवा ब्रह्मतत्त्व और संग का अर्थ है सान्निध्य ! हमें प्रत्यक्षरूप से ईश्वर का सान्निध्य मिलना असंभव है; इसलिए संत, जिन्हें ईश्वर का सगुण रूप कहा जाता है; उनका सान्निध्य सर्वश्रेष्ठ सत्संग होता है । ऐसा भी नहीं है कि प्रत्येक बार हमें संतों का सान्निध्य मिले । इसलिए जो साधना करनेवाले साधक होते हैं, उनका सत्संग महत्त्वपूर्ण होता है । सत्संग का अर्थ ईश्वर, धर्म, अध्यात्म और साधना के संबंध में सात्त्विक चर्चा । सत्संग का अर्थ ईश्वर अथवा ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति की दृष्टि से अनुकूल वातावरण ! सरल भाषा में बताना हो, तो सत्संग का अर्थ अध्यात्म के लिए पोषक वातावरण ! यह सत्संग हमें अलग-अलग माध्यमों से मिल सकता है । कीर्तन अथवा प्रवचन में जाना, देवालय जाना, तीर्थस्थान में रहना, संतों द्वारा लिखित आध्यात्मिक ग्रंथों का वाचन करना, संत अथवा अन्य साधकों के सान्निध्य में रहना और संत अथवा गुरु के पास जाना, ये सभी सत्संग के ही माध्यम हैं ।
सत्संग भले ही हमें मिले, तब भी उसका अपेक्षित लाभ उठाने हेतु हमारा आंतरिक भाव भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है । उदाहरणार्थ, देवालय जाना भी एक सत्संग ही है, ऐसा हमने कहा; परंतु देवालय जाते समय हम सैर करने अथवा ‘पिकनिक’ मनाने की भांति गए, तो क्या देवता के दर्शन का आध्यात्मिक स्तरपर हमें अपेक्षित लाभ मिलेगा ? इसलिए जितना सत्संग महत्त्वपूर्ण है, उतना ही सत्संग का आध्यात्मिक लाभ मिलने हेतु निष्ठापूर्वक हमारा प्रयास भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है ।
२. सत्संग का महत्त्व
२ अ. तपस्या से भी सत्संग का महत्त्व अधिक
हमारे धर्मग्रंथों में सत्संग का महत्त्व विशद करनेवाली एक कथा बताई गई है । एक बार वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋषियों में ‘सत्संग श्रेष्ठ अथवा तपस्या ?’ विषयपर विवाद हुआ । उसमें वसिष्ठऋमि ने कहा, ‘सत्संग श्रेष्ठ’; तो विश्वामित्रऋषि कहने लगे, ‘तपस्या श्रेष्ठ’ । इस विवाद का समाधान ढूंढने दोनों देवों के पास चले गए । तब सभी देवताओं ने कहा, ‘केवल शेषनाग ही आपके इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं !’ वे दोनों तब शेषनाग केपास गए और उनसे प्रश्न किया, ‘सत्संग श्रेष्ठ अथवा तपस्या श्रेष्ठ ?’ उसपर शेष ने कहा, ‘‘पहले आप मेरे मस्तकपर जो भार है, उसे थोडा हल्का कीजिए, तब मैं इसपर विचार कर उत्तर दूंगा ।‘ हमारे यहां यह पौराणिक मान्यता है कि शेषनाग ने पृथ्वी को अपने मस्तकपर उठाया है । तब शेषनाग के मस्तकपर से पृथ्वी का भार हल्का करने हेतु विश्वामित्रजी ने संकल्प लिया । ‘मैं मेरी १ सहस्र (हजार) वर्षाें की तपस्या का फल यहां अर्पण करता हूं । पृथ्वी शेषनाग के मस्तक से थोडी ऊपर हटे’; परंतु पृथ्वी तनिक भी हिली नहीं । उसके उपरांत वसिष्ठ ऋषि ने संकल्प लिया, ‘मैं आधी घटिका अर्थात १२ मिनट के सत्संग का फल यहां अर्पण करता हूं । पृथ्वी अपना भार थोडा हल्का करे ।’’ यह कहने के उपरांत पृथ्वी तुरंत ही ऊपर उठ गई । इस कथा से सत्संग का महत्त्व कितना है, यह ध्यान में आएगा ।
२ आ. वाल्या का वाल्मिकी में रूपांतरण होने हेतु नारदमुनि का सत्संग ही बना कारण !
