लेख के इस भाग में हम गरखा और छकुंड (चक्रमर्द) इन २ वनस्पतियों की जानकारी समझते हैं ।
८. वनस्पतियों की जानकारी पढते समय उपयुक्त कुछ सूचनाएं
अ. आगे दी हुई वनस्पतियों की जानकारी में वनस्पति का लैटिन नाम और कुल भी दिया है । ये आधुनिक वनस्पति शास्त्र की संज्ञा हैं । इनके द्वारा अंतरजाल पर (इंटरनेट पर) इन वनस्पतियों से संबंधित अधिक जानकारी खोजना सरल होता है ।
आ. आरंभ में औषधीय वनस्पतियों के उपयोग दिए हैं । प्रौढ व्यक्तियों के लिए वनस्पतियों के चूर्ण आदि का उपयोग साधारणतः कितनी मात्रा में करना चाहिए, यह उसके आगे के उपसूत्र में दिया है । ३ से ७ आयुवर्ग के लिए प्रौढ मात्रा का चौथाई तथा ८ से १४ आयुवर्ग के लिए प्रौढ मात्रा की आधी मात्रा में औषधि लें ।
इ. औषधि की उपयुक्तता के अनुसार ४ व्यक्तियों के परिवार के लिए ताजी (सूखी हुई नहीं !) वनस्पति कितनी मात्रा में एकत्रित करनी चाहिए, यह यहां दिया है । यह केवल दिशादर्शक अनुमान है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार वनस्पतियां संग्रहित करे ।
ई. जहां औषधि की मात्रा चम्मच में दी है, वहां मध्यम आकार का चम्मच लें ।
९. वर्षा ऋतु में प्राकृतिक रूप से उगनेवाली और उसके उपरांत सूख जानेवाली औषधि वनस्पतियां
९ अ. मुर्गा फूल
९ अ १. वैकल्पिक हिन्दी नाम : गरखा, मोरशिखा
९ अ २. संस्कृत नाम : शितिवार
९ अ ३. लैटिन नाम : Celosia argentea
९ अ ४. कुल : Amaranthaceae
९ अ ५. उपयोग
अ. औषधीय उपयोग
१. यह वनस्पति सर्व प्रकृति के लोगों के लिए उपयुक्त और किसी भी प्रकार की हानि न करनेवाली है ।
२. पथरी और मूत्र की समस्याआें पर यह नामी औषधि है । पथरी के लिए बीज अधिक उपयुक्त है । पथरी तथा रुका हुआ मूत्र होने के लिए १ चम्मच मिश्री के साथ १ चम्मच बीज खाएं ।
३. इस वनस्पति का गुणधर्म शीतल है तथा यह शरीर में किसी भी कारण से बढी हुई उष्णता अल्प करनेवाली है । खसरा, छोटी माता (चिकन पॉक्स), हार्पिस (नागिन) आदि विकारों से शरीर में उत्पन्न उष्णता, एलोपैथी औषधियों के कारण होनेवाली उष्णता, आंखें आना (आईफ्लू), मुंहासे, शरीर पर फुंसियां होना, खूनी बवासीर, मासिक धर्म अथवा अन्य समय योनिमार्ग से अधिक रक्तस्राव होना, मूत्र में जलन तथा चक्कर आना जैसी उष्णता के विकारों में अत्यधिक उपयुक्त है ।
४. यह रक्त (हीमोग्लोबिन) बढाने और थकान दूर करनेवाली है । इसमें लौह, चूना (कैल्शियम), जस्ता (जिंक), पोटाश (पोटेशियम) आदि खनिज विपुल मात्रा में होते हैं । इसकी सब्जी भोजन में रखनी चाहिए ।
५. आंखों के विकार, अतिसार (जुलाब), सफेद पानी (ल्यूकोरिया) की शिकायत, त्वचा विकार तथा घाव भरने के लिए इसके पांचों भागों का चूर्ण खाना चाहिए ।
