भारत विश्व की आध्यात्मिक राजधानी है । विश्वभर से लोग मनःशांति पाने हेतु भारत आते हैं । सनातन संस्कृति भारत की आत्मा है; किन्तु दुर्भाग्यवश अध्यात्म अथवा साधना की शिक्षा न मिलने के कारण आज हमारी अवस्था कस्तुरीमृग जैसी हो गई है । जिस प्रकार कस्तुरीमृग के नाभि में कस्तुरी होती है; किन्तु वह मृग अर्थात हिरण कस्तुरी की खोज में यहां-वहां भटकती है, वैसे ही हम पूरा जीवन सभी लोग आनंद की खोज में प्रयत्नरत रहते हैं; किंतु आनंद का अनुभव स्थायी रूप से नहीं किया जा सकता । आनंद के क्षण हमारे जीवन में गिने-चुने ही होते हैं । इसका कारण यह है कि आनंद कैसे प्राप्त करें, यह कहीं भी सीखाया नहीं जाता ।
अनेक बार इंद्रियजन्य सुख को ही आनंद माना जाता है । अच्छे गाने सुनना, मनपसंद पकवान खाना, पर्यटनस्थल में जाकर प्रकृति का सौंदर्य देखना, नए कपडे खरीदना । हम इनसे आनंद प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते हैं । किन्तु इनमें से कोई भी प्रयास हमें निरंतर करना संभव नहीं है । इस कारण कालांतर से उससे मिलनेवाला आनंद न्यून होता जाता है और मन अस्वस्थ अथवा निराश हो जाता है । कुछ लोगों के जीवन में निराशा की मात्रा इतनी बढ जाती है कि व्यक्ति किसी व्यसन के अधीन हो जाता है अथवा आत्महत्या जैसा अनुचित कदम उठाता हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ज्ञात ही नहीं होता कि आनंद आत्मा को होनेवाला अनुभव है; किन्तु व्यक्ति जब सत्-चित्-आनंद स्वरूप ईश्वर के निकट जाने का प्रयत्न करता हैं, तब उस व्यक्ति की आनंद की अवस्था में वृद्धि होती है । अर्थात् यह सारा अनुभव प्रत्यक्ष कृति करने का विषय है ।
धर्मशास्त्र में ईश्वरप्राप्ति अर्थात आनंदप्राप्ति के अनेक मार्ग बताए गए हैं । किन्तु अनेकों को यह ज्ञात नहीं होता कि इन सहस्रों साधनामार्गों मे से कौनसी साधना आरंभ करें । इस कारण अनेक लोग उन्हें जो पसंद है अथवा उन्हें जैसे लगता है, उसके अनुसार साधना करने का प्रयत्न करता है । जो प्रत्यक्ष में साधना नहीं करते, उन्हें अध्यात्म के विषय में केवल सुनने से कुछ भी लाभ नहीं होता । अयोग्य प्रकार से साधना करनेवालों को भी लाभ नहीं होता । इसके विपरीत ऐसे व्यक्तियों की साधना योग्य प्रकार से न होने के कारण उन्हें अनुभूती नहीं होती और उनका अध्यात्म पर से विश्वास भी अल्प होने लगता है । मंदिर में होनेवाले कीर्तन-प्रवचन में जानेवाले अनेक लोगों को लगता है कि हम साधना करते हैं । धार्मिक पुस्तक पढते है और अभ्यास करनेवालों को भी लगता है कि, उन्हें अध्यात्म अल्पाधिक समझ में आता है । परंतु वास्तव में पूर्व में बताए गए दोनों उदाहरणों में वैसे नहीं होता । तैराकी के विषय में सुनने से अथवा उसपर अच्छी पुस्तकें पढने से व्यक्ति को उससे प्रत्यक्ष में तैरने का आनंद नहीं मिलता । वैसे ही केवल कीर्तन और प्रवचन में जानेवाले अथवा पुस्तकों का वाचन करनेवालों से खरी साधना नहीं होती । साधना अर्थात क्या और योग्य साधना कैसे करें, यह सभी को समझ में आए, इस हेतु सनातन संस्था की ओर से प्रवचन और सत्संग लिए जाते हैं । अभी का प्रवचन भी इसी उद्देश्य से है । सर्वप्रथम हम सनातन संस्था और संस्था के संस्थापक के विषय में हम जान लेंगे ।
