परमेश्वर यह निर्गुण निराकार है |
धर्म संकल्पना में परमेश्वर को सर्वोच्च माना गया है । परमेश्वर निर्गुण / निराकार हैं तथा अनंतकोटि ब्रह्मांड में सर्वव्यापी भी हैं । जो निर्गुण-निराकार है, वह ज्योतिर्बिंदु के रूप में नहीं हो सकता । क्योंकि ज्योतिर्बिंदु भी एक तरह से सगुण-साकार रूप हुआ । किंतु कुछ शैव संप्रदाय भगवान शिव के परमेश्वर रूप को ज्योतिर्बिंदु के रूप में मानते हैं ।
जिस प्रकार परमेश्वर के प्रतीक के रूप में ‘ॐकार’ को मानते हैं, ॐकार परमेश्वर की प्रथम ध्वनि मानी जाती है । उसी प्रकार परमेश्वर के रूप को ज्योतिर्बिंदु के स्वरूप माना जाता है ।
प्रजापति कौन हैं ?
ऋग्वेद में सुवर्ण के समान बीजवाले हिरण्यगर्भ प्रजापति चराचर सृष्टि के पूर्व ही पूर्णरूपेण विद्यमान थे, ऐसा स्पष्ट प्रतिपादित किया गया है !
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ – सूक्त ऋग्वेद -10-121-1
अर्थ : सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार जो जगत हो और होगा, उसके आधार परमात्मा जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान थे । जिसने पृथ्वी और सूर्य-तारों का सृजन किया, प्रेमपूर्वक उस देव की भक्ति किया करें ।
इस सूक्त में ‘कस्मै देवाय’ का अर्थ कौन से देवता नहीं हैं, अपितु हिरण्यगर्भ प्रजापति हैं ।
जिस प्रकार बीज के अंदर पौधा, शाखाएं, पत्ते, फूल, फल और रस सभी सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं, वैसे ही गर्भ अथवा अंडे में सारी सृष्टि सुषुप्तावस्था में रहती है । सृष्टि ही सुषुप्तावस्था में है, तो देवता भी नहीं हैं, ऐसे स्थिति में कौन से देवता को यज्ञ की हवी दें ? विद्वानों ने इसे हिरण्यगर्भ, प्रजापति तथा ब्रह्मा कहा है । यहां प्रजापति को प्राणशक्तिदायक, बल देनेवाला तथा कर्मफलदाता माना गया है । प्रजापति एक विराट पुरुष हैं । उनका शरीर जगत का उपादान आधार है । जगत के जितने भी भाग हैं, वे उस विराट पुरुष के ही अंग हैं । यह त्रैकालिक पुरुष है जिसे वेदों में ब्रह्मा, ब्राह्मण-ग्रन्थों में प्रजापति, उपनिषदों में आत्मा आदि कहा गया है ।
सनातन धर्म अनेक रूपों में ईश्वर को पूजता है, ऐसा क्यों ?
हिन्दू धर्म में परमेश्वर, ईश्वर, अवतार तथा देवता ऐसी संकल्पना है । ‘ईश्वर’ शब्द सामान्यतः जगन्नियंता, सृष्टि-स्थिति-प्रलय के कर्ता, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी और देवाधिदेव आदि अर्थों से उपयोग किया जाता है । प्रत्यक्ष में ईश्वर एक ही हैं, तथा वह निर्गुण, निराकार हैं । कलियुग में सांप्रदायिक साधना के कारण शैव संप्रदाय को माननेवाले भगवान शिव के ध्यानस्थ रूप को ईश्वर मानते हैं, तो वैष्णव सांप्रदायिक भगवान विष्णु तथा उनके अवतार श्रीराम और श्रीकृष्ण को ईश्वर मानते हैं । ये सांप्रदायिक भाव हुए; परंतु ईश्वर अलग अलग नहीं हैं । रामायण में हमें इसका उत्तर भी मिलता है, कि भगवान श्रीराम रामेश्वरम में भगवान शिव की पूजा करते हैं, तो भगवान शिव हनुमानजी के रूप में विष्णु अवतार श्रीराम की सेवा में विद्यमान हैं । इससे स्पष्ट होता है, कि हरि और हर इन दोनों में कोई अंतर नहीं है । किंतु कलियुग की सांप्रदायिकता के प्रभाव के कारण हमें लगता है, कि सनातन धर्म अनेक रूपों में ईश्वर को पूजता है । वास्तव में सनातन धर्म में ईश्वर एक ही हैं ।
परमेश्वर एवं देवी-देवता में क्या अंतर है ?
