वेदाध्ययन में चारों वर्णों के बालकों का अधिकार है, किंतु गुण-कर्म से हीन का नहीं । गुण और कर्म ही उच्च और कनिष्ठ वर्ण के कारण हैं । इसके संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है –
सत्यकाम जाबाल हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर बोला – मैं आपके पास ब्रह्मचारी रहूंगा, यदि आपकी आज्ञा हो. तो मैं आपके पास रहूं । आचार्य गौतम ने पूछा- हे सोम्य! तेरा क्या गोत्र है?
वह कहने लगा- मेरा क्या गोत्र है, यह मैं नहीं जानता । मैंने अपनी माता जबाला से पूछा था, उन्होंने कहा- मैं अनेक लोगों की परिचारिणी (सेविका) रही हूं और यौवनकाल में मैंने तुझे प्राप्त किया है, इसलिए मैं नहीं जानती कि तेरा क्या गोत्र है ? हे गुरुवर ! इसलिए मैं तो सत्यकाम जाबाल हूं ।
गुरु गौतम ने कहा – यह बात कोई अब्राह्मण नहीं कह सकता, अर्थात तू ब्राह्मण है । हे सौम्य ! तू समिधा ले आ, मैं तुझे अपने समीप रखूंगा, तुझे वेद की शिक्षा दूंगा, क्योंकि तू सत्यभाषण से विचलित नहीं हुआ है ।
इस प्रकार यहां अज्ञात कुल शिष्य का भी वेद अध्ययन में अधिकार का विधान किया गया है । सत्यभाषण के गुण से ही अज्ञात कुल सत्यकाम जाबाल को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ ।
परंतु गुण तथा कर्म से हीन को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया है, जैसे-
श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात् स्मृतेश्च॥ (वेदान्तदर्शन 1.3.38)
अर्थ : (श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात्) गुण और कर्म से हीन किसी को भी वेद श्रवण और अध्ययन का निषेध किया गया है ।
१. नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुन:। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.22)
अर्थात अप्रशान्त चित्तवाले पुरुष को ब्रह्मविद्या का दान नहीं करना चाहिए ।
2. विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि।
असूयकानृजवेऽयताय न मा ब्रूयां वीर्यवती यथा स्याम॥ (निरुक्त 2.14)
अर्थ : विद्या ब्राह्मण विद्वान के पास आई और कहने लगी, तू मेरी रक्षा कर, मैं तेरी शेवधि=खजाना हूं। तू असूयक=निन्दक, अनृजु=कुटिल, अयत=असंयमी जन को मेरा उपदेश मत देना, जिससे मैं सदा वीर्यवती=बलशालिनी बनी रहूं ।
3. पृथिवीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्विदमसंयताय॥ (महाभारत शान्तिपर्व)
अर्थ : रत्नों से पूर्ण इस पृथिवी का दान कर देवे, किंतु असंयत=असंयमी जन को ब्रह्मविद्या का उपदेश न दे ।
इन सभी श्लोकों का भाव यह है कि ब्रह्मविद्या और वेदाध्ययन का अधिकार चारों वर्णों का है, किंतु गुणहीन जन का नहीं ।