१. सनातन संस्था और संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का परिचय
सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवले ने सनातन संस्था के माध्यम से व्यक्ति की शीघ्र उन्नति करवानेवाली साधना के विषय में मार्गदर्शन किया है । उन्होंने व्यक्ति की शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करवानेवाला ‘गुरुकृपायोग’ मार्ग बताया है ।
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तीयोग के संगमवाला गुरुकृपायोगानुसार साधना कर अनेक साधकों ने आध्यात्मिक प्रगती कर अपने मनुष्यजीवन को सार्थक किया है । स्वयं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अपनी आयु के ४५ वें वर्ष में साधना आरंभ कर वे कुछ ही वर्षों में अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हुए । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं वैद्यकीय क्षेत्र के डॉक्टर हैं । मुंबई में चिकित्सकीय शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात, वर्ष १९७१ से १९७८ के मध्य परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त कर सम्मोहन उपचार-पद्धतिपर शोध कर, विभिन्न वैज्ञानिक परिषदों में शोधनिबन्ध भी प्रस्तुत किए । वर्ष १९७८ में मुंबई लौटनेपर उन्होंने सम्मोहनोपचार विशेषज्ञ का व्यवसाय आरम्भ किया एवं शोध-कार्य आरम्भ रखा । वर्ष १९८२ में उन्होंने ‘भारतीय चिकित्सकीय सम्मोहन एवं शोध संस्था’ स्थापित की एवं सम्मोहनोपचारपर एक वार्षिक शोध पत्रिका (जर्नल) का प्रकाशन आरम्भ किया; साथ-साथ चिकित्सकों एवं अन्य लोगों के लिए सम्मोहन उपचार-पद्धतिपर भारत में अनेक स्थानोंपर उनके अभ्यासवर्ग भी आयोजित हुए । वर्ष १९६७ से १९८२ तक १५ वर्ष मानसिक विकारों के सम्मोहन उपचार विशेषज्ञ के रूप में शोध करनेपर उनके ध्यान में आया कि लगभग तीस प्रतिशत रोगी साधारण औषधोपचार से ठीक नहीं हुए; परन्तु जब उनमें से कुछ लोग किसी तीर्थस्थल अथवा सन्तदर्शन के लिए गए अथवा उन्होंने त्रिपिण्डी श्राद्ध जैसी धार्मिक विधियां कीं, तो वे ठीक हो गए । परात्पर गुरु डॉ. आठवले जी स्वभाव से ही शोध-वृत्ति के होने के कारण उन्होंने इन सबका अभ्यास किया । इससे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की समझ में आया कि शारीरिक एवं मानसिक चिकित्सा शास्त्रोंसे भी उच्च श्रेणी का एक शास्त्र है और वह है ‘अध्यात्मशास्त्र’ । तब १९८२ में वे आस्तिक बनें ।
अपनी जिज्ञासु वृत्ति के कारण उन्होंने अध्यात्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया एवं अनेक सन्तोंके पास जाकर अपनी शंकाओं का समाधान करवाया । उन्हें जो ज्ञान मिला, उसका लाभ केवल रोगियों के लिए ही नहीं; अपितु सर्वसुलभ करने हेतु उन्होंने स्वयं साधना की और वर्ष १९८७ में अध्यात्मशास्त्र पर एक (चक्रमुद्रांकित) ग्रन्थ लिखा।
दिसंबर २०१९ कि सनातन के ३२२ ग्रंथों का मराठी, हिंदी, इंग्रजी, गुजराती, कन्नड, तमिळ, तेलुगु, मल्ल्याळम्, बंगाली, ओडिया, आसामी, गुरुमुखी, सर्बियन, जर्मन, स्पॅनिश, फ्रेंच और नेपाली इन १७ भाषाओं में ग्रंथों के ७८ लाख ५४ सहस्र प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं । ग्रन्थलेखन का उनका कार्य आज भी चल रहा है । उनकी प्रेरणा से सत्संग, बालसंस्कारवर्ग, सनातन प्रभात नियतकालिक, जालस्थल, ग्रंथ, तथा शोधकार्य आदि के माध्यम से अध्यात्मप्रसार का कार्य व्यापक स्वरूप में चालू है ।