बाल्या नामक डाकू ऋषि वाल्मिकी बने, वह भी नारदमुनि के कुछ मिनटों के सत्संग के कारण ! वाल्या डाकू पथिकों को लूटता और मारता था । एक बार नारदमुनी वाल्या से मिले और उन्होंने उससे पूछा, ‘‘तुम जिनके लिए यह पापकर्म कर रहे हो, क्या तुम्हारे परिवारजन अर्थात तुम्हारी पत्नी और बच्चे इस पापकर्म में भागीदार होने के लिए तैयार हैं ?’ वाल्या ने जब घर आकर अपनी पत्नी और बच्चों से यह प्रश्न पूछा, तब उन्होंने उसके पापकर्म में भागीदार होना अस्वीकार किया । उसके आगे की कथा तो हम सभी को ज्ञात ही है । नारदमुनि के इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न के कारण वाल्या के जीवन को एक नया मोड मिला । उन्होंने दिनरात साधना की और आगे जाकर वाल्या का रूपांतरण संपूर्ण विश्व के लिए वंदनीय बने वाल्मिकी ऋषि में हुआ । सत्संग का इतना महत्त्व है ।
2 इ. सत्संग के लाभ
अच्छी आदतें शीघ्र नहीं लगतीं । अच्छी आदतें लगने के लिए निरंतरता और दृढता के साथ प्रयास करने पडते हैं; परंतु इसके विपरीत बुरी आदतें तुरंत लगती हैं । हम में से अनेक लोगों ने इसका अनुभव किया होगा कि समझो हमने प्रतिदिन व्यायाम अथवा प्राणायाम करने का संकल्प लिया, तो उसकी आदत लगनेतक हमें कितना संघर्ष करना पडता है ! इसके विपरीत यदि व्यायाम में १ दिन की छुट्टी लेनी हो, तो मन एक क्षण में तैयार होता है । सत्संग के कारण व्यक्ति की वृत्ति सात्त्विक बनती है । उससे व्यक्ति में दृढता, निरंतरता, सकारात्मकता और लगन आदि गुणों का विकास होने में भी सहायता मिलती है । इस सत्संग का महत्त्व केवल परमार्थतक ही सीमित है, ऐसा नहीं है, अपितु गृहस्थि और नित्य जीवन में भी इसका बडा महत्त्व है ।
१. सत्संग में ईश्वर, धर्म, अध्यात्म और साधना के विषय में चर्चा होती है । उसके कारण व्यक्ति के आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रगल्भ बनते हैं और उससे उसमें ईश्वर के प्रति श्रद्धा बढती है ।
२. नामजप के कारण ५ प्रतिशत सात्त्विकता बढती है, तो सत्संग के कारण वह ३० प्रतिशततक बढ सकती है । नामजप के कारण मिलनेवाला आनंद सत्संग में अपनेआप और सहजता से मिलता है ।
३. सत्संग नामस्मरण का अगला चरण है । अर्थात हम प्रतिक्षण अर्थात २४ घंटे सत्संग में नहीं रह सकते; इसके लिए नामजप आवश्यक है । नामजप के कारण हम अखंड साधनारत रह सकते हैं ।
४. सत्संग में ईश्वर के संदर्भ में चर्चा होती है । जहां ईश्वर का गुणगान गाया जाता है, वहां ईश्वर का सूक्ष्मरूप से अस्तित्व तो होता ही है । उसके कारण व्यक्ति को सत्संग का चैतन्य के स्तरपर भी लाभ मिलता है । समाज के अन्य व्यक्तियों की तुलना में सत्संग में आनेवाले व्यक्तियों में सत्त्वगुण अधिक होता है । अधिक सत्त्वगुणवाले व्यक्तियों के एकत्रिकरण के कारण सामूहिक सत्त्वगुण बढकर वातावरण सात्त्विक बनता है । उससे साधक में विद्यमान सत्त्वगुण बढने में भी सहायता मिलती है ।
५. सत्संग में नियमितरूप से उपस्थित रहने से हमारी साधना अधिकाधिक दृढ होती जाती है । ईश्वरप्राप्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य है, यह धारणा भी दृढ होती है ।
६. सत्संग में होनेवाले सात्त्विक वातावरण में साधक की ध्यान आदि साधना अधिक अच्छी होती है । सत्संग के कारण अनुभूतियां होती हैं । अनुभूतियों के कारण साधना के प्रति श्रद्धा बढने में सहायता मिलती है । सत्संग के कारण व्यक्ति में सकारात्मकता बढकर उसका मनोबल ऊंचा होता है ।
७. सत्संग में सहभागी होनेवाले अन्य साधकों को कौनसी समस्याएं आती हैं तथा उसके लिए कौनसे प्रयास करने चाहिए ?, सत्संग में सहभागी अन्य साधक किस प्रकार प्रयास करते हैं ?, यह सिखने को मिलता है । संक्षेप में बताना हो, तो साधना के प्रायोगिक प्रयास सिखने के लिए सत्संग के समान अन्य कोई माध्यम नहीं है । सत्संग में हम जो प्रयास अथवा अनुभूतियां बताते हैं, उसकी आध्यात्मिक कारणमीमांसा सत्संग के कारण ध्यान में आती है । उसके कारण सत्संग में आनेवाले साधकों में श्रद्धा बढने में सहायता मिलती है । उससे ‘सत्संग में आनेवाले अन्य साधक भी हमारे ही हैं’ यह भाव उत्पन्न होता है । उससे आगे जाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का भाव उत्पन्न होता है ।
८. साधना से संबंधित शंकाओं का निराकरण होता है ।
९. साधना के प्रयासों को गति मिलती है ।
१०. साधक के मन में साधना के संबंध में कुछ शंकाएं अथवा प्रश्न हों, तो सत्संग में उसके उत्तर मिल सकते हैं ।
११. मन में साधना के प्रति कोई पूर्वग्रह उत्पन्न हुआ हो, तो सत्संग में जाने के कारण वह दूर होने में सहायता मिलती है । आज भी समाज में साधना और अध्यात्म के संबंध में अवधारणाएं देखने को मिलती हैं । उदाहरणार्थ, साधना वयस्क होनेपर करनी है अथवा अध्यात्म को अपनाना पिछडापन और विज्ञान प्रगति का लक्षण है आदि ! सत्संग के कारण ऐसी अवधारणाएं दूर होती हैं । साधनामार्ग में प्रयासों को दिशा मिलकर उन्हें गति भी मिलती है ।
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Sanatan Sanstha