१. सुख-दुख
१ अ. सुख-दुख का स्वरूप
हममें से प्रत्येक व्यक्ति ने सुख के क्षण और दुख का भी अनुभव किया है । प्रत्येक व्यक्ति के प्रयास भले ही सुख की प्राप्ति के लिए होते हों; परंतु अधिकांश समय हमें दुख ही मिलता है, ऐसा हमारा अनुभव रहता है । सर्वसामान्यरूप से आज के काल में मनुष्य जीवन में औसतन सुख २५ प्रतिशत और दुख ७५ प्रतिशत होता है । अधिकांश लोगों को आनंद कैसे प्राप्त करना होता है, यह ज्ञात नहीं होता; इसलिए प्रत्येक व्यक्ति पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के द्वारा थोडे समय तक ही क्यों न हो; परंतु सुख प्राप्त करने का, साथ ही दुख को टालने का प्रयास करता है । अर्थात वह क्या करता है ? तो कोई प्रिय पदार्थ खाना, प्रिय स्थान पर घूमने के लिए जाना, कोई पंसदीदा शौक चलाना जैसे कृत्य कर सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो शारीरिक व्याधियों पर औषधियां लेना, दूरचित्रवाणी संच खराब होने पर उसे ठीक करवाना जैसे कृत्य कर दुख टालने का प्रयास करता है; परंतु इनसे शाश्वत सुख नहीं मिलता । संत तुकारामजी ने इसका वर्णन ‘सुख देखा, तो राई जितना और दुख पर्वत जितना ॥’, इन मार्मिक शब्दों में किया है । स्वामी विवेकानंदजी ने भी कहा है कि सुख और दुख एक ही सिक्के के २ पहलू हैं । सभी को केवल सुख ही चाहिए होता है; परंतु कोई भी सुख कंटीले मुकुट धारण कर ही आता है ।
१ आ. सुख-दुख के कारण
हम जिस आनंदस्वरूप ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, उसकी ओर अग्रसर होने का आकर्षण प्रत्येक व्यक्ति में अल्पाधिक मात्रा में होता है । उसके लिए अब हम सुख-दुख के कारण कौन से होते हैं और दुखनिवारण का क्या उपाय है, इसे जानेंगे । सुख-दुख के कारण शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक होते हैं । शारीरिक स्तर का दुख जैसे शरीर को कोई बीमारी होना, किसी ने हमारे साथ धोखाधडी की अथवा किसी ने हमारे साथ अनुचित पद्धति से बात की, तो हमारे मन को बुरा लगता है । यह मानसिक स्तर का दुख होता है । बहुत प्रयासों के उपरांत भी निरंतर असफलता मिलना, विवाह न होना जैसी घटनाओं के कारण होनेवाले दुख का कारण आध्यात्मिक होता है ।
१ इ. दुखनिवारण का वास्तविक उपाय
दुख का कारण आध्यात्मिक हो, तो उसके निवारण के लिए आध्यात्मिक स्तर के ही उपाय करने पडते हैं । किंतु दुख का कारण आध्यात्मिक है, इसे बुद्धि से कैसे पहचानें ?, कुछ लक्षणों के आधार पर हम इसका अनुमान लगा सकते हैं । किसी परिवार में कई लोगों को कष्ट होते हैं, उदा. एक परिवार में एक लडका मनोरोगी था, दूसरे के विवाह के १०वें दिन ही पति-पत्नी अलग हो गए, तीसरे ने शिक्षा अधूरी छोडी; तो दिखने में सुंदर, स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त और अच्छा वेतन पानेवाली लडकी का विवाह ही नहीं हो रहा था । उनके माता-पिता के मन पर इसका बहुत तनाव आ रहा था । इस प्रकार का कुछ हो अथवा बहुत प्रयास करने के उपरांत भी अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिलती हो, तो उस दुख का कारण अधिकतर आध्यात्मिक ही होता है । संक्षेप में कहा जाए, तो जिस दुख के कारण का विश्लेषण बुद्धि से करना संभव नहीं होता, ऐसा दुख आध्यात्मिक स्वरूप का होता है और इस आध्यात्मिक दुख के निवारण के लिए साधना करना ही आवश्यक होता है ।
१ ई. सकाम एवं निष्काम साधना
धर्म ऐसे बताता है कि मनुष्यजन्म की सार्थकता मोक्षप्राप्ति में ही है । मोक्षप्राप्ति हेतु शरीर, मन और/ अथवा बुद्धि से प्रतिदिन न्यूनतम २-३ घंटे जो प्रयास किए जाते हैं, उसे साधना कहते हैं । साधना के भी २ प्रकार हैं । एक है सकाम साधना तो दूसरी निष्काम साधना ! सकाम साधना का अर्थ व्यक्तिगत अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए, उदा. परिवार का कल्याण हो, विवाह निश्चित होने में आनेवाली बाधाएं दूर हों आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जानेवाली साधना, तो निष्काम साधना का अर्थ है बिना किसी अपेक्षा के भगवान की भक्ति करना !
