सत्संग ३ : साधना में होनेवाली चूकें

जैसे कि आजकल नित्य जीवन में अनेक स्थानों पर ‘Do’s’ And ‘Don’ts’ अर्थात क्या करना चाहिए और क्या नहीं’, यह लिखा होता है; तो व्यक्ति के लिए इन ‘Do’s and Don’ts’ की जानकारी होना लाभप्रद सिद्ध होता है । उसी प्रकार अध्यात्म में भी साधना करते समय क्या करना चाहिए और क्या टालना चाहिए, इसका भी ज्ञान अति आवश्यक होता है । सामान्यरूप से साधनामार्ग में कार्यरत व्यक्तियों से ४ प्रकार की चूकें होती हैं – अपने मन से साधना करना, सांप्रदायिक साधना में फंस जाना, गुरु बनाना और स्वयं को साधक समझना ! इन चूकों के कारण अनेक वर्ष साधना करने का प्रयास करने पर भी अपेक्षित आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती; इसलिए इन चूकों को टालना महत्त्वपूर्ण है ।

 

१. अपने मन से साधना करना

अनेक बार ऐसा दिखाई देता है कि लोग अपने मन से ही साधना करना आरंभ कर देते हैं । उनमें कोई तीर्थयात्रा के लिए जाते हैं, कोई ग्रंथवाचन अथवा पोथी वाचन करना आरंभ करते हैं, कोई उपवास रखते हैं, तो कोई और कुछ करते हैं । संक्षेप में बताना हो, तो ऐसे लोग उन्हें जो अच्छा लगे अथवा जो मन में आए, उसके अनुसार उपासना करते हैं । व्यवहारिक जीवन में हम हमारा भ्रमणभाष अर्थात मोबाइल फोन अथवा दूरचित्रवाणी संच (टीवी) बिगड जाए, तो उसे ठीक कराने के लिए उस क्षेत्र के जानकार व्यक्ति के पास जाते हैं । हमें कोई बीमारी हो, तो हम डॉक्टर के पास जाते हैं, न्यायालय का कोई काम हो, तो वकील के पास जाते हैं । अर्थात हम संबंधित क्षेत्र के जानकार व्यक्ति के बताए अनुसार करते हैं; परंतु जब बात अध्यात्म की आती है, तब हम क्या करते हैं ? आध्यात्मिक क्षेत्र के अधिकारी व्यक्तियों से मार्गदर्शन न लेकर मन से ही साधना आरंभ करते हैं । धर्म से संबंधित कुछ न करने की अपेक्षा यह भले ही अच्छा हो; परंतु ऐसा करना आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है ।

ऐसा भी दिखाई देता है कि अनेक लोग संतों द्वारा न बताए जाने पर भी संतों का नामजप करते हैं । हिन्दू धर्मशास्त्र में देवताओं के नामजप का विधान है, संतों के नामजप का नहीं; हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए । क्या ऐसा आपने कभी सुना है कि हमारे यहां किसी ने ऋषि-मुनियों के नाम का जप किया है ? नहीं न ! आज के समय के संतों ने भी कभी अपने नाम की उपासना करने के लिए नहीं कहा है, अपितु उन्होंने अपने भक्तों को देवताओं का नामजप करने के लिए ही कहा है । संत भले ही ईश्वर के सगुण रूप हों; परंतु संतों के कार्य को उत्पत्ति, स्थिति और लय का नियम लागू है । अर्थात संतों के देहत्याग के कुछ समय पश्चात उनकी प्रकट शक्ति का लय होता है । इसके विपरीत ईश्वर अनादि, अनंत, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं । इसलिए संतों का नाम जपने की अपेक्षा देवता के नामजप में अधिक सामर्थ्य है । इसलिए अपने ही मन से संतों का नामजप करना उचित नहीं है ।

अध्यात्म में अपने मन से ही साधना करने की चूक टालनी हो, तो हमें पूछकर लेने की वृत्ति अपनानी होगी । जब हममें ‘मुझे कुछ नहीं आता और मुझे अध्यात्म सीखना है’ यह वृत्ति उत्पन्न होती है, तभी जाकर कोई आध्यात्मिक अधिकारी व्यक्ति हमारे जीवन में आते हैं और हमारा मार्गदर्शन करते हैं । जब हमें समझ में आने लगता है, तब हमें ‘पूजा कैसे करनी है’, ‘मंदिर कैसे जाना है’, ‘ग्रंथवाचन कैसे करना है’ जैसी बातें हमें ज्ञात होने लगती हैं और उसके अनुसार हमारी साधना चलती रहती है; परंतु केवल वही साधना करते रहने के कारण हम पूरे जीवन में जहां थे, वहीं रह जाते हैं । जैसे कोल्हू का बैल वहीं पर घूमता रहता है, वैसी हमारी स्थिति बन जाती है । मान लीजिए किसी छात्र को जब ७ वीं कक्षा का पाठ्यक्रम समझ में आया और जीवनभर वह वही अध्ययन करता रहा, तो क्या वह उसके लिए उपयोगी होगा ? एक चरण समाप्त होने पर उसके अगले चरण में जाने का प्रयास किया, तो प्रगति होती है ।

पहली से दूसरी कक्षा में जाना, दूसरी से तीसरी में, उसके पश्चात माध्यमिक विद्यालय और उसके आगे महाविद्यालय और अंत में स्नातक बनना, ये जैसा चरणबद्ध क्रम है; वैसे ही अध्यात्म में है । साधना करते समय एक चरण की साधना करना संभव होने पर हमें साधना के अगले चरण जानकर उसे साध्य करने के लिए प्रयास करने चाहिए ।