६. धातुपुष्टता के लिए (वीर्यवृद्धि के लिए) १ चम्मच बीज १ कटोरी दूध और २ चम्मच घी के साथ लीजिए ।
७. भांग और गांजे का नशा उतरने के लिए इस वनस्पति की जडें ठंडे पानी में घिसकर देते हैं ।
८. बीमारी से उठने पर स्नान के पानी में यह वनस्पति डालकर पानी गरम करें तथा यह गरम पानी छानकर उससे स्नान करें ।
आ. भोजन में उपयोग
१. इसके कोमल पत्तों की सब्जी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है । आपातकाल में अनाज के अभाव में भोजन में इसका उपयोग कर सकते हैं ।
२. बीज से खाद्य तेल निकाला जा सकता है ।
९ अ ६. वनस्पति की पहचान
वर्षा ऋतु के अंत में मार्ग के किनारे तथा जंगल में यह वनस्पति बडी मात्रा में दिखाई देती है । कमर की ऊंचाई तक बढनेवाली इस वनस्पति के सिरे पर सफेद और गुलाबी रंग के शंकु के आकार के फूल होते हैं । (छायाचित्र देखें ।) इन फूलों में राई से छोटे आकार के काले रंग के बीज होते हैं । यह लाल भाजी के कुल की वनस्पति है ।
९ अ ७. एकत्रित किए जानेवाले भाग
अ. साधारणतः ५ किलो जड सहित पूर्ण वनस्पति एकत्रित कर उसका चूर्ण बनाकर रखें ।
आ. बोरी भरकर फूल एकत्रित करें । फूल एकत्रित करने से पहले कुछ फूल हाथों से मसलकर उसके बीजों की परिपक्वता की निश्चिति कर लें । परिपक्व बीज काले रंग के होते हैं । फूल तोडने पर उन्हें बिना धोए धूप में सुखाकर हाथों से मसलें अथवा लाठी से पीटकर उनके बीज एकत्रित करके रखें । आवश्यकता प्रतीत हो, तो बीज धोकर धूप में सुखाकर रख सकते हैं ।
इ. बीज निकालने के उपरांत फूलों का चूरा अलग निकालकर उसका उपयोग स्नान के जल में डालकर करें ।
९ अ ८. मात्रा
अ. १ चम्मच पंचांग चूर्ण (पूर्ण वनस्पति का चूर्ण) दिन में २ – ३ बार एक कटोरी पानी में मिलाकर पीएं ।
आ. १ चम्मच बीज एक कटोरी पानी के साथ पीएं ।
इ. उपलब्ध हो, तो इस वनस्पति के पत्तों की सब्जी भोजन में रखें ।
९ अ ९. रोपाई
‘यह वनस्पति सदैव उपलब्ध होने के लिए अपने आंगन अथवा छत पर इसकी रोपाई कर सकते हैं । इसका बीज रोपने के पश्चात ५ से ७ दिनों में अंकुरित होता है । ३० से ४० दिनों में सब्जी हेतु उत्तम पत्ते मिलते हैं । ८० से ९० दिनों में बीज परिपक्व हो जाता है । कोमल पत्ते तोडते रहने से बीज विलंब से मिलते हैं । सब्जी के लिए इस वनस्पति की रोपाई करनी हो, तो अच्छी खाद और पानी देने से अच्छी गुणवत्ता के पत्ते मिलते हैं । १० × १० मीटर के परिसर में रोपाई करने से एक बार में १० से १५ किलो पत्ते सब्जी हेतु मिलते हैं ।
९ अ १०. वनस्पति का उपयोग किसे नहीं करना चाहिए ?
