प्रवचन ३

नामजप और साधना केवल आध्‍यात्मिक उन्‍नति और मनःशांति के लिए ही नहीं की जाती, अपितु साधना का हमारे व्‍यावहारिक जीवन पर भी अच्‍छा परिणाम होता है । साधना करने से व्‍यक्‍तित्‍व आदर्श बनने में सहायता होती है, इसलिए आज अनेक बहुराष्‍ट्रीय व्‍यावसायिक प्रतिष्‍ठान भी (Multinational Companies) बुद्धयांक (Intelligent Quotient – I.Q.) और भावनांक (Emotional Quotient – E.Q.) के साथ ही अध्‍यात्‍मांक को अर्थात Spiritual Quotient को महत्त्व दे रहे हैं । अर्थात आज अध्‍यात्‍म को संपूर्ण संसार में यदि महत्त्व दिया जा रहा है, तो हमें भी उस ओर ध्‍यान देना चाहिए ।

 

१. अध्‍यात्‍म कृति का शास्‍त्र है !

‘ऑनलाइन प्रवचन शृंखला’ के माध्‍यम से हम अध्‍यात्‍म सीख रहे हैं । अध्‍यात्‍म में तात्त्विक जानकारी को केवल २ प्रतिशत महत्त्व है तथा सीखे हुए भाग पर प्रत्‍यक्ष कृति करने को ९८ प्रतिशत महत्त्व है । इससे संबंधित एक मार्मिक कथा है ।

एक बार एक पंडित नाव से नदी पार कर रहा था । उस नाव में वह पंडित और नाविक दोनों ही थे । पंडित ने नाविक को अनेक ग्रंथों के संदर्भ दिए और नाविक से पूछा कि क्‍या उसने उन ग्रंथों का अध्‍ययन किया है । नाविक के मना करने पर पंडित ने उससे कहा कि ग्रंथों का अध्‍ययन न करने के कारण तुम्‍हारा जीवन व्‍यर्थ हो गया है । इसी चर्चा के दौरान नाव में एक छिद्र हो गया था तथा नाव में पानी भरने लगा था । यह ध्‍यान में आने पर नाविक ने पंडित से पूछा ‘‘महाराज क्‍या आप तैरना जानते हैं ? हमारी नाव अब डूबनेवाली है ।’’तब पंडित बोला, ‘‘मैंने तैराकी पर अनके पुस्‍तकें पढी हैं और ज्ञान प्राप्‍त किया है; परंतु मुझे तैरना नहीं आता ।’’अर्थात ऐसी स्‍थिति में पंडित के केवल पुस्‍तक के ज्ञान का कुछ उपयोग नहीं हुआ । उसी प्रकार इस भवसागर से हमारी जीवननौका पार होने के लिए केवल शाब्‍द़िक ज्ञान तक सीमित न रहते हुए प्रत्‍यक्ष साधना करनी चाहिए ।

 

२. नामजप के लाभ

२ अ. बंधनरहित नामसाधना

 

नामजप का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लाभ है कि नामसाधना को स्‍थल-काल-समय, शौच-अशौच आदि का बंधन नहीं होता । इसे कर्मकांड के नियम लागू नहीं होते । यह केवल ईश्‍वर का स्‍मरण है । अर्थात यह भक्‍तियोग के उपासनाकांड की साधना है ।

२ आ. नामजप करने से प्रारब्‍ध सुसह्य होना

नामजप के कारण प्रारब्‍ध (अर्थात नसीब) सुसह्य होता है अथवा उसकी आंच कम होती है ।

२ इ. मन की एकाग्रता बढना

नामजप करने से देवता प्रसन्‍न होते हैं । मन की एकाग्रता बढती है । इसलिए विद्यार्थियों को भी पढने के लिए बैठने से पूर्व कुछ समय तक नामजप करना चाहिए ।

