१. साधना का सिद्धांत – जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां और उतने ही साधनामार्ग !
साधना का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है ‘जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां और उतने साधनामार्ग !’ ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग जैसे साधना के अनेक मार्ग हैं । प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार उसके मोक्षप्राप्ति के मार्ग भी अलग होते हैं । ऐसे समय में सभी को एक ही प्रकार की अथवा एक ही मार्ग से उपासना करने का आग्रह रखना अनुचित होता है । प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी प्रकृति के अनुसार साधना की, तो उसकी आध्यात्मिक उन्नति तीव्रगति से होती है ।
एक ही परिवार के सभी लोग अलग-अलग प्रकृति के अर्थात अलग-अलग मार्ग से साधना करनेवाले हो सकते हैं, उदा. मुझ में ईश्वर के प्रति श्रद्धा है; मुझे भगवान के प्रति आकर्षण है, तो मैं भक्तिमार्गी हुआ । मेरे पिता का भगवद़्गीता का अध्ययन है । उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढना और उनके मनन-चिंतन में रुचि है, तो वे ज्ञानमार्गी हो गए । मेरे पति का/ पत्नी का सहजता से ध्यान लगता है, तो वह ध्यानमार्गी हुई । मान लीजिए मेरा बेटा लगन के साथ हिन्दुत्व का कार्य कर रहा है, तो वह कर्ममार्गी हुआ । इसका अर्थ हमारा परिवार तो है; परंतु उनमें से प्रत्येक सदस्य की प्रकृति और साधनामार्ग अलग है । ऐसे समय मैंने मेरे ज्ञानमार्गी पिता से ‘फिल्ड’ पर जाकर अर्थात प्रत्यक्ष सडक पर उतरकर हिन्दुत्व का कार्य करने के लिए कहा, तो क्या उन्हें वह संभव होगा ? अथवा कर्ममार्गी बेटे को ‘तुम प्रतिदिन ध्यान लगाकर बैठो’, ऐसा बताया तो क्या वह उसे संभव होगा ? परंतु प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार साधना की, तो उनकी साधना मनःपूर्वक होगी; इसलिए जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग’ कहा गया है ।
प्रत्येक व्यक्ति के मार्ग भले ही अलग-अलग हों, तब भी प्रकृति के अनुसार साधनामार्गों के साथ सभी साधनामार्गों में निहित सर्वसमावेशी उचित साधना की, तो उससे तीव्र गति से आध्यात्मिक उन्नति होती है । किसी भी साधनामार्ग के अनुसार साधना की, किंतु गुरुकृपा के बिना उन्नति नहीं होती । इसके लिए सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने तीव्र गति से आध्यात्मिक उन्नति करानेवाला सर्वसमावेशी गुरुकृपायोग बताया । गुरुकृपायोग कोई सांप्रदायिक शब्द नहीं है । अध्यात्म में प्रगति के लिए गुरुकृपा ही आवश्यक होती है । यह शब्द उस दृष्टि से है । गुरुकृपायोग में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का सुंदर संगम है ।
‘जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां, उतने व्यक्ति, उतने साधनामार्ग’ सिद्धांत समझने के उपरांत अब हम गुरुकृपायोग में निहित साधना के प्रमुख तत्त्व कौन से हैं ?, प्रत्यक्ष साधना का आरंभ करते समय कौन सी बातें ध्यान में लेनी आवश्यक है ?, इसे समझते हैं । अधिकतर लोगों को साधना के तत्त्व ज्ञात नहीं होते । इस कारण अयोग्य साधना करने में उनके जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ होने की संभावना होती है । साधना कर स्वयं में अपेक्षित बदलाव प्रतीत न होने से उनके द्वारा साधना बीच में ही छोड देने की भी संभावना होती है । ‘मैंने ईश्वर का इतना कुछ किया; परंतु तब भी मेरे जीवन में अमुक प्रसंग क्यों आया ?’, जैसी अनुचित विचारप्रक्रिया होने की भी संभावना होती है । वैसा न हो; इसके लिए हम साधना के कुछ मुलभूत मार्गदर्शक तत्त्व समझेंगे ।
२. साधना के तत्त्व
२ अ. रुचि एवं क्षमता के अनुसार साधना