सकाम साधना करने से इच्छा की पूर्ति होती है, तो निष्काम साधना से आध्यात्मिक उन्नति होकर कामनापूर्ति भी हो सकती है; क्योंकि भगवान का यह वचन है, ‘मैं मेरे निष्काम भक्त की कामनाएं पूरी करता हूं ।’ सकाम साधना करनेवाले को सकाम का अर्थात व्यावहारिक फल मिल सकता है; परंतु उससे ईश्वरप्राप्ति नहीं होती । मनुष्यजीवन का लक्ष्य तो मोक्षप्राप्ति है । साधना निष्काम हुई, तभी मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य साध्य होता है ।
२. कर्मफलसिद्धांत
हिन्दू धर्म में २ सिद्धांत बताए गए हैं । पहला है कमफलसिद्धांत, तो दूसरा है पुनर्जन्मसिद्धांत ! कर्मफलसिद्धांत बताता है, कि किए हुए प्रत्येक कर्म का फल व्यक्ति को भुगतना पडता है । उदा. माता-पिता की सेवा करना, मंदिर में दान देना आदि कर्मों के कारण पुण्य मिलता है और अन्यों से झूठ बोलना, दूसरों का उपहास करना, चोरी करना आदि कर्मों से पाप होता है । पुण्यप्राप्ति के फलस्वरूप सुख मिलता है, तो पाप के कारण दुख भोगना पडता है । समझो, किसी व्यक्ति ने चोरी की और वह यदि पकडी नहीं गई, तो उस चोर को लौकिक जीवन में दंड नहीं मिलेगा, वह उससे बच जाएगा; परंतु ईश्वर के दरबार में नहीं बचेगा । भगवान के पास अच्छे-बुरे प्रत्येक कर्म का संज्ञान लिया जाता ही है । ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति की काया, मन और वाणी से होनेवाले प्रत्येक अच्छे-बुरे कृत्य का हिसाब रखते हैं ।
२ अ. कर्म का फल उद्देश्य पर भी निर्भर !
कर्म का फल कर्म करनेवाले के उद्देश्य पर भी निर्भर होता है । किसी गुंडे द्वारा किसी व्यक्ति का पैर काटना और किसी डॉक्टर का उसकी शल्यक्रिया के रूप में उसका पैर काटना, इसमें कृत्य भले ही एक जैसे हों; परंतु उद्देश्य भिन्न होते हैं । गुंडे का उद्देश्य व्यक्ति को कष्ट पहुंचाना होता है, तो डॉक्टर का उद्देश्य उसे बीमारी से स्वस्थ बनाना होता है । इस प्रकार कर्म का फल उसके उद्देश्य पर भी निर्भर होता है ।
२ आ. कलियुग में प्रारब्ध का अनुपात ६५ प्रतिशत, तो क्रियमाण कर्म का अनुपात ३५ प्रतिशत
हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है । व्यक्ति द्वारा हुआ पुण्यकर्म और पापकर्म व्यक्ति को इसी जन्म में भोगना पडेगा, ऐसा नहीं है, अपितु कभी-कभी वह उसे अगले जन्मों में भी भोगना पडता है । सामान्यरूप से हम पिछले कर्म का फल इस जन्म में भोगते हैं । पिछले जन्म के कर्म फल को ‘प्रारब्ध’ कहते हैं, जिसे हम व्यावहारिक भाषा में ‘नसीब’ कहते हैं । अध्यात्म यह बताता है कि कलियुग में मनुष्य के जीवन में होनेवाली ६५ प्रतिशत घटनाएं प्रारब्धाधीन होती हैं और ३५ प्रतिशत क्रियमाण कर्म अर्थात प्रयास व्यक्ति के हाथ में होते हैं । इसका अर्थ जीवन की ६५ प्रतिशत घटनाएं पिछले जन्म के कर्मों के फल के रूप में पाले में आती हैं ।
उदाहरण के तोर पर, मान लेें २ छात्र एक ही वर्ष समान अंक प्राप्त कर स्नातक की परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं, उनमें से एक को तुरंत नौकरी मिलती है, तो दूसरे को उसके लिए कडा संघर्ष करना पडता है । २ जुडवां बच्चों में से एक सुदृढ होता है, तो दूसरे को शारीरिक बीमारियां होती हैं । हमने ऐसे अनेक उदाहरण अपने आजूबाजू में देखें होंगे अथवा उनका अनुभव किया होगा । ‘ऐसा क्यों होता है ?’, आधुनिक विज्ञान इसका उत्तर नहीं दे पाता । व्यक्ति के प्रयास सुखप्राप्ति के लिए होते हुए भी व्यक्ति के पाले में दुख क्यों आता है, इसका उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता; किंतु अध्यात्म में इसका उत्तर मिलता है । व्यक्ति के पाले में आनेवाले दुख का कारण पूर्वजन्म के पापकर्म हो सकते हैं ।
