दान करना कर्मयोगानुसार साधना है । कर्मयोगानुसार दान करने की साधना के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं होती । कुछ लोग दान तो करते हैं; परंतु वे अपनी फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर प्रकाशित करने में अधिक रुचि रखते हैं । कुछ स्थानों पर लिखा रहता है कि यह दान करने से यह फल मिलेगा, कुत्ते को रोटी खिलाने से यह फल मिलेगा, कबूतर को दाना खिलाने से यह फल मिलेगा । लोग उस फल की अपेक्षा में दान करना प्रारंभ करते हैं; परंतु वास्तव में किसी भी अपेक्षा से किए हुए दान की कृति से साधना नहीं हो सकती । हम गंगाजी में पानी से अर्घ्य देते हैं, उस समय हमें ध्यान में रखना चाहिए, ‘तेरा तुझको अर्पण !’ दान के प्रति ऐसा ही भाव होना चाहिए । दान करने की कृति से साधना हो और आगे गुरु की कृपा हो, इसलिए इस विषय में हमें कुछ अधिक जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है ।
१. दान सदैव ‘पात्रे दानम्’ अर्थात्, ‘सत्पात्रे दानम् (योग्य व्यक्ति को दान)’ होना चाहिए । इस संसार में संतों से अधिक सत्पात्र कोई नहीं है, इसलिए जो कुछ दान करना हो, उन्हें ही अर्पण करें । उपासना करनेवाले नामधारक के लिए ही यह संभव है ।
२. उपासना करनेवाले की तुलना में जो कनिष्ठ मार्ग है वह है कर्ममार्ग ! इस कर्ममार्ग पर चलनेवाले भावनावश भिखारियों को अन्न तथा पाठशाला-अस्पतालों को दान देते हैं, जिससे केवल पुण्य प्राप्त होता है । मुमुक्षु को (मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले को) पाप-पुण्य में किसी की इच्छा नहीं रहती, क्योंकि पुण्य से स्वर्गप्राप्ति होती है, मोक्षप्राप्ति नहीं । इसमें संत ज्ञानेश्वरजी कहते हैं कि दान करना एक पापात्मक पुण्य है, क्योंकि पुण्यबल से स्वर्ग में स्थान मिलता है, उत्तम भोग मिलते है; परंतु पुण्य का फल समाप्त होने पर पुनः मनुष्य जन्म लेकर पृथ्वी पर आना पडता है । पृथ्वी पर आने के उपरांत जीवन का वही सुख-दुःख चलते रहता है । इसलिए कर्म ऐसे करें कि जीवन-मृत्यु के इस चक्र से ही मुक्त हो सकें ।
३. अब दान के संदर्भ में गुरु का क्या महत्त्व है । गुरुचरित्र में लिखा है कि गुरु के प्रति भक्ति करना सुलभ मार्ग है, क्योंकि उससे ध्येय तत्काल साध्य होता है । अनेक तप एवं अनुष्ठान करने में बहुत समय लगता है । लोग विविध तप, अनुष्ठान एवं यज्ञ करते हैं; परंतु वो सब करने में उन्हें अडचन होती है तथा ध्येय साध्य करना कठिन होता है । जो गुरुभक्ति करेगा, वह अपने लक्ष्य को तत्काल साध्य कर लेगा । उसे यज्ञ-दान-तप, सभी का फल प्राप्त हो जाता है । उसे सर्व सिद्धियां प्राप्त होती हैं । जिन्हें गुरुतत्त्व का ज्ञान होता है, उन्हें अधिक परिश्रम नहीं करना पडता । अतः एकाग्रचित्त होकर भावपूर्वक श्रीगुरु की आराधना करें । (अनुवाद – श्री गुरुचरित्र ४१:९१, ४१:९२, ४१:९३, ४१:९४)