देवी-देवता के लोक कहे गए हैं, परमेश्वरलोक कहां है ?
हिन्दू धर्म में परमेश्वर, ईश्वर, अवतार तथा देवता, इनके संदर्भ में लोगों के मन में अनेक संभ्रम हैं । कुछ लोग इन्हें एक मानते हैं, तो कुछ भिन्न ! अनेक बार बोलने में अवतार को भगवान बोलते हैं, तो कभी श्रीराम-श्रीकृष्ण को भी भगवान बोलते हैं । कभी उन्हें देवता कहते हैं, इस कारण मन में संभ्रम निर्माण होता है । प्रत्यक्ष में इनकी निर्मिति की संकल्पना तथा कार्य, दोनों में ही भेद है । इसे हम संक्षेप में समझने का प्रयास करेंगे ।
१. परमेश्वर : शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थ
परमेश्वर = परमः + ईशः + वरः और ईशः = ईः + शः
अ. ‘ईः’ – ईक्षते अर्थात देखना, अर्थात सब जानकर लेने की क्षमता रहनेवाला, सर्वज्ञ
और ‘शः’ – शमयते अर्थात शांत, तृप्त करता है वह.
ईश का अर्थ है – जो सर्वज्ञ है और शांति देता है । ‘वरः’ का अर्थ है श्रेष्ठ;
इसलिए ‘ईशः’ + ‘वरः’ = ईश्वरः, अर्थात जो सर्वज्ञता और शांति देने में श्रेष्ठ है ।
‘परमः’ अर्थात सर्वश्रेष्ठ; इस कारण ‘परमः’ + ‘ईश्वरः’ = परमेश्वरः, अर्थात परमेश्वर वह है, जो सर्वज्ञता और शांति देने में जो सर्वश्रेष्ठ हो !
हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा अथवा परमेश्वर भी कहते हैं । परमेश्वर संपूर्ण सृष्टि को व्याप्त करते हैं । इस कारण परमेश्वर का अलग लोक नहीं होता ।
२. ईश्वर
‘ईश्’ अर्थात स्वामित्व करना, नियंत्रण में रखना, नियमन करना ।
‘अश्’ का अर्थ है व्यापना, इस धातु से ईश्वर शब्द बना है । ‘ईश्वर’ अर्थात स्वामी, सत्ताधीश
२ अ. ईश्वर शब्द सामान्यतः जगन्नियंता, सृष्टि-स्थिति-प्रलय के कर्ता, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी और देवाधिदेव आदि अर्थों में उपयोग किया जाता है । शिव, श्रीविष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण ये शब्द भी ईश्वरवाचक माने जाते हैं; परंतु वे एक सांप्रदायिक भाव को भी प्रकट करते हैं । ईश्वर तथा परमेश्वर ये शब्द मात्र संप्रदायनिरपेक्ष ‘परमप्रभु’ अर्थ को सूचित करते हैं । परमेश्वर के जिस अंश से विश्व की निर्मिति होती है, उसे ‘ईश्वर’ कहते हैं । अनेक स्थानों पर ईश्वर को भगवान भी कहा जाता है ।
पंथ ईश्वर परमेश्वर माया
शैवपंथी ध्यानस्थ शिव निर्बीज समाधिस्थ शिव (निर्गुणरूप) नृत्य करनेवाले तथा पार्वती के साथ
वैष्णवपंथी भक्तवत्सल श्रीविष्णु शेषशायी, श्रीविष्णु अर्थात (निर्गुणरूप) श्री लक्ष्मी सहित श्रीविष्णु
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘परमेश्वर आणि ईश्वर’
२ आ. स्वयंभू : स्वयं + भू अर्थात स्वतः निर्माण होनेवाला, इसका एक अर्थ है निराकार से साकार होनेवाला.
