सत्संग २ : साधना के सिद्धांत एवं तत्त्व (भाग २)

१. स्तर के अनुसार साधना

साधना का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, स्तर के अनुसार साधना ! स्तर अर्थात अधिकार ‘अधिकार शब्द को यहां व्यावहारिक दृष्टिकोण से नहीं, अपितु आध्यात्मिक अर्थ से हमें समझना है । संत तुकाराम महाराजजी ने कहा है, ‘जैसा अधिकार वैसा उपदेश’ । आरंभिक अवस्था में जो साधना करना हमें संभव है, वही साधना करने का प्रयास करना चाहिए । जो संभव नहीं है, वह नहीं करना चाहिए । उदाहरणार्थ, ब्राह्ममुहुर्त पर जगकर शुचिर्भूत होकर साधना करने के लिए कहा गया है; परंतु आज की हमारी जीवनशैली के अनुसार आरंभिक अवस्था में हमें वैसा करना संभव नहीं है, तो हठपूर्वक वैसा करने का प्रयास न करें । उसकी अपेक्षा हम अधिकाधिक साधनारत अर्थात ईश्वर के स्मरण में कैसे रह सकते हैं, इसके लिए प्रयास करने चाहिए ।

ईश्वरप्राप्ति हेतु सबकुछ का त्याग करना पडता है; परंतु आज की हमारी स्थिति में हमें वह कठिन लगता है; इसलिए हमें जितना संभव है, उसके अनुसार हमें त्याग करने का प्रयास करना चाहिए । खाद्य पदार्थाें की रुचि-अरुचि, छोटी-छोटी इच्छा-आसक्तियों को त्यागना, अपनी आवश्यकताएं अल्प करना, किसी प्रसंग में अपने आग्रह को बाजू में रखकर दूसरों के विचार के अनुसार आचरण करने का प्रयास करना, मोह-माया के चक्र से अलिप्त रहना ऐसे प्रयास हम कर सकते हैं ! साधना कर जैसे-जैसे हमारा आध्यात्मिक स्तर बढता जाएगा, वैसे-वैसे हमें ईश्वर जैसा चाहते हैं, वैसे आचरण करना संभव होगा ।

अध्यात्म की परिभाषा में बताना हो, तो मोक्ष का अर्थ है १०० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर, तो निर्जीव वस्तुओं का स्तर ० प्रतिशत होता है । कलियुग में सर्वसामान्य व्यक्ति का स्तर २० प्रतिशत है । साधनामार्ग के अनुसार व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर कितना होता है, इसके कुछ सर्वसामान्य मापदंड हैं । २० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तरवाला व्यक्ति कोई साधना नहीं करता । ऐसे व्यक्तियों का अध्यात्म से दूर-दूर का संबंध नहीं होता । झगडा करना, भ्रष्टाचार करना अथवा मजे करने में ऐसे लोगों का जीवन चला जाता है । २५ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर का व्यक्ति थोडा-बहुत आस्तिक होता है । सामान्यरूप से २५ प्रतिशत स्तर का व्यक्ति मंदिर जाना, ग्रंथों का वाचन करना, उपवास रखना इत्यादि साधना करता है । उसे कर्मकांड में रुचि होती है । इसका अगला स्तर उपासनाकांड की साधना अर्थात नामस्मरण की साधना है । नामजप करनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर सामान्यतः ४० प्रतिशत होता है । ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर वाला व्यक्ति सत्संग में जाता है । सत्संग क्या है, सत् का सान्निध्य ! कोई व्यक्ति नियमितरूप से सत्संग में जाता हो, ग्रंथों का अध्ययन कर अधिकतर समय ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में रहता हो, तो उस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत होता है । ५५ प्रतिशत स्तर का व्यक्ति सत्सेवा करने लगता है और उसे गुरुप्राप्ति होती है; अर्थात गुरु शिष्य के जीवन में आकर उसका मार्गदर्शन करते हैं । ६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर होनेपर वह व्यक्ति जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है । ७० प्रतिशत आध्यत्मिक स्तर पर संतपद प्राप्त होता है ।

स्तर (प्रतिशत) साधना
२० नहीं
३० पूजा करना, मंदिर जाना, ग्रंथ पढना
४० नामजप करना
५० सत्संग
५५ सत्सेवा एवं गुरुप्राप्ति
६० जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति
७० संतपद