इस वनस्पति के बीज पेट में जाने पर आंखों की पुतलियां कुछ मात्रा में फैल जाती हैं । इसलिए जो कांचबिंदु (ग्लूकोमा) से पीडित हैं, वे इस बीज का सेवन न करें ।’ (संदर्भ : http://tropical.theferns.info/viewtropical.php?id=Celosia+argentea) (१६.११.२०२०)
९ आ. चक्रमर्द
९ आ १. वैकल्पिक हिन्दी नाम : छकुंड
९ आ २. संस्कृत नाम : चक्रमर्द, एडगज
९ आ ३. लैटिन नाम : Senna tora, Senna obtusifolia
९ आ ४. कुल : Fabaceae
९ आ ५. उपयोग
अ. औषधीय उपयोग
१. इसका संस्कृत नाम है ‘चक्रमर्द’ । ‘चक्र’ अर्थात ‘गजकर्ण/दाद’ । ‘मर्द’ अर्थात नष्ट करनेवाली वनस्पति, इसलिए इसे ‘चक्रमर्द’ कहते हैं । खुजली, दाद आदि फफूंद द्वारा उत्पन्न त्वचा के रोगों में (फंगल इन्फेक्शन में) इसका रस दिन में ३ – ४ बार त्वचा पर लगाने से ये रोग ठीक हो जाते हैं ।
२. ‘चक्रमर्द का रस शरीर पर (विशेषतः पेट, नितंब, स्तन, गला आदि अवयवों पर) मलने से अथवा पंचांग का (पूर्ण वनस्पति का) चूर्ण उबटन के समान शरीर पर रगडने से अनावश्यक मेद (चरबी) अल्प होकर शरीर सुडौल बनता है । अधिक लाभ के लिए प्रतिदिन सूर्यनमस्कार करें ।
३. चक्रमर्द का रस और बेसन का मिश्रण त्वचा पर मलकर
लगाएं । इससे त्वचा कोमल और दिव्य बनती है । अनावश्यक तैलीय, कालापन तथा ढीलापन अल्प होते हैं । रस के अभाव में चक्रमर्द का चूर्ण और बेसन के मिश्रण का उपयोग करें ।
४. जिनके पेट में कृमि होते हैं, वे २ चम्मच चक्रमर्द का बीज चबाकर खाएं और एक घंटे पश्चात २ चम्मच अरंडी पीकर आधी कटोरी गरम पानी पीएं । इससे कृमि निकल जाते हैं ।
५. अधिक खांसी आना, छाती में कफ होना, सांस फूलना, शरीर भारी होना, ग्लानि रहना आदि अवस्था में चक्रमर्द के बीजों का २ चम्मच चूर्ण ४ कप पानी में उबालकर १ कप काढा बनाएं । काढा बनाते समय उसमें तुलसी के दो पत्ते और काली मिर्च के दो दाने पीसकर डालें । यह गरम काढा घूंट-घूंट करके पीएं । इससे सफेद और झागवाले कफ निकल जाते हैं ।
६. शरीर पर सफेद दाग दिखाई देना, शरीर पर खुजली होना, सर्दी की पुनरावृत्ति, खांसी आना आदि लक्षण होने पर चक्रमर्द के पत्तों की सब्जी और मिस्सा की रोटी खाएं ।
७. चक्रमर्द का तेल : चक्रमर्द का रस १ लीटर, गोमूत्र २ लीटर, हलदी चूर्ण २५ ग्राम, मुलेठी का चूर्ण २५ ग्राम और तिल का तेल १ लीटर आदि घटक एकत्रित कर केवल तेल शेेष रहने तक मंद आंच पर उबालें । तेल ठंडा होने पर बोतल में भरकर रखें और उसमें २ ग्राम अजवायन के फूल का बारीक चूर्ण डालकर बोतल का ढक्कन लगाएं और बोतल हिलाकर तेल में घुलने दें । (अजवायन का फूल आयुर्वेदिक औषधि की दुकान में मिलता है । वह न मिले, तो उसके स्थान पर भीमसेनी कर्पूर का उपयोग करें ।) इस तेल का उपयोग बाह्य उपचार के लिए करें ।
अ. सर्व प्रकार के त्वचारोगों में, विशेषतः जिस त्वचा के रोग में पानी बहना, गीलापन, खुजली आदि लक्षण हों, उन रोगों में यह अत्यधिक उपयुक्त है ।
आ. योनिमार्ग में खुजली, तथा उसमें से निकलनेवाले चिपचिपे स्राव आदि में, इस तेल में कपास डुबोकर रात को सोते समय योनिमार्ग में रखें ।
इ. आग, गरम पानी, भाप, बिजली का झटका आदि के कारण जले हुए घाव में यह तेल अत्यधिक लाभदायक है । जले हुए स्थान पर पानी न लगने दें ।
ई. खरोंच आने/छिलने, घाव आदि में यह तेल लगाने से लाभ होता है ।