२. अध्यात्म का महत्त्व
२ अ. प्राणियोंका ध्येय – चिरन्तन एवं सर्वोच्च आनन्द की प्राप्ति
हम सब कुछ समय के लिए अपना कामकाज छोडकर यहां क्यों एकत्रित हुए हैं ? यहां से हम कुछ सीखेंगे एवं उससे सुख प्राप्त कर सकेंगे, इस अपेक्षा से हम यहां एकत्रित हुए हैं । कीडें-मकोडों से लेकर विकसित मानव तक, प्रत्येक जीव सर्वोच्च सुख प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है; परन्तु किसी पाठशाला अथवा महाविद्यालय में यह नहीं सिखाया जाता कि सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है। सर्वोच्च एवं निरन्तर टिकनेवाले सुख को आनन्द कहते हैं । अध्यात्मशास्त्र ही ऐसा एकमात्र शास्त्र है, जो आनन्द की प्राप्ति करवा सकता है । इस प्रवचन से हम कालानुसार आवश्यक साधना का एक एक चरण समझनेवाले हैं ।
२ आ. जीवन की ८० प्रतिशत समस्याओं का मूल कारण आध्यात्मिक
सामान्य व्यक्ति के जीवन में २० प्रतिशत समस्याएं शारीरिक अथवा मानसिक कारणों से उत्पन्न होती हैं । ३० प्रतिशत समस्याएं शारीरिक अथवा मानसिक, एवं / अथवा आध्यात्मिक कारणों से उत्पन्न होती हैं । शेष ५० प्रतिशत समस्याएं केवल आध्यात्मिक कारणोंसे उत्पन्न होती हैं । अर्थात जीवनकी ८० प्रतिशत समस्याओंका कारण आध्यात्मिक होता है । आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान साधनाद्वारा हो सकता है अथवा उन्हें सहन करने की (प्रारब्ध भुगतने की) शक्ति साधनाद्वारा मिलती है ।
व्यक्तिगत सुख की इच्छा रखनेवालों को सकाम साधना से सुख मिलता है, साथ ही उनके दुःख घटते हैं । जबकि पारमार्थिक आनंद की इच्छा रखनेवाले निष्काम साधना कर आनंदावस्था अनुभव करते हैं ।
२ इ. कलियुग में नामस्मरण ही साधना
भगवान की प्राप्ति करने हेतु करने प्रत्येक युग में आवश्यक उपासना अलग-अलग बताई गई है । सत्ययुग में सभी लोग सोऽहं भाव में थे । उस समय ज्ञानमार्ग से ईश्वर का स्वरूप जान लेते थे । त्रेतायुग में तपश्चर्या, द्वापारयुग में कर्मकांड ये मुख्य साधनामार्ग थे । संतों ने कहा है ‘कलियुग केवल नाम अधारा’। श्रीमद़्भगवद़्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । इसका अर्थ ही है, कलियुग में नामजप ही सर्वश्रेष्ठ साधना है । नामजप की विशेषता यह है कि उसे स्थल, काल का बंधन नही, अर्थात उठते-बैठते, यात्रा करते समय, घर के अथवा कार्यालयीन काम करते समय हम नामस्मरण कर सकते हैं ।
२ ई. अध्यात्म कृति का शास्त्र
कुछ लोगों को लग सकता है कि हम तो भगवान का करते ही हैं !; तो हमें सत्संग की क्या आवश्यकता है ?; किंतु यह देखना भी महत्त्वपूर्ण है कि हम भगवान का जो भी करते हैं, वह कालानुरुप योग्य है क्या और अध्यात्म में अगले-अगले चरण में जा रहे हैं क्या । जैसे व्यावहारिक शिक्षा में पहली कक्षा से दूसरी और दूसरी से तीसरी कक्षा में जाते हैं वैसे ही अध्यात्म में भी चरण होते हैं । अनेक लोग अध्यात्मविषयक कथा, कीर्तन, प्रवचन और व्याख्यान सुनते हैं, साथ ही ग्रंथवाचन करते हैं; परंतु प्रत्यक्ष कृति में उतना पालन नहीं करते । परंतु अध्यात्म