आध्यात्मिक स्तर की और एक विशेषता यह है कि मृत्यु के समय हमारा जितना आध्यात्मिक स्तर होता है, उस स्तर से ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा अगले जन्म में आरंभ होती है । बुद्धि के आधार से शिक्षा ग्रहण करते समय हम इस जन्म में वर्णमाला, संख्या आदि सीखते हैं; तब भी अगले मनुष्यजन्म में हमें पुनः अ, आ, इ, ई… से सिखना पडता है; परंतु अध्यात्म में ऐसा नहीं है । मृत्यु के उपरांत भी हमारा आध्यात्मिक बल हमारे साथ रहता है । जैसे-जैसे साधना योग्य पद्धति से होती जाती है, वैसे-वैसे हमारी आध्यात्मिक प्रगति होकर स्तर बढता है । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना है, यह खरे संत और सद्गुरु ही बता सकते हैं । हम जिस आध्यात्मिक स्तर पर हैं, उसी स्तर की साधना न कर उसके अगले स्तर की साधना करने से हमारी आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता मिलती है, उदा. ३० प्रतिशत स्तर के जिज्ञासु ने इसके अगले चरण की अर्थात नामजप और सत्संग के स्तर की साधना की, तो उसकी शीघ्र गति से आध्यात्मिक उन्नति होती है ।

 

२. काल के अनुसार साधना

साधना का अगला और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है काल के अनुसार साधना ! आज के कलियुग में नामस्मरण ही श्रेष्ठ साधना है । काल के अनुसार उचित साधना करने से उसका अधिकतम फल मिलता है । सत्ययुग में सभी लोग सात्त्विक एवं सोऽहं भाव में थे; इसलिए उस काल में ज्ञानयोग की साधना थी । उसके पश्चात के त्रेतायुग में ध्यानयोग की साधना की जाती थी । ऋषिमुनियों द्वारा अनेक वर्ष ध्यान लगाकर तपस्या करने के उदाहरण आपने सुने ही होंगे । द्वापरयुग में यज्ञयाग के माध्यम से कर्मकांड की साधना करने के लिए प्रधानता दी जाने लगी ।

आज के कलियुग में भक्तियोग की साधना है । कलियुग के अधिकांश संत भक्तिमार्गी हैं । संत मीराबाई, संत ज्ञानेश्वर महाराज, चैतन्य महाप्रभु, राघवेंद्र स्वामी, चिदंबर स्वामी जैसे अनेक उदाहरण बताए जा सकते हैं । भक्तियोग में ईश्वर की ९ प्रकार की भक्तियां बताई गई हैं । उनमें से स्मरणभक्ति सहज-सरल और अखंड करने योग्य साधना है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के १०वें अध्याय और २५वें श्लोक में बताया है , ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ।’, अर्थात ‘सभी यज्ञों में जपयज्ञ (नामजप) श्रेष्ठ है । संक्षेप में बताना हो, तो शास्त्रों में वर्तमान काल के लिए नामजप ही प्रमुख साधना बताई है; परंतु आज के काल में केवल नामसाधना ही पर्याप्त नहीं है । आज का यह काल एक प्रकार से धर्मसंस्थापना का काल है । पूरे विश्व के लोग आज हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं । धर्मसंस्थापना के इस समष्टि कार्य में हमारा भी यथाशक्ति सहभागी होना भी हमारी साधना ही है ।

हिन्दू धर्म में हमारी जो गुरुपरंपरा है, उसकी एक विशेषता यह है कि गुरु-शिष्य परंपरा ने केवल आध्यात्मिक शिक्षा ही नहीं दी, अपितु धर्मसंस्थापना के कार्य में भी अपना योगदान दिया है ।

महाभारत के युद्ध में गुरुरूप में स्थित श्रीकृष्ण ने शिष्यरूपी अर्जुन को बताया है, – ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥’, अर्थात ‘सज्जनों की रक्षा के लिए, दुर्जनों के विनाश के लिए और धर्मसंस्थापना हेतु मैं प्रत्येक युग में पुनःपुनः अवतार लेता हूं ।’ धर्मसंस्थापना के इसी आदर्श को सामने रखकर आर्य चाणक्य-चंद्रगुप्त, विद्यारण्यस्वामी-हरिहरराय एवं बुक्कराय, समर्थ रामदास्वामी-छत्रपति शिवाजी महाराज इत्यादि गुरु-शिष्यों ने धर्मसंस्थापना का ऐतिहासिक कार्य किया है । आनेवाले इस समय में हिन्दू राष्ट्र स्थापना हेतु इसी प्रकार का कार्य करना अपेक्षित है । नामस्मरण के साथ में धर्मसंस्थापना की दृष्टि से योगदान देना भी आज के काल के अनुसार आवश्यक साधना ही है ।

Leave a Comment