 

२. सांप्रदायिकता

साधना की दूसरी चूक है सांप्रदायिक साधना में फंस जाना । हमने पहले सत्संग में ‘जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां और उतने साधनामार्ग’ अध्यात्म का यह मूलभूत सिद्धांत समझा । पृथ्वी पर ७०० करोड से अधिक लोग हैं, इसका अर्थ ७०० करोड से भी अधिक साधनामार्ग हैं; परंतु किसी भी संप्रदाय के अनुयायी को साधना का एक ही मार्ग ज्ञात होता है और वह उसी एक मार्ग से साधना करता है । अन्य साधनामार्ग उसे ज्ञात नहीं होते । संप्रदाय में सभी को एक ही साधना बताई जाती है; किंतु वही साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक होगी, ऐसा नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होने से सांप्रदायिक साधना करनेवाले कई लोगों की उनकी अपेक्षा के अनुरूप प्रगति नहीं होती । उन्हें अनुभूतियां भी कभी-कभी ही आती हैं । इस कारण उनकी विचार-प्रक्रिया इस प्रकार की हो सकती है कि ‘मेरा पूरा जीवन ही व्यर्थ गया’, ‘भगवान की इतनी उपासना करने पर भी मेरा कुछ अच्छा नहीं हुआ’, और अंतिमतः उस व्यक्ति का ईश्वर, साधना अथवा अध्यात्म के प्रति का विश्वास उठ जाता है । मान लीजिए कोई डॉक्टर है, और उसे केवल एक ही औषधि ज्ञात हो, तो क्या हम उसे डॉक्टर कहेंगे ? हम उसके पास जाएंगे भी नहीं । यही सांप्रदायिक साधना के संदर्भ में भी है ।

सांप्रदायिकता से होनेवाली और एक हानि है कि संप्रदाय के अनुयायियों को ‘मेरा ही संप्रदाय सर्वश्रेष्ठ है’, ऐसा लगने लगता है । आगे जाकर उनमें एक प्रकार का अहंभाव उत्पन्न होने लगता है । उनके मन में ‘हमारा संप्रदाय ही सर्वश्रेष्ठ है और अन्य सभी कनिष्ठ’ ऐसा भेदभाव उत्पन्न होता है । इसके कारण सर्वत्र समानभाव से देखना सांप्रदायिक साधना करनेवालों के लिए कठिन हो जाता है । इससे ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना तो दूर ही रहती है; उसके साथ अन्य संप्रदायों के प्रति भी अपनापन नहीं लगता । वास्तव में ‘अहंभाव नष्ट करना’ और ‘मन से व्यापक बनना’, साधना का उद्देश्य है; परंतु सांप्रदायिकता के कारण यह साध्य करना कठिन हो जाता है ।

अर्थात कुछ भी साधना न करने की अपेक्षा सांप्रदायिक साधना करने का अर्थ अध्यात्म की पहली सीढी चढने जैसा है; परंतु अध्यात्म में प्रगति करनी हो, तो सांप्रदायिक साधना में नहीं फंसना चाहिए ।

 

३. गुरु बनाना

साधना की अगली चूक है ‘गुरु बनाना !’ वास्तव में हमें गुरु बनाना ही नहीं होता है, अपितु गुरु ही अपने शिष्य को स्वीकारते हैं । हमारी आध्यात्मिक मर्यादाओं के कारण कोई व्यक्ति वास्तव में गुरु है क्या, यह हम समझ नहीं पाते । डॉक्टर, अधिवक्ता आदि के पास उनके स्नातक होने के प्रमाणपत्र होते हैं; परंतु जहां अध्यात्म शब्दों के परे का विषय है, वहां हम किसे प्रमाण मानें ? आजकल ९८ प्रतिशत लोग जो साधु-संत लगते हैं, वे पाखंडी ही होते हैं । ऐसी स्थिति में हम किसी को गुरु बनाएं इसके स्थानपर हमें शिष्य बनने का प्रयास करना चाहिए ।

शिष्य कैसे बनना है; इसके लिए आप समर्थ रामदासस्वामी लिखित ‘श्री दासबोध’ और सनातन का ग्रंथ ‘शिष्य’ में शिष्य के जो गुण दिए गए हैं, उसका अध्ययन कर सकते हैं । जब हममें शिष्य के गुण आते हैं, तब गुरु स्वयं ही हमारे जीवन में आते हैं । जैसे कोई छात्र बुद्धिमान होता है, तो शिक्षक स्वयं ही उसकी ओर विशेष ध्यान देते हैं; वैसे ही कोई व्यक्ति जब स्वयं में शिष्य के गुण विकसित करता है, तब गुरुतत्त्व ही उसे आगे का दिशादर्शन करता है ।

 

४. स्वयं को साधक मानना

साधना के पथ पर होनेवाली अगली चूक है ‘स्वयं को साधक समझना’ अध्यात्म में थोडा-बहुत कुछ किया, २-४ ग्रंथ पढे अथवा प्रतिदिन स्तोत्र पठन किए और पूजा की, तो कुछ लोगों को ‘मैं साधक हूं’, ऐसा लगने लगता है । इस विचार-प्रक्रिया के कारण साधना के प्रयास रुककर आध्यात्मिक उन्नति रुक सकती है । साधक किसे कहा जाता है, जो व्यक्ति प्रतिदिन २-३ घंटे उचित मार्ग से साधना करता है, उसे हम साधक मान सकते हैं ।

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