सत्संग ५ : नामजप करने की पद्धतियां

 १. लिखित नामजप

प्राथमिक चरण में हम ‘लिखित नामजप’कर सकते हैं । लिखित नामजप क्या होता है, वह समझ लेते हैं । इस पद्धति के अनुसार हम जो नामजप करते हैं, उसे बही अर्थात कॉपी में लिखना होता है । इस पद्धति में हम पहले नामजप का उच्चारण करते हैं, उसके पश्चात लिखते हैं और लिखा हुआ सही है अथवा नहीं, यह देखने हेतु उसपर दृष्टि घूमाते हैं । इसका अर्थ १ नामजप लिखते समय हमें देवता का ३ बार स्मरण होता है । इस प्रकार से नामजप करते समय हमारी आंखें, हाथ, बुद्धि और मन नाम में रममाण होता है । इसके कारण नामजप के समय हमारे मन के भटक जाने की संभावना अल्प होती है । इसका और एक लाभ यह भी होता है कि नामजप लिखी हुई बहियां घर में रखने से वास्तु के शुद्ध होने में सहायता होती है । नाम में रुचि उत्पन्न होने के लिए आरंभ में हाथ से नामजप लिखना, अगले चरण में उसे ऊंचे स्वर में बोलना और उसके उपरांत जब मन नाम में रमने लगे, तब मन ही मन नामजप करना जैसी पद्धति से नामजप करना संभव होता है ।

 

२. वैखरी नामजप

लिखित नामजप के स्थानपर हम वैखरी वाणी में भी नामजप कर सकते हैं । वैखरी में नामजप करने का अर्थ ऊंचे स्वर में नामजप करना है । ऐसा करने से जापपर मन एकाग्र करना सरल होता है और उससे प्राणायाम के भी लाभ मिलते हैं । वैखरी वाणी से अर्थात ऊंचे स्वर में नामजप करने से और एक यह लाभ मिलता है कि इस प्रकार नामजप ऊंचे स्वर में बोलने से जो ध्वनितरंगें निकलती हैं, उससे वातावरण सात्त्विक होने में सहायता मिलती है । ऊंचे स्वर में नामजप करने से घर के अपने परिजनों के कानोंतक भी नामजप पहुंचता है, जिससे उनके मन में भी सात्त्विक भाव उत्पन्न हो सकते हैं ।

वैखरी में नामजप करने की एक मर्यादा यह है कि यह नामजप ऊंचे स्वर में होने के कारण हमारा मन निर्विचार स्थिति में नहीं जा सकता । नामजप करने से मन का निर्विचार स्थिति में जाना आध्यात्मिक उन्नति का लक्षण होता है ।

नामजप की वैखरी वाणी के साथ मध्यमा, पश्यंती और परा ये वाणियां भी हैं ।

२ अ. मध्यमा

अपनेआप होनेवाला नामजप अर्थात मध्यमा वाणी से होनेवाला नामजप ! वैखरी और पश्यंती नामजप की २ वाणियों के बीच की वाणी होने के कारण इसे ‘मध्यमा’ कहते हैं । मनपर नामजप का संस्कार होने के उपरांत सामान्यतः महिनेभर में नामजप मन ही मन में अपनेआप होने लगता है । इस प्रकार जाप होना नामजप में उन्नति होने का लक्षण है ।

२ आ. पश्यंती

द्रष्टा संत और ऋषिमुनियां का जो जाप होता है वह पश्यंति वाणी कही जाती है । ‘पश्य’ धातु से ‘पश्यंति’ शब्द बना है । पश्य का अर्थ देखना । त्रिकाल देखनेवाले द्रष्टा ऋषिमुनियों का जाप इस वाणी से होता है । इस प्रकार के नामजप को ‘पश्यंति’ कहते हैं ।

२ इ. परा

परा वाणी अर्थात नाम लेनेवाला ही नामरूप हो जाता है; इसका अर्थ परा वाणी में जाप नहीं होता, अपितु जप के साथ अद्वैत होता है । जापकर्ता जाप के साथ एकरूप हो जाता है ।

 

३. जपमाला से नामजप करना

हम जपमाला से भी नामजप कर सकते हैं । जपमाला से नामजप की गणना करने से विशिष्ट संख्या में नामजप पूरा होनेपर मन को संतुष्टि मिलती है और उससे नामजप में रूचि भी बढती है ।

प्राथमिक चरण का साधक माला से नामजप करता हो, तो उसे प्रतिदिन न्यूनतम ३ माला नामजप करना चाहिए । नामजप कम होता हो, तो कितना कम हुआ, यह ज्ञात होने के लिए नामजप माला से अवश्य गिननी चाहिए । अच्छा नामजप हो रहा हो, तो उसके लिए माला गिनने की आवश्यकता नहीं है ।