२ ई. नामजप से सद़्‍गुरु की प्राप्‍ति होना

व्‍यक्‍ति की आध्‍यात्मिक उन्‍नति होने के लिए गुरुकृपा आवश्‍यक होती है । समाज में कुछ स्‍थानों पर दिखाई देता है, ‘कुछ लोग गुरु बनाते हैं’; अर्थात कोई व्‍यक्‍ति अथवा संत मेरे गुरु हैं, ऐसा स्‍वयं कहते हैं अथवा वैसा मानकर चलते हैं; परंतु इस कहने अथवा मानने का कोई अर्थ नहीं होता । अध्‍यात्‍म में हमें गुरु नहीं करने होते, अपितु गुरु ने शिष्‍य के रूप में हमें स्‍वीकार करना होता है । नामस्‍मरण का महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि नाम के कारण सद़्‍गुरु की प्राप्‍ति होती है । ‘नाम सद़्‍गुरु से प्राप्त होना अच्‍छा है; परंतु सद़्‍गुरु नहीं मिले, तब भी नामस्‍मरण करते रहना चाहिए; क्‍योंकि वही नामस्‍मरण सद़्‍गुरु से मिलवाता है ।

२ उ. नाम के कारण आध्‍यात्‍मिक उन्‍नति शीघ्र होना

मोक्षप्राप्‍ति के अनेक मार्ग हैं । अध्‍यात्‍म में बताया है कि ‘जितने व्‍यक्‍ति उतनी ही प्रकृतियां तथा उतने ही साधनामार्ग ।’ नामजप करने से आध्‍यात्मिक उन्‍नति शीघ्र होती है ।

२ ऊ. अंत समय पर ईश्‍वर का नाम मुख में हो, तो सद़्‍गति मिलना

अंत समय पर ईश्‍वर का नाम लेते हुए मृत्‍यु आने पर उस व्‍यक्‍ति को मुक्‍ति मिलती है, ऐसा कहते हैं; परंतु मान लीजिए जीवनभर नामस्‍मरण ही नहीं किया हो अथवा साधना नहीं की हो, तो मृत्‍यु के समय ईश्‍वर के नाम का स्‍मरण कैसे होगा ? जीवन के अंतिम क्षण मुख में नाम लाना हो, तो जीवनभर नाम का स्‍मरण करना पडेगा ।

२ ए. नामजप से कर्म – अकर्म होना

हमने पिछले प्रवचन में कर्मफलसिद्धांत यह विषय देखा था । अच्‍छे कर्म करने से पुण्‍य मिलता है, तो बुरे कर्म करने से पाप भोगना पडता है । आध्‍यात्मिक उन्‍नति करनी हो, तो व्‍यक्‍ति को पाप-पुण्‍य से परे जाना पडता है । पाप-पुण्‍य से परे जाने के लिए कर्म – अकर्म होना चाहिए । अकर्म कर्म होने के लिए कोई भी कृत्‍य नामजप के साथ करना आवश्‍यक होता है । नामजप के कारण अनजाने में हुए पापकर्मों का क्षालन होता है ।

‘परमेश्‍वर के नाम में अनंत कोटि पाप जलाने का सामर्थ्‍य है । ‘नाम से जो पाप नहीं जल सकता, ऐसा पाप मनुष्‍य कर ही नहीं सकता’, ऐसा वचन हैं । यदि उस श्रद्धा से हम नामस्‍मरण करें, तो क्‍या ईश्‍वर हमारा उद्धार नहीं करेंगे ?

 

३. नामजप कैसे कार्य करता है ?

हमने अभी विविध स्‍तरों पर नामजप से होनेवाले लाभ देखे । अब हम यह समझ लेते हैं कि, नामजप कैसे कार्य करता है ।

३ अ. लिंगदेह

अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के अनुसार मनुष्‍यजीव स्‍थूलदेह और लिंगदेह से बना हुआ है । स्‍थूलदेह अर्थात हम जिसे शरीर कहते हैं । लिंगदेह आत्‍मा और आत्‍मा के आस-पास के माया के आवरण से बना होता है । सर्व सृष्‍टि, सजीव-निर्जीव वस्‍तुएं ईश्‍वर की निर्मिति है, यह तात्त्विक दृष्‍टि से यद्यपि हमें ज्ञात है, तथापि वैसा भान हमें निरंतर नहीं होता ।

३ आ. ‘अंतःकरण चतुष्‍टय’

मन, चित्त, बुद्धि और अहं को ‘अंतःकरण चतुष्‍टय’, कहते हैं । मन, बुद्धि, चित्त का कार्य अलग अलग है । वह हम समझ लेते हैं ।