उ. मेद अर्थात चरबी की मात्रा कम करने के लिए इस तेल से मर्दन (मालिश) करनी चाहिए ।’ (संदर्भ : आहार रहस्य (भाग ३ और ४), लेखक : वैद्य रमेश मधुसूदन नानल)
आ. भोजन में उपयोग
१. बीज भूनकर बनाए गए चूर्ण का उपयोग कॉफी के विकल्प के रूप में कर सकते हैं । इसका स्वाद कॉफी के समान होता है । कॉफी के कारण होनेवाले दुष्परिणाम इस चूर्ण से नहीं होते । यह चूर्ण कफ और श्वसनसंस्था के रोग अल्प करनेवाला है । स्वास्थ्य के लिए चाय अथवा कॉफी के स्थान पर चक्रमर्द के चूर्ण का उपयोग लाभदायक है ।
२. कोमल पत्तों की सब्जी अच्छी बनती है । आपातकाल में अनाज के अभाव में भोजन के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं ।
९ आ ६. वनस्पति की पहचान
इस वनस्पति से सभी परिचित हैं । वर्षा ऋतु में बडी संख्या में मार्ग के किनारे ये पेड उगते हैं । इसके कोमल पत्तों की सब्जी बनाकर खाते हैं । ये पेड कमर तक ऊंचे होते हैं । इसके फूल पीले रंग के होते हैं । इन पेडों पर हंसिए के समान साधारणतः अर्धगोलाकार फलियां लगती हैं । वर्षा ऋतु के उपरांत ये फलियां सूखकर मिट्टी के रंग की हो जाती हैं । इन फलियों में मेथी के दानों के समान बीज होते हैं ।
९ आ ७. वनस्पति के एकत्रित करने योग्य अंग और बननेवाली औषधियां
अ. साधारणतः २ किलो जड सहित पूर्ण वनस्पति एकत्रित कर उसका चूर्ण बनाकर रखें । बाह्य उपचारों के लिए इसका उपयोग करें ।
आ. पेड पर सूख रही फलियों को कैंची द्वारा धीरे से काटकर एकत्रित करें । फलियां हिलने से उसके बीज फैल सकते हैं । साधारणतः २ से ४ किलो (अथवा संपूर्ण वर्ष में हमारे लिए जितनी चाय की पत्ती अथवा कॉफी के चूर्ण की आवश्यकता होती है, उतने किलो) फलियां एकत्रित कर उन्हें धूप में अच्छे से सुखाएं । उनका बीज अलग करें । फलियों के छिलके फेंक दें और बीज धूप में अच्छे से सुखाएं । सूखे हुए बीज कढाई में धीमी आंच पर भूनकर ठंडा होने पर उनका चूर्ण बनाकर रखें ।
इ. तेल बनाना हो, तो पर्याप्त रस मिलने के लिए जड सहित वनस्पति एकत्रित करें । वर्षा ऋतु में पत्ते ताजे होने से अधिक रस निकलता
है । वर्षा समाप्त होने पर वनस्पति सूख जाती है, इसलिए अधिक पानी डालकर रस निकालें ।
९ आ ८. मात्रा
बीजों का चूर्ण १ से २ चम्मच (कॉफी बनाने की मात्रानुसार)
९ आ ९. रोपाई
रोपाई करने की आवश्यकता नहीं होती । प्रकृति में वर्षा ऋतु में यह वनस्पति बडी मात्रा में दिखाई देती है; परंतु कुछ देशों में इस वनस्पति की रोपाई की जाती है । रोपाई करनी हो, तो एक बर्तन में कुनकुना पानी लेकर उसमें चक्रमर्द के सूखे हुए बीज डालें और १२ घंटे गलने दें । उसके पश्चात बोएं । इससे अधिक अंकुरित होते हैं ।
९ आ १०. वनस्पति का उपयोग किसे नहीं करना चाहिए ?
अ. चक्रमर्द के बीज का उपयोग एक बार अधिक मात्रा में न करें । इससे वमन अथवा अतिसार (जुलाब) हो सकता है ।
आ. कुछ स्थानों पर चक्रमर्द के बीज का तेल निकालते हैं; परंतु इसका उपयोग भोजन में न करें । इससे आंतों को हानि पहुंचकर विविध रोग उत्पन्न हो सकते हैं ।
इ. चक्रमर्द के पुराने पत्ते पचने में भारी होते हैं । इसलिए उन्हें नहीं खाना चाहिए ।’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१८.११.२०२०)
Jan Kalyan
very interesting