३ अ.  जपमाला में निहित मणियों की संख्या

हिन्दुओं की जपमाला में अधिकतर १०८ मणि होते हैं । उसमें मेरुमणि अलग होता है । कुछ संप्रदायों में मणियों की संख्या भी अलग होती है, उदा. शैवपंथी ३२ मणियों की माला का उपयोग करते हैं । कुछ ग्रंथां में ‘जपमाला ९ मणियों की हो और उसके १२ चक्रों में से १०८ नामजप संख्या गिनी जाए’, ऐसा बताया गया है ।

३ आ.  जपमाला में निहित १०८ मणियों का आध्यात्मिक अर्थ

१. कुंडलिनीयोग के अनुसार हमारे शरीर में १०८ संवेदनाबिंदु हैं । जपमाला में निहित मणि उसके दर्शक हैं । उनका संबंध कुंडलिनीयोग से है ।

२. भक्तियोग के अनुसार श्रीविष्णु और शिव के १०८ नाम हैं । जपमाला में निहित मणि उसके दर्शक हैं ।

३. ज्ञानयोग के अनुसार ज्ञानदेवता और विद्याओं की संख्या १०८ हैं । जपमाला में निहित मणि उसके दर्शक हैं ।

३ इ. मेरुमणि

यह जपमाला में निहित मुख्य मणि है । नामजप करते समय मेरुमणि पार नहीं करते ।

३ ई. मेरुमणितक आनेपर माला उल्टी क्यों घूमाते हैं ?

१. जाप करने की क्रिया भूलने के लिए ऐसा किया जाता है ।

२. २ जिस प्रकार की बाईं ओर की इडा अथवा दाहिनी ओर से पिंगला नाडी नहीं, अपितु मध्य में स्थित सुषुम्ना नाडी का चालू रहना साधक की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है, उसी प्रकार केवल एक ही दिशा में माला को घूमाना साधक की दृष्टि से उचित नहीं है । इडा एवं पिंगला नाडियों के मध्य में सुषुम्ना नाडी होती है, उस प्रकार माला के उल्टे-सीधे घूमने के मध्य में मेरुमणि होता है । अज्ञानवश यदि मेरुमणि पार किया गया, तो प्रायश्चित के रूप में ६ बार प्राणायाम करना चाहिए ।

 

४. जपमाला से जाप करने की पद्धति

४ अ. माला को अपनी ओर खींचे

माला को अपनी ओर खींचने की अपेक्षा बाहरी दिशा में ढकेलनेपर क्या लगता है, इसकी अनुभूति लें । इससे अधिकतर लोगों को कष्टकारी अनुभूति होती है । इसका कारण यह कि अपनी ओर माला खींचते समय प्राणवायु कार्यरत होता है । बाहर की दिशा में माला को ढकेलने से समानवायु कार्यरत होता है । समान वायु की अपेक्षा जब प्राणवायु का कार्य चालू रहता है, तब अधिक आनंद मिलता है । (इन विविध वायुओं के विषय में विवरण सनातन का ग्रंथ ‘आध्यात्मिक उन्नति हेत हठयोग’ (भाग २) में दिया गया है ।)

४ आ. दाहिने हाथ में माला पकडकर निम्नांकित पद्धति से नामजप करते हैं ।

१. मध्य की ऊंगली के मध्य की बूटीपर माला रखकर उसके मणियों को अंगूठे से खींचे । माला को तर्जनी का स्पर्श नहीं होने देना चाहिए ।

२. अनामिकापर माला रखकर अनामिका और अंगूठे के अग्रों को एक-दूसरे से जोडें । उसके उपरांत मध्य की उंगली से माला खींचें । मध्य की ऊंगली से माला खींचना शरीरशास्त्र की दृष्टि से भी अधिक सुविधाजनक होता है ।

४ इ. मणियों के प्रकार

जिस देवता का नामजप होगा, उनके पवित्रक (सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण) खींचेने में सक्षम (क्षसम-to be deleted ) वाले मणियों की माला होनी चाहिए, उदा. शिवजी के नामजप के लिए रुद्राक्ष की और श्रीविष्णुजी के नामजप के लिए तुलसी की माला का उपयोग करें ।

नामजप साधना में आध्यात्मिक उन्नति के उद्देश्य के अनुसार सत्त्व, रज अथवा तमप्रधान मणियों का उपयोग करते हैं । इसमें श्रीविष्णु एवं श्रीराम इन देवताओं के लिए तुलसी की माला, शिव एवं हनुमानजी के लिए रुद्राक्ष की माला, दुर्गादेवी की उपासना के लिए मोती अथवा मूंगे की माला, श्री लक्ष्मीजी के लिए स्वर्ण की माला, त्रिपुरादेवी के लिए रक्तचंदन की माला और श्रीगणेशजी के नामजप के लिए हस्तिदंत की माला का उपयोग किया जाता है ।

 

५. मन ही मन नामजप करना

हम मन ही मन भी नामजप कर सकते हैं । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक सामर्थ्यवान होने से मन ही मन किया हुआ नामजप अधिक प्रभावशाली होता है ।

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