को कृति में लाने की ओर ध्यान नहीं दिया, तो केवल तात्त्विक जानकारी को समझना अनंत कालतक चलता ही रहेगा । अध्यात्म अनंत का ज्ञान है । अध्यात्म में तात्त्विक विषय समझने का महत्त्व अत्यल्प है । अध्यात्म का महत्त्व समझकर, प्रत्यक्ष साधना कर उसका अनुभव लेना अर्थात अध्यात्म को जीना महत्त्वपूर्ण है । संत ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है कि ‘एक तरी ओवी अनुभवावी ! (अर्थात एक तो भजन की पंक्ति में दिएनुसार कृति कर अध्यात्म की अनुभूति लें)’ अध्यात्म प्रायोगिक और अनुभूति का शास्त्र है । साधना किए बिना अनुभूति नहीं आ सकती इसलिए साधना में वास्तव में करना क्या है, यह हम प्रमुखता से समझेंगे ।
३. पितृदोष और भगवान दत्त के नामजप का महत्त्व
आज के प्रवचन में हम पितृदोष और भगवान दत्त के नामजप का महत्त्व समझनेवाले हैं ।
३ अ. पितृदोष क्या है ?
सर्वप्रथम हम पितृदोष के बारे में जानेंगे । हमारी हिन्दू संस्कृति में मातृ-पितृ पूजन का विशेष महत्त्व है । हिन्दू धर्म में जो चार ऋण बताए गए हैं । उसमें से एक ऋण पितृऋण हैं । जीवित रहते समय माता-पिता की सेवा करना और मृत्यु के उपरांत पितृलोक से उन्हें मुक्त करने के लिए श्राद्धादि धार्मिक विधि कर पितृऋण से मुक्त होते हैं । हम पूर्वजों की धन-संपत्ति का उपभोेग करते हैं किन्तु उन्हें पितृलोक से मुक्ति मिलने के लिए कुछ भी नहीं करते । आज के आधुनिक काल में तो हमें हमारे पूर्वजों के विषय में कृतज्ञता की भावना भी नहीं रही । अधिकतर लोग पूर्वजों की मुक्ति की ओर दुर्लक्ष करते हैं । इस कारण हमारे पूर्वज हमपर क्रोध करते हैं और हम उनकी मुक्ति के लिए कुछ तो प्रयत्न करें, इस उद्देश्य से वे हमारे सांसारिक जीवन में अडचनें निर्माण करते हैं । इन अडचनों से छुटकारा पाने के लिए लोग अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए प्रयत्न करने लगते हैं । जो पूर्वजों का स्मरण रखकर नियमित श्रद्धापूर्वक धार्मिक कृति करते हैं, उनका कल्याण निश्चित ही होता है ।
३ आ. पूर्वजों के कष्टों के लक्षण
हमें पूर्वजों का कष्ट है कि नहीं, यह समझने के लिए शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक ऐसे कुछ लक्षण हैं, वह हम समझ लेंगे । शरीर में असाध्य रोग का होना, त्वचाविकार होना, सर्पदंश होना, ये पितृदोष के शारीरिक स्तर के कुछ लक्षण हैं । मन अशांत, अस्वस्थ रहना, भय लगना, चौंक जाना, बडबडाना, आभास होना, बुरे स्वप्न दिखना, नींद न आना, वैवाहिक कार्य में अडचनें आना, विवाह हुआ हो तो पति-पत्नी की आपस में न बनना, बनती हो तो गर्भधारणा न होना, बारंबार कारण न होते हुए भी गर्भपात होना, समय से पूर्व बच्चे का जन्म लेना, मंदबुद्धि अथवा विकलांग बच्चे का जन्म लेना, बचपन में ही बच्चे की मृत्यु होना, पैसा होकर भी घर में शांति न होना, पैसे की कमी इत्यादि इस प्रकार के कष्ट होते हैं । इन लक्षणों का अध्ययन किया तो ध्यान में आएगा कि कलियुग में अल्प -अधिक मात्रा में सभी को पूर्वजों का कष्ट रहता है । इन कष्टों का निवारण हो और पितरों को गति मिले, इसलिए सबसे सरल और सहज उपाय है कि सभी प्रतिदिन ‘श्री गुरुदेव दत्त’ इस प्रकार नामजप करें ।
३ इ. दत्त भगवान का नामजप कितना करें ?