३. साधना का महत्त्व
३ अ. साधना के कारण प्रारब्ध सुसह्य होना
इससे किसी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि ‘यदि जीवन की घटनाओं पर प्रारब्ध का ही प्रभाव रहनेवाला हो, तो साधना करने से क्या लाभ मिलेगा ?’ इसका उत्तर यह है कि यदि व्यक्ति को अपने प्रारब्ध के भोग भोगकर ही समाप्त करने पडते हों, तब भी साधना करने से ये भोग भोगना सुसह्य होते हैं । जिस प्रकार शल्यक्रिया करने से पूर्व बेहोश किए जाने से शरीर को शल्यक्रिया का भान नहीं होता अथवा पीडा नहीं होती, उसी प्रकार साधना के कारण प्रारब्धभोग भोगने के लिए बल मिलता है । साधनाबल के कारण दुख, दुख नहीं लगता । इसके विपरीत दुखों का पहाड टूटने पर भी भगवान भक्त की रक्षा करते हैं, हमें इसकी अनुभूति हो सकती है । इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण हैं संत मीराबाई ! उनकी कृष्णभक्ति उनके ससुराल के लोगों को पसंद नहीं थी; इसलिए उन्होंने उनकी हत्या के अनेक प्रयास किए । उन्होंने मीराबाई को विष भी दिया; परंतु मीराबाई की उच्च कोटि की भक्ति के कारण उन पर उस विष का कोई परिणाम नहीं हुआ । साधना का बल और भक्ति हो, तो भगवान किस प्रकार प्रारब्ध सुसह्य कर देते हैं अथवा उसकी तीव्रता नष्ट करते हैं, इसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है । इस उदाहरण के साथ ही मनुष्य के पास उपलब्ध ३५ प्रतिशत क्रियमाण उसके प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर सकता है, इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए ।
३ आ. जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने हेतु साधना आवश्यक
जिस प्रकार शैक्षणिक प्रगति होने हेतु शिक्षा लेनी पडती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति होने के लिए साधना करनी पडती है । आध्यात्मिक उन्नति होकर मुक्ति मिलने तक आत्मा का पुनः-पुनः जन्म होता है । मान लें कोई व्यक्ति पूरे जीवन पुण्यकर्म कर रहा हो; परंतु उसने साधना नहीं की, तो क्या वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पाएगा ?, तो इसका उत्तर है ‘नहीं’ ! क्योंकि उस व्यक्ति को मृत्यु के उपरांत अच्छे कर्मों के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है । पुण्यबल का संग्रह रहनेतक वह वहां रहता है और पुण्यबल समाप्त होने पर उसे पिछले जन्मों का प्रारब्ध भोगने के लिए पृथ्वी पर पुनर्जन्म लेना पडता है । पापकर्म करनेवाले व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन होता है और मृत्यु के उपरांत उसे तुरंत मनुष्ययोनि में जन्म नहीं मिलता, अपितु उसे कीडा, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि ८४ लाख कनिष्ठ योनियों में जन्म लेना पडता है । इस प्रकार साधना न करने से ‘पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्…’ का चक्र चलता ही रहता है ।
३ इ. मनुष्य का जन्म बार-बार होने के कारण
मनुष्य का जन्म २ कारणों से बार-बार होता है । पहला कारण प्रारब्धभोगों को भोगकर समाप्त करना और दूसरा है मोक्षप्राप्ति हेतु साधना कर जन्म-मृत्यु के चक्र से स्वयं को मुक्त करवाकर लेना; परंतु हम इस पर ध्यान ही नहीं देते; अपितु हमें इस संदर्भ में कुछ ज्ञात भी नहीं होता । उसके कारण अनेक लोगों का जीवन घर, बंगला, गाडी, नौकरी, पैसे आदि में ही उलझकर रह जाता है ।