३ आ १. मन

मन क्‍या करता है ? कहा जाता है ‘संकल्‍प विकल्‍पकात्‍मकं मनः ।’ अर्थात विचार करना मन का स्‍वरूप है । उसमें अच्‍छे विचार, बुरे विचार, इच्‍छा, वासना और भावनाएं अंतर्भूत होती हैं । मन चंचल होता है । ‘यह करूं कि वह करूं’, ऐसे विचार निरंतर रहते है; परंतु वह निर्णय नहीं ले पाता ।

४ आ २. बुद्धि

निर्णय लेने का कार्य बुद्धि का है । ‘निश्‍चयात्‍मिका बुद्धि: ।’ अर्थात निश्‍चय करना, योग्‍य और अयोग्‍य का विचार कर निर्णय लेना, यह बुद्धि का कार्य है । मन के विचारों के अनुरूप कृत्‍य होना अथवा न होना, यह बुद्धि पर निर्भर होता है । उदाहरणार्थ, कभी कभी हमारा मन दुविधा में पड जाता है । कोई कृत्‍य करें कि न करें ?, ऐसे विचार आते हैं । तब जो निर्णय लिया जाता है, वह बुद्धि से लिया जाता है ।

३ आ ३. चित्त

अब चित्त क्‍या है ?, तो स्‍मृतियों का भंडार होता है । हमारा शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि और अहं की सर्व वृत्तियों का संग्रह अर्थात स्‍मृतियां चित्त में संग्रहित होती हैं ।

३ आ ४. अहं

अहं अर्थात अहंकार ! ‘मैं’पन उत्‍पन्‍न करनेवाली अंतःकरण की वृत्ति को अहं कहते हैं । ‘ये मेरे कारण हुआ’, ‘मैंने अच्‍छी कृति की’, ‘मेरे जैसा और कोई नहीं कर पाता’, इस प्रकार के विचार और वृत्ति ही अहंकार है ।

३ इ. आधुनिक मानसशास्‍त्र के अनुसार मन के भाग

आधुनिक मानसशास्‍त्र के अनुसार मन के दो भाग हैं । ‘मन’, ऐसा हम जो सदैव उल्लेख करते हैं, वह बाह्यमन और दूसरा भाग अप्रकट होता है, वह अंतर्मन, अर्थात चित्त ! हमारा मन निरंतर कार्यरत रहता है । यदि हम किसी स्‍थान पर बैठे हुए हैं, कुछ कृति नहीं कर रहे हैं, तब भी मन में विचार चलते ही रहते हैं । मन की रचना और कार्य में बाह्यमन का केवल १० प्रतिशत तथा अंतर्मन का (चित्त का ) ९० प्रतिशत हिस्‍सा होता है ।

बाह्यमन (Conscious mind) अर्थात जागृत मन । स्‍थायी विचार और भावनाओं का संबंध बाह्यमन से होता है । अंतर्मन (Unconscious mind) को ही आध्‍यात्‍मिक परिभाषा में ‘चित्त’ कहते हैं ।

अंतर्मन अर्थात सर्व भाव-भावनाओं, विचार-विकारों का एक गोदाम ही होता है । इस गोदाम में सभी प्रकार के अनुभव, भावना, विचार, इच्‍छा-आकांक्षा आदि सबकुछ संग्रहित रहता है । अंतर्मन के भी २ विभाग होते हैं । एक है ऊपरी परत और निचली परत ! अंतर्मन की ऊपरी परत में अर्थात subconscious mind में हमारे शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि और अहं द्वारा होनेवाले कृत्‍य तथा उनकी वृत्ति की भिन्‍न भिन्‍न स्‍मृतियां, भिन्‍न भिन्‍न संस्‍कारकेंद्रों में संग्रहित रहती हैं और वे विचारों के रूप में प्रकट होती रहती हैं । हमारी इच्‍छा के अनुसार उन्‍हें बाह्यमन में ला सकते हैं ।.