अभी जो हमने पूर्वजों के कष्ट देखे वैसे किसी भी प्रकार का कष्ट न होता हो, तो भविष्य में भी न हो इसलिए न्यूनतम १ से २ घंटे दत्त का नामजप करें । मध्यम कष्ट हो तो २ से ४ घंटे नामजप करें और गुरुवार को दत्त भगवान के मंदिर में जाकर ७ प्रदक्षिणा करें । यदि कष्ट तीव्र हो तो ४ से ६ घंटे नामजप करें । किसी ज्योतिर्लिंग के तीर्थस्थान में जाकर नारायणबलि, नागबलि, त्रिपिंडी श्राद्ध, कालसर्पशांति जैसी विधियां इस क्षेत्र के अधिकारी व्यक्ति को पूछकर ही करें । साथ ही किसी दत्त क्षेत्र में रहकर साधना करें अथवा संतसेवा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करें ।
३ ई. भगवान दत्त के नामजप का महत्त्व
आज समाज के अधिकांश लोग साधना नहीं करते । इस कारण वे माया में फंसे रहते हैं । फलतः उनकी इच्छा-वासना मृत्यु के उपरांत भी वैसे ही बनी रहती है । ऐसे लोगों की लिंगदेह अतृप्त रहती है । ऐसे अतृप्त लिंगदेह मर्त्यलोक में अर्थात मृत्युलोक में अटक जाती हैं । ‘पूर्वजों को गति देना’, यह श्री दत्ततत्त्व का विशेष कार्य होने के कारण दत्त के नामजप से अल्प कालावधि में लिंगदेह को, साथ ही वातावरण की कक्षा में अटके अन्य पूर्वजों को गति मिलती है । दत्तगुरु का नामजप मनःपूर्वक और एकाग्रता से होने के लिए प्रयत्न करें । दत्त के नामजप से अतृप्त पूर्वजों के कष्ट से रक्षा होती है । नामजप से निर्माण होनेवाली शक्ती से नामजप करनेवाले के सर्व ओर सुरक्षा कवच निर्माण होता है । नामजप करने से पूर्व श्री दत्तगुरु से प्रार्थना कर सकते हैं । उदा. ‘हे दत्तात्रेय देवता, भुवलोक में अटके मेरे अतृप्त पूर्वजों को आगे की गति दें’ । ‘हे दत्तात्रेय भगवान जी, अतृप्त पूर्वजों के कष्टों से मेरी रक्षा कीजिए । आपका सुरक्षा-कवच मेरे सर्व ओर सदैव रहने दीजिए’ ।
४. आपातकाल और साधना का महत्त्व
४ अ. कोरोना महामारी और तृतीय विश्वयुद्ध की आहट
हम पिछले कुछ महिनों से देख रहे हैं कि कोरोना नामक सूक्ष्म विषाणू ने विश्वभर में हाहाकार मचाया है । ‘कोरोना’ विषाणु के संसर्ग के कारण २६ सितंबर तक लगभग १० लाख (वास्तविक आंकडा – ९ लाख ८८ सहस्र ५३२) मृत्यु हुई है । केवल भारत में लगभग १ लाख लोगों की मृत्यु हो गई है । (वास्तविक आंकडा – ९२ सहस्र २९०), और विश्वभर में लगभग सवा तीन करोड लोग (वास्तविक आंकडा ३ करोड २४ लाख ६० सहस्र १२७) कोरोना से पीडित हो गए हैं । साथ ही अनेक देशों के राजनेताओं के विस्तारवादी भूमिका के कारण अन्य देशों की भूमि हडपकर अस्थिरता निर्माण करने का प्रयास किया जा रहा है । इस कारण संपूर्ण विश्व में ही निर्माण हुई युद्धजन्य परिस्थिति हम देख रहे हैं । भारत-चीन सीमा पर भी तनाव बढ रहा है । एकप्रकार से संपूर्ण विश्व ही दो गुटों में विभक्त होता जा रहा है । इस कारण तृतीय विश्वयुद्ध की रणभेरी कब बज उठेगी, यह कहा नहीं जा सकता । स्थूल से तो यह सर्व परिस्थिति भौतिक लगेगी, तब भी यह कालचक्र का परिणाम है, यह ध्यान में रखना चाहिए ।