अच्छी साधना के तपोबल से, साथ ही संतों की कृपा के कारण प्रारब्ध नष्ट होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है अर्थात मृत्यु के उपरांत पृथ्वी पर पुनः जन्म लेना नहीं पडता । साधना करनेवाले व्यक्ति को मृत्यु के उपरांत सद़्गति प्राप्त होती है अर्थात मृत्यु के उपरांत स्वर्ग लोक से भी आगे के लोकों में अर्थात महा, जन, तप और सत्य इन उच्चलोकों में आगे की साधना कर मोक्षप्राप्ति की जा सकती है । यही साधना का महत्त्व है ।
कर्मफलसिद्धांत अथवा पुनर्जन्मसिद्धांत के प्रति किसी में श्रद्धा हो अथवा न हो, किसी को कर्म फल चाहिए अथवा नहीं; परंतु प्रत्येक व्यक्ति को वह मिलता ही है !
अभीतक के विवेचन से यह बात आपके ध्यान में आई होगी कि हमारे पाले में आनेवाला सुख-दुख अधिकतर हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है । पाप-पुण्य से परे जाकर मोक्षप्राप्ति साध्य करनी हो, तो उसके लिए साधना के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है । अब हम कालानुरूप साधना का एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक भाग जानकर लेंगे ।
कलियुग में नामस्मरण ही साधना है । अनेक स्थानों पर यह दिखाई देता है कि अनेक लोग अपने प्रिय देवता का नामस्मरण करते हैं । लिया हुआ एक भी नाम व्यर्थ नहीं जाता; इसलिए इष्टदेवता का नामस्मरण करना उचित ही है; परंतु उसके साथ कालानुरूप कुलदेवता का नामस्मरण करना भी आवश्यक होता है ।
४. कुलदेवी के नामजप का महत्त्व
४ अ. कुलदेवी के नामजप से आध्यात्मिक उन्नति होना
हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए जिस देवता की उपासना आवश्यक होती है, भगवान उसी कुल में हमें जन्म देते हैं । उस देवता को कुल की कुलदेवी अथवा कुलदेवता कहते हैं । ‘कुलदेवता’ शब्द ‘कुल’ और ‘देवता’ शब्दों से मिलकर बना है । कुल के जो देवता हैं वह हैं कुलदेवता ! कुलदेवता की उपासना करने से मूलाधारचक्र में व्याप्त कुंडलिनीशक्ति जागृत होती है अर्थात आध्यात्मिक उन्नति आरंभ होती है ।
४ आ. कुलदेवी के नामस्मरण के कारण नामधारक को ब्रह्मांड के सभी देवी-देवताओं के तत्त्व का लाभ मिलना
ब्रह्मांड के सभी तत्त्व पिंड में आने से साधना पूरी होती है । श्रीविष्णु, शिव और श्री गणपति जैसे देवताओं की उपासना से संबंधित देवता का विशिष्ट तत्त्व बढता है; परंतु ब्रह्मांड में व्याप्त सभी तत्त्वों को आकर्षित करने और उन सभी में ३० प्रतिशततक वृद्धि करने का सामर्थ्य केवल कुलदेवता के नामजप में है । जिस प्रकार विटामिन ए, बी, सी, डी आदि में से कौन से विटामिन का अभाव होने पर संबंधित विटामिन की गोलियां खाने से उतना विटामिन बढता है; परंतु डॉक्टर ने ‘मल्टीविटामिन’ की गोली दी, तो उसमें सभी प्रकार के विटामिन होने के कारण शरीर में जो विटामिन अल्प है, वह बढता है । कुलदेवी का नामस्मरण उस ‘मल्टीविटामिन’ की भांति हमारे शरीर में जिस देवता का तत्त्व अल्प है, उसे बढाने में सहायक होता है ।
इसके अतिरिक्त कुलदेवता पृथ्वीतत्त्व के देवता होने से उनकी उपासना से साधना आरंभ करने से नामजप करनेवाले को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता ।
जिन्हें कुलदेव और कुलदेवी दोनों हैं, वे कुलदेवी के नामजप को प्रधानता दें । माता और पिता दोनों पास में होने पर भी शिशु पहले मां को पुकारता है, यह वैसा ही है ।
४ इ. कुलदेवता का नामजप कैसे करना चाहिए ?