२ इ. प्रभु : प्रभु अर्थात प्र + भवः = प्रकर्ष से निर्माण होनेवाला ‘आचरण कैसा होना चाहिए इसका मार्गदर्शन करता है वह धर्म. ‘आचारः प्रभवो धर्मः’ ऐसे कहा जाता है और ‘धर्मस्य प्रभु अच्युतः’ अर्थात, धर्मके उत्पत्तिकर्ता को अच्युत कहा जाता है’ ।
२ ई. शाक्तसंप्रदाय में इसी को ‘आदिशक्ति’ कहते हैं । यह स्त्री-वाचक नहीं, अपितु गुणवाचक शब्द है । ईश्वर निराकार, निर्विकार और निर्विकल्प हैं । ईश्वर अजन्मेा हैं । ईश्वर दयालु, प्रेमपूर्ण और जगत के रखवाले हैं । ईश्वर सच्चिदानंद हैं । अर्थात सत, चित्त और आनंद स्वरूप हैं । सत् का अर्थ है – सनातन, शाश्वत, जिसका कोई आरंभ और अंत नहीं, न बदलनेवाला – न समाप्त होनेवाला । चित् का अर्थ है – चेतना, पूछना, मन और बुद्धि आदि । चेतना से ही संसार का उद़्भव हुआ है । तीसरा इस संसार का सबसे बडा आकर्षण है ‘आनंद’ ! संसार की उत्पत्ति आनंद के लिए ही हुई है । शुद्ध आनंद की अनुभूति होना दुर्लभ है ।
३. अवतार
अवतार : ईश्वर जब किसी विशिष्ट कार्य की पूर्ति के लिए मनुष्य अथवा प्राणी का शरीर धारण कर भूलोक पर अवतीर्ण होते हैं, तब उन्हें ‘अवतार’ कहा जाता है । भूलोक पर धर्म की हानि बढती है, पुरुषार्थहीन होकर लोगों की वृत्ति अधर्म की दिशा में जाती है । सृष्टि में उपद्रव होते हैं और विनाश की प्रक्रिया बढने लगती है । इस विनाश को रोककर धर्म को पुनर्स्थापित करने तथा मानव को धर्ममार्ग पर लाने के लिए प्रत्येक युग में भगवान अर्थात ईश्वर अवतार लेते हैं । भगवान के अनेक अवतारों में से दस प्रमुख अवतार हैं । इसमें त्रेतायुग के अवतार श्रीराम और द्वापरयुग के अवतार श्रीकृष्ण सर्वाधिक प्रचलित और उपास्य अवतार माने जाते हैं ।
४. देव
४ अ. व्युत्पत्ति और अर्थ : दिव्यदेह धारण करनेवाला एक वर्ग इस शब्द की व्याख्या यास्काचार्य ने इस प्रकार की है –
देवः दानात् वा दीपनात् वा द्योतनात् वा ।
द्युस्थानो भवति इति वा । यो देवः सा देवता ।
अर्थ : दान देना, चमकना, प्रकाश देना इस अर्थ के दा, दीप् तथा द्युत् धातु से देव शब्द बना है । द्युलोक में रहते हैं इस कारण देव कहा जाता है । जो देव हैं, वही देवता हैं । – निरुक्त ७:१५
परम पिता परमात्मा एक है जो निराकार रूप में पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड ही परमात्मा है ।