४ आ. द्रष्टा संत और भविष्यवेत्ता के आपातकाल के विषय में संकेत
१. तीसरा महायुद्ध इतना भयानक होगा कि पहले के दो महायुद्ध बच्चों का खेल लगेंगे! – नॉस्ट्रॅडॉमस
२. तीसरा विश्वयुद्ध महाभयानक होगा । इसमें बडी मात्रा में संहार होनेवाला है । गांव के गांव नष्ट हो जाएंगे । इससे रक्षा के लिए साधना का बल होना आवश्यक है । – परात्पर गुरु डॉ. आठवले
अनेक द्रष्टा साधु-संत, भविष्यवेत्ता ने इससे पूर्व भी महाभीषण आपातकाल के विषय में बताया है । आज से चार सौ वर्ष पहले नॉस्ट्राडेमस नामक प्रसिद्ध युगद्रष्टा का जन्म फ्रांस में हुआ था । उसने अनेक भविष्यवाणियां की थीं, जो पूर्णतः सत्य सिद्ध हुई हैं । उसने पहले और दूसरे महायुद्धके विषयमें जो कुछ कहा था, सब सच निकला । उसने तीसरे महायुद्धके विषयमें कहा है, यह तीसरा महायुद्ध इतना भयानक होगा कि पहले के दो महायुद्ध बच्चोेंं का खेल लगेंगे !’ इस भविष्यवाणी से आगामी विश्वयुद्ध की भयावहता की कल्पना की जा सकती है । सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवले जी ने भी तृतीय विश्वयुद्ध के विषय में बताया है । तीसरा विश्वयुद्ध महाभयानक होगा । इसमें बडी मात्रा में संहार होनेवाला है । गांव के गांव नष्ट हो जाएंगे । इससे रक्षा के लिए साधना का बल होना आवश्यक है । वर्ष २०२० से २०२३ का समय आपातकाल और युद्धकाल होगा । उसके उपरांत वर्ष २०२३ में हिंदू राष्ट्र की अर्थात रामराज्यतुल्य ईश्वरीय राज्य की स्थापना होगी ।’ इन उदाहरणों से हमें ध्यान में आएगा कि आपातकाल का आरंभ हो गया है और कोरोना महामारी यह केवल उसकी एक झलक है । वर्षभर पहले किसी ने विचार भी नहीं किया होगा कि कोई सूक्ष्म विषाणू संपूर्ण विश्व का व्यवहार ही ठप्प कर देगा । किंतु संत त्रिकालदर्शी होते हैं । वे कुछ संकेत देकर हमें सावधान करते हैं । ये संकेत पहचान कर संतों का आज्ञापालन किया, तो आपातकाल सुसह्य होगा ।
४ इ. आपातकाल कालचक्र का परिणाम