देवता के नाम से पूर्व ‘श्री’ लगाएं, नाम को चतुर्थी का प्रत्यय लगाएं और अंत में ‘नमः’ बोलें, उदा. कुलदेवी भवानीमाता हो, तो ‘श्री भवानीदेव्यै नमः ।’ बोलें । कुलदेवी यदि रेणुकादेवी हो, तो ‘श्री रेणुकादेव्यै नम: ।’ नामजप करें ।
अपने कुल में केवल कुलदेवता ही हों, तो देवता के नाम से पूर्व ‘श्री’ लागाएं, नाम को चतुर्थी का प्रत्यय लगाएं और अंत में ‘नमः’ बोलें, उदा. कुलदेवता श्री व्यंकटेश हों, तो ‘श्री व्यंकटेशाय नमः ।’ नामजप करें । इसी प्रकार कुलदेवता श्री गणेश हों, तो ‘श्री गणेशाय नमः ।’ नामजप करें ।
आजकल अनेक लोगों को अपने कुलदेवता ही ज्ञात नहीं होते हैं । ऐसे समय वे ‘श्री कुलदेवतायै नमः ।’ नामजप करें । श्रद्धा के साथ यह नामजप करने पर निश्चितरूप से कुलदेवता का नाम बतानेवाला कोई मिल ही जाता है, यह अनुभूति अनेक लोगों ने ली है ।
विवाह एक प्रकार से स्त्री का पुनर्जन्म ही है, इसलिए विवाहित स्त्री को अपने ससुराल के कुलदेवता का नामजप करना चाहिए ।
अपने कुलदेवता का नामजप प्रतिदिन न्यूनतम १ से २ घंटे और अधिक के अधिक निरंतर करना चाहिए । पहले के प्रवचन में बताए अनुसार नामजप के लिए शौच-अशौच, सुवेर-सूतक, स्थल-काल का कोई बंधन न होने से यह नामजप हम किसी भी समय कर सकते हैं । अपने उपलब्ध समय के अनुसार यह नामजप बैठकर करना चाहिए । उसके साथ ही व्यक्तिगत कार्य करने के समय, रसोई बनाते समय, टीवी अथवा मोबाईल देखते समय, यात्रा के समय जहां-जहां संभव हो, वहां नामस्मरण करने का प्रयास करना चाहिए ।
४ ई. साधना की अखंडता केवल नामस्मरण से ही संभव
अनंतस्वरूप परमेश्वर के साथ एकरूप होने हेतु अखंडित अर्थात २४ घंटे साधना होनी चाहिए । ज्ञानयोग के अनुसार वेद एवं उपनिषद का अध्ययन, कर्मयोग के अनुसार ध्यान-धारणा, त्राटक, प्राणायाम, भक्तियोग की भांति देवतापूजन, भजन, कीर्तन २४ घंटे करना संभव नहीं होता; परंतु नामस्मरण २४ घंटे किया जा सकता है । साधना की अखंडता केवल नामस्मरण से साधी जा सकती है; इसलिए उसे सर्वोत्तम साधना माना जाता है । इस सप्ताह हम मन:पूर्वक और एकाग्रता के साथ कुलदेवी का नामजप करने का प्रयास करेंगे ।
Bahut achhi jankari
बहुत बहुत अच्छी जानकारी
अत्यंत सुंदर जानकारी
नमस्ते दिव्यांशु जी,
आपको यह विषय पसंद आया जानकार आनंद हुआ | क्या आपने भी आपके कुलदेवता का नामजप करना प्रारम्भ किया है? कुछ दिनों तक निरंतर नामजप करने के उपरांत आपको कैसे लगा हमें अवश्य बताए |
आपकी,
सनातन संस्था