अंतर्मन की निचली परत अर्थात unconscious mind मेें सर्व स्‍मृतियों का संग्रह होता है; परंतु गहराई में संग्रहित होने के कारण उसका स्‍मरण भी नहीं होता और हमारी इच्‍छा के अनुसार उन्‍हें बाह्यमन में नहीं लाया जा सकता; परंतु विशिष्‍ट प्रसंगों अथवा घटना के कारण अंतर्मन में गहराई से अंकित स्‍मृति पुनः बाह्यमन में आ सकती है ।

३ ई. अंतर्मन के संस्‍कार केंद्र

अंतर्मन में अलग अलग प्रकार के संस्‍कार केंद्र होते हैं ।

अंतर्मन के वासना केंद्र में व्‍यक्‍ति की वासना, इच्‍छा-आकांक्षा, अपेक्षा संग्रहित होती हैं । रुचि-अरुचि केंद्र में व्‍यक्‍ति की रुचि-अरुचि से संबंधित संस्‍कार होते हैं । स्‍वभाव केंद्र में व्‍यक्‍ति के स्‍वभाव के गुण उदा. प्रामाणिकता, तत्‍परता और दोष, उदा. क्रोध करना, आलस्‍य के संस्‍कार संग्रहित होते हैं । विशिष्‍ट केंद्र में कला, खेल आदि से संबंधित संस्‍कार संग्रहित होते हैं ।

व्‍यवहार में ‘संस्‍कार’ इस शब्‍द का अर्थ अच्‍छे आचार, विचार और कृति ऐसा होता है । आध्‍यात्‍मिक दृष्‍टि से ‘संस्‍कार’ का अर्थ है हमारी वृत्ति और हमारे द्वारा कृत्‍यों के अंतर्मन में उभरनेवाले निशान । अच्‍छी बातों के समान ही बुरी बातों के भी संस्‍कार होते हैं, उदा. ईश्‍वर का नामजप करने का संस्‍कार होता है, उसी प्रकार अपशब्‍द बोलने का भी संस्‍कार होता है ।

कोई विचार अथवा कृत्‍य बार बार हो रहा हो, तो ये संस्‍कार अधिकाधिक दृढ होते हैं और चित्त में स्‍थिर हो जाते हैं । इसी जन्‍म के नहीं अपितु पूर्व सभी जन्‍मों के संस्‍कार अंतर्मन की गहराई तक अंकित होते हैं । प्रत्‍येक संस्‍कार व्‍यक्‍ति को जन्‍म-मृत्‍यु के बंधन में डालता है ।

३ ऊ. नामजप का संस्‍कार दृढ होने के लाभ

नामजप निरंतर करने से व्‍यक्‍ति के मन में नामजप का संस्‍कारकेंद्र दृढ होता है तथा अन्‍य संस्‍कार केंद्र क्षीण होते हैं ।

नामजप का संस्‍कार प्रबल होने लगता है, तब मन के निरर्थक अथवा अनावश्‍यक विचार नष्‍ट होने लगते हैं । मन को लगने लगता है कि, ऐसे विचार करने की अपेक्षा नामजप करना चाहिए । इसका लाभ यह होता है कि निरर्थक विचारों के कारण खर्च होनेवाली मन की शक्‍ति बचती है और मन एकाग्र होने लगता है ।

नामजप में अर्थात ईश्‍वर के आंतरिक सान्‍निध्‍य में मन रमने लगता है । जिससे माया की आसक्ति अथवा व्‍यवहारिक आवश्‍यकताओं के विचार कम होने लगते हैं । अर्थात मन में लोभ का संस्‍कार क्षीण होता है । नामजप में रुचि उत्‍पन्‍न होने के कारण माया का रुचि-अरुचि का संस्‍कार क्षीण होता है । उस संबंध में विचार कम होते हैं ।

आगे नामजप सांस से जुडकर होने लगता है तथा मनुष्‍य वर्तमान काल में रहने लगता है । इसलिए भूतकाल के प्रसंग, पूर्वग्रह, भविष्‍य की चिंता आदि से संबंधित संस्‍कार क्षीण होकर मन वर्तमानकाल के कर्तव्‍य के संबंध में तत्‍पर बनता है ।

इस प्रकार नामजप का संस्‍कार मन पर जैसे जैसे दृढ होते जाता है, वैसे वैसे व्‍यक्‍ति में अच्‍छा परिवर्तन होता है । इस प्रकार नामजप मन के स्‍तर पर कार्य करता है ।

 