साधना का पहला तत्त्व है ‘रुचि और क्षमता के अनुसार साधना’ । इस विश्व में कभी भी २ व्यक्ति एक जैसे नहीं होते । प्रत्येक व्यक्ति का शरीर, मन, बुद्धि, रुचि-अरुचि, गुण-दोष, आशा-आकांक्षाएं, वासना, संचित-प्रारब्ध ये सभी अलग-अलग हैं । मनुष्य की देह जिन पंचतत्त्वों से बनी है, वे पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश, ये प्रत्येक में निहित तत्त्व भी अलग हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति अलग और क्षमता अलग होने के कारण ईश्वरप्राप्ति हेतु साधनामार्ग भी अनेक हैं ।
रुचि और क्षमता के अनुसार साधना का अर्थ हम जो कुछ कर सकते हैं, उसे ईश्वर के चरणों में अर्पण करना अर्थात उस माध्यम में साधना करना । हमारी प्रकृति और पात्रता के अनुरूप साधना करने से ईश्वरप्राप्ति शीघ्र होने में सहायता मिलती है, उदा. किसी की आवाज अच्छी है और उसे गाने में रुचि हो और ऐसे में उसे श्रीकृष्ण का चित्र बनाने के लिए कहा जाए, तो क्या उसे वह संभव होगा ? इसके विपरीत उसे यदि ‘तुम श्रीकृष्णजी का कोई गीत गाओ’, ऐसा कहा गया, तो वह उसे अधिक मन से कर सकेगा । समझो कोई व्यक्ति तकनीकी दृष्टि से कुशल है, तो क्या उसके लिए ‘फेसबुक’, ‘ट्वीटर’, ‘इ-मेल’ का उपयोग अच्छे प्रकार से करना संभव होगा अथवा उसे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए कहा, तो वह रुचि से करेगा ?, तो इसका उत्तर स्वाभाविकरूप से ‘सोशल मीडिया’ के माध्यम से अध्यात्मप्रसार, होगा । संक्षेप में कहा जाए, तो व्यक्ति की रुचि और क्षमता के अनुसार साधना की, तो आध्यात्मिक उन्नति तीव्र गति से होती है ।
२ आ. अनेक से एक में जाना
साधना का दूसरा तत्त्व है अनेक से एक में जाना ! परमेश्वर एक है और इस संसार में जो है, वह अनेकानेक है । इस सब से हमें एक परमेश्वर की ओर जाना है, यह हमें सदैव ध्यान में रखना चाहिए । अब इसे कैसे साध्य करना है, यह समझेंगे ।
१. देवताओं की उपासना
हमने पिछले प्रवचनों में कुलदेवता के नामजप का महत्त्व समझा था । जिस कुल के कुलदेवता अर्थात कुलदेव अथवा कुलदेवी, हमारी आध्यात्मिक उन्नति के लिए अत्यंत उपयुक्त होते हैं, उसी कुल में ईश्वर ने हमें जन्म दिया है । इसलिए अनेक देवताओं की उपासना करने की अपेक्षा एक कुलदेवता की उपासना करना लाभदायी है । कोई व्यक्ति अनेक देवताओं की उपासना करता है, उदा. शनिवार को हनुमानजी के मंदिर में जाता है, गुरुवार को गुरुचरित्र का परायण करता है, शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत रखता है, दासबोध पढता है, भगवद़्गीता और ज्ञानेश्वरी का परायण करता है । देवताओं की उपासना करना अच्छा ही है; परंतु उससे अधिक अच्छा क्या है, तो एक ही कुलदेवता अथवा इष्टदेवता की भक्ति करना । इसका कारण यह है कि अध्यात्म में एकनिष्ठा चाहिए । ‘अनेक से एक में जाना’ तत्त्व से यह सुसंगत हुआ ।
दूसरी बात यह है कि अध्यात्म में हमारी रुचि-अरुचि का कोई महत्त्व नहीं है । मान लें, किसी व्यक्ति को क्षयरोग अर्थात टी.बी. हुआ और वह कहे, ‘मुझे सल्फा की गोलियां अच्छी लगती हैं, मुझे पेनिसिलीन का इंजेक्शन अच्छा लगता है; इसलिए मैं वह लेता हूं ।’ तो उसमें इसका कोई उपयोग नहीं होगा; क्योंकि उससे क्षयरोग के जीवाणु नहीं मरते । उसके लिए ‘आइसोनेक्स’ ही लेना पडता है । उसी तरह यह है । ‘मुझे गणेशजी अच्छे लगते हैं अथवा साईबाबा अच्छे लगते हैं’, अध्यात्म में इस प्रकार की रुचि-अरुचि का विशेष महत्त्व नहीं है । रुचि-अरुचि से आगे जाकर शास्त्र के अनुसार साधना करने से ही आध्यात्मिक उन्नति तीव्र गति से होती है ।
२. पूजाघर
पूजाघर के संदर्भ में भी अनेक से एक तत्त्व लागू होता है । कुछ घरों में यह दिखाई देता है कि पूजाघर में ८-१० अथवा उससे भी अधिक देवताओं की मूर्तियां होती हैं । कभी-कभी एक ही देवता की एक से अधिक मूर्तियां अथवा प्रतिमाएं होती हैं, उदा. ‘बांसुरी बजानेवाले मुरलीधर कृष्ण की मूर्ति होती है, आशीर्वाद की मुद्रा में स्थित श्रीकृष्ण की दूसरी प्रतिमाा होती है और बालकृष्ण भी होते हैं अथवा ‘शिवलिंग और शिवजी का कोई चित्र भी होता है । कई बार ऐसे होता है कि लोग किसी तीर्थस्थान अथवा धार्मिक स्थान पर जाते हैं, वहां से वापस लौटते समय देवता की नई मूर्ति लाकर पूजाघर में रखी जाती है । उसके कारण पूजाघर में देवताओं की मूर्तियों की अथवा प्रतिमाओं की संख्या अधिक होती है । यहां ध्यान में रखनेवाली बात यह कि देवता की एक मूर्ति से जो तत्त्व मिलता है, वही दूसरी मूर्ति से भी मिलता है । देवताओं की संख्या अधिक होने से ईश्वरीय तत्त्व भी अधिक मिलेगा, ऐसा नहीं होता, यह ध्यान में रखना चाहिए ।