आज कोरोना महामारी के कारण संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था असंतुलित हो गई है । बेरोजगारी, महंगाई का प्रत्यक्ष परिणाम व्यक्ति के दैनिक जीवन पर हो रहा है । यह स्थिति परिवर्तित होकर वह कब पूर्ववत् होगी, इसके विषय में कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता । सभी लोग कोरोना के टीका (वैक्सीन) की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तब भी यह टीका उपलब्ध होने पर वर्तमान चित्र एकदम बदल जाएगा, ऐसे आज तो नहीं दिखता । कालचक्र का यह परिणाम है । कलियुगांतर्गत कलियुगांर्तगत कलियुग समाप्त होकर कलियुगांतर्गत सत्ययुग आरंभ होने का यह काल है । इसे संधिकाल कहा जाता है । बाह्यतः यह काल कठिन दिख रहा होगा, तब भी इस काल में साधना करने से उसका आध्यात्मिक फल अनेक गुना मिलता है । वर्तमान में कोरोना महामारी के काल में हमारे पास मोबाईल, टी.वी., इंटरनेट जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं । आगे कोरोना से भी भीषण आपातकाल का सामना हमें करना पडेगा । उस काल में ये सभी सुविधाएं बंद होंगी । ऐसे समय में मन को स्थिर रखने के लिए अत्यधिक आत्मबल की आवश्यकता है । आत्मिक बल बढाने के लिए साधना ही करनी होगी ।
४ ई. आपातकाल में भगवान भक्तों की रक्षा करते हैं
साधना का बल होगा तो ईश्वर कैसे संभालते हैं, भक्तों की रक्षा के लिए स्वयं अवतार लेते हैं । इसके अनेक उदाहरण हमारे ग्रंथों और हमारे पुराणों में दिए गए हैं । हम सभी को भक्त प्रह्लाद की कहानी तो ज्ञात होगी । हिरण्यकश्यपु ने भक्त प्रह्लाद को अत्यंत कष्ट दिया । प्रह्लाद ने देवताओंका आशीर्वाद प्राप्त कर अहंकारी बने हिरण्यकश्यपु को सर्वश्रेष्ठ न मानते हुए, भगवान श्री विष्णुजी का नामजप आरंभ किया । वह नामजप न कर पाए इसलिए उसके पिता हिरण्यकश्यपु ने उसे उबलते हुए तेल में डाला, उंचे पर्वत से नीचे फेंक दिया और उन्मत्त हाथी के पांव के नीचे दे दिया, किन्तु हर बार प्रह्लाद की रक्षा हुई । सभी भीषण संकटों से उनकी रक्षा हुई और भगवान श्री विष्णुजी ने भक्त प्रह्लाद के लिए नृसिंह रूप में अवतरित होकर हिरण्यकश्यपु का नाश किया । यह केवल पुराणों में बताई कहानियां नहीं है, अपितु वर्तमान में भी अनेकों ने ईश्वर कृपा की बुद्धि के परे की अनुभूतियां ली है । जैसे गेहूं पीसते समय चक्की में सभी दाने पीस जाते हैं परंतु मूंठ के पास के सभी दाने वैसे ही रह जाते हैं । वैसे ही हम भी साधना रूपी मूंठ को पकड कर रहे तो आपातकाल रूपी चक्की में हम पीसेंगे नहीं । साधना के बिना गति नहीं, गति के बिना उद्धार नहीं, उद्धार हुए बिना मुक्ति नहीं मिल पाएगी, और मुक्ति के बिना मोक्ष नहीं, ऐसे संतों ने कहा है । इसीलिए हर व्यक्ति ने जीवन में अध्यात्म पर श्रद्धा रखनी चाहिए, अन्यथा मनुष्य जन्म मिला और व्यर्थ गया यह होने की संभावना अधिक है ।