४. सत्‍संग की जानकारी और महत्त्व

नामस्‍मरण साधनामार्ग का प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण चरण है; परंतु केवल शीघ्र आध्‍यात्मिक उन्‍नति के लिए उतना करना ही पर्याप्‍त नहीं है, अपितु साधना के आगामी चरण भी आत्‍मसात करना आवश्‍यक है । उस दृष्‍टि से सनातन संस्‍था द्वारा इस प्रवचन माला के उपरांत अगले सप्‍ताह से तुरंत ‘ऑनलाइन’ सत्‍संग शृंखला प्रारंभ हो रही है ।

सत्‍संग अर्थात सत् का संग । सत् अर्थात ईश्‍वर ! संग अर्थात सहवास ! कीर्तन अथवा प्रवचन में जाना, मंदिर में जाना, तीर्थक्षेत्र में रहना, संतलिखित आध्‍यात्‍मिक ग्रंथों का वाचन, अन्‍य साधकों के सान्‍निध्‍य में आना, संत अथवा गुरु के पास जाना आदि के कारण अधिकाधिक अच्‍छा सत्‍संग प्राप्‍त होता है ।

साधना में प्रयत्नपूर्वक किए हुए नामजप का कुल महत्त्व ५ प्रतिशत है । सत्‍संग और संतसहवास का महत्त्व ३० प्रतिशत है । सत्‍संग का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि मन की शंकाआें-प्रश्‍नों का उत्तर सत्‍संग में मिलने से साधना में गति आती है । मन में साधना के प्रति विकल्‍प निर्माण हुआ हो, तो वह समाप्‍त होने में सहायता होती है । सत्‍संग के कारण अनुभूतियां होती हैं । अनुभूतियों से साधना पर श्रद्धा बढने में सहायता होती है । जो नामजप अन्‍य समय प्रयत्नपूर्वक करना पडता है, वह सत्‍संग में अपनेआप होता है । सत्‍संग के कारण व्‍यक्‍ति के सत्त्वगुण में वृद्धि होती है । सत्‍संग नामजप का अगला चरण है । उस दृष्‍टि से ‘ऑनलाइन साधना सत्‍संग’ लिये जाते है ।

इन सत्‍संगों में साधना के प्रायोगिक अंग सिखाए जाएंगे । संक्षेप में साधना में आनेवाली बाधाओं पर विजय कैसे प्राप्‍त करें, मन पर नियंत्रण कैसे प्राप्‍त करें, मन की एकाग्रता कैसे साध्‍य कर सकते हैं, अध्‍यात्‍म पर कृति कैसे की जाए और आध्‍यात्मिक उन्‍नति के लिए प्रतिदिन कैसी साधना करनी चाहिए, इस संबंध में दिशादर्शन किया जाएगा । धर्म कहता है कि, ८४ लक्ष जीवयोनियों में मनुष्‍ययोनी दुर्लभ है । इसलिए मनुष्‍य जन्‍म की सार्थकता ईश्‍वरप्राप्‍ति में ही अर्थात मोक्षप्राप्‍ति में ही है । साधना के कारण ही संसारचक्र से मुक्‍ति मिलकर मोक्षप्राप्‍ति होती है । इसलिए आप सबसे निवेदन है कि आप अगले सप्‍ताह से प्रारंभ होनेवाले इन सत्‍संगों में उपस्‍थित रहिए । एक अच्‍छा साधक बनने के लिए और आध्‍यात्मिक उन्‍नति के लिए आपको सत्‍संगों से व्‍यक्‍तिगत मार्गदर्शन किया जाएगा । इस सत्‍संग में समय समय पर मन की शंकाएं, अडचनें, प्रश्‍नों का भी सत्‍संगों में निरसन किया जाएगा ।

आप सबके साथ सत्‍संग से व्‍यक्‍तिगत संवाद साधना संभव होता है ।

आपको इस साधना सत्‍संग से जुडना है तो नीचे दिए लिंक पर अपना नाम रजिस्‍टर करें ।

https://events.sanatan.org/

इन सत्‍संगों का लाभ लेकर ईश्‍वर का भक्‍त बनने के मार्ग पर मार्गक्रमण करने की प्रत्‍येक को प्रेरणा मिले, साधनामार्ग की सर्व बाधाएं दूर हों, ऐसी ईश्‍वर के चरणों में प्रार्थना । तब तक आप साधना के प्रयत्न के भाग स्‍वरूप कुलदेवी और भगवान दत्त का नामजप अधिकाधिक श्रद्धापूर्वक करने का प्रयत्न करें ।

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