शास्त्र के अनुसार पूजाघर में श्री गणपति, कुलदेवता, कुलाचार के अनुसार स्थित बालकृष्ण, हनुमान, और श्री अन्नपूर्णा देवी और शिव एवं श्री दुर्गादेवी जैसी किसी एक देवी की उपासना करते हों, तो वह; बस इतने ही देवी-देवता होने चाहिए ।
पूजाघर की रचना कैसी होनी चाहिए, तो पूजाघर के मध्य में गणपति का चित्र अथवा मूर्ति रखनी चाहिए । हम मनुष्य जो भी बोलते हैं, वह सब शब्दजन्य होता है । वह नादभाषा होती है, तो देवताओं की प्रकाशभाषा होती है । हमारी नादभाषा का देवों की प्रकाशभाषा में और देवताओं की प्रकाशभाषा का नादभाषा में रूपांतर करने का कार्य गणपति करते हैं । पूजाघर में हमारी दाहिनी ओर स्त्रीदेवताओं के, उदाहरणार्थ, अन्नपूर्णा, कुलदेवी के चित्र अथवा मूर्ति एक के पश्चात एक क्रम से हों और हमारी बाईं ओर पुरुषदेवताओं के, उदाहरणार्थ, बालकृष्ण, हनुमान के चित्र अथवा मूर्ति एक के पश्चात एक रखें । यह रचना शंकू के आकार में हो । पूजाघर के देवताओं की सुयोग्य रचना किस प्रकार होनी चाहिए, यह आपको चित्र में भी दिखाई दे रहा होगा ।
अब किसी के मन में यह प्रश्न उठेगा कि समझो पूजाघर में अधिक संख्या में देवताओं की मूर्तियां हैं, तो उनका क्या करें ? यदि अतिरिक्त मूर्तियां पीतल अथवा पत्थर से बनी हों, तो उनका बहते पानी में विसर्जन करें और यदि मूर्तियां काष्ठ अर्थात लकडी की हों, तो उन्हें अग्नि में विसर्जित करें ।
पूजाघर में देवताओं की रचना के संदर्भ में सनातन ने ‘पूजाघर और पूजा के उपकरण’ ग्रंथ भी प्रकाशित किया है । इस ग्रंथ में पूजाघर और पूजा में उपयोग में लाए जानेवाले उपकरणों के शास्त्रीय महत्त्व की विस्तृत जानकारी दी गई है । यह ग्रंथ www.sanatanshop.com जालस्थल पर भी ऑनलाइन क्रय करने हेतु उपलब्ध है ।
२ इ. स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना
अध्यात्म में स्थूल गतिविधियों की अपेक्षा सूक्ष्म के कृत्यों की ओर जाने का अधिक महत्त्व है । इसे समझने हेतु हम स्थूल और सूक्ष्म क्या होता है, यह देखेंगे । स्थूल का अर्थ जो हमारी पंचज्ञानेंद्रियां अर्थात नाक, जीभ, आंखें, त्वचा और कान को जो प्रतीत होता है वह स्थूल और सूक्ष्म का अर्थ पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि से परे की संवेदनाएं ! अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है स्थूल से भी श्रेष्ठ सूक्ष्म होंता है । विज्ञान की भाषा में बताना हो, तो सामान्य बम से अणु बम और अणु बम से भी परमाणु बम अधिक शक्तिशाली होता है । उसी प्रकार स्थूल से भी अधिक शक्ति सूक्ष्म में होती है । हमने महाभारत, रामायण जैसे ग्रंथों से अथवा ग्रंथों पर आधारित धारावाहिकों में देखा है कि जब सामान्य बाण निरुपयोगी सिद्ध होते थे, तब मंत्र का उच्चारण कर अथवा देवता का स्मरण कर बाण छोडा जाता था, जो अधिक प्रभावशाली सिद्ध होता था । अध्यात्म के संदर्भ में विचार करना हो, तो ईश्वर अथवा ईश्वरीय तत्त्व सूक्ष्मतम अर्थात अत्यंत सूक्ष्म है, तो हम जीवनभर यदि स्थूल मूर्ति अथवा चित्र की पूजा करते रहें, तो हम उस सूक्ष्मतम ईश्वरीय शक्तितक कैसे पहुंच सकेंगे ? स्थूल से सूक्ष्म की दिशा में अग्रसर होने हेतु जिज्ञासु स्थूल पूजा के साथ ही मानसपूजा भी करें । शरीर से देवालय अथवा तीर्थयात्रा के लिए जाने की अपेक्षा वहां मन से जाने का प्रयास करें । इस प्रकार सूक्ष्म से साधना करने की एक बार आदत पडी, तो एक दिन हम निश्चितरूप से उस सूक्ष्मतम तत्त्वतक पहुंच सकेंगे ।