‘मैं एक साधक के लिए नामजपादि उपचार कर रहा था । उसका चैतन्य सहन न होने के कारण साधक का कष्ट अधिक बढ गया तथा उसके द्वारा मेरी ओर कष्टदायक शक्ति प्रक्षेपित होने लगी । मुझे सूक्ष्म से भान हुआ कि उसकी आंखों से भी मेरी ओर कष्टदायक शक्ति आ रही है । तब मैंने एक प्रयोग किया, ‘दोनों हाथों की मुट्ठियों में प्रत्यक्ष नमक-राई न लेकर ऐसा भाव रखा कि वे दोनों घटक मेरी मुट्ठियों में हैं तथा उस साधक की कुदृष्टि (नजर) उतारने से क्या परिणाम होता है ?, यह देखने का निश्चय किया । कुदृष्टि उतारते समय सदैव की भांति ‘आने-जानेवाले की, पथिक की, पशु-पक्षियों की, जानवरों की (अनिष्ट शक्तियां उनके माध्यम से कष्ट दे सकती हैं; इसलिए उनका भी उल्लेख करने की पद्धति है ।), भूतों की, बडी अनिष्ट शक्तियों की और संसार की किसी भी प्रकार की शक्तियों की कुदृष्टि लगी हो, तो वह निकल जाने दीजिए’, ऐसा मन में बोलते हुए सदैव की भांति उसकी कुदृष्टि उतारी । उसके पश्चात मेरे दोनों हाथों की मुट्ठियों में एकत्रित हुई कष्टदायक शक्ति नष्ट करने के लिए मैंने ‘मेरे सामने अग्नि जलाई हुई है तथा मुट्ठियों में एकत्रित कष्टदायक शक्ति अग्नि में डाल रहा हूं’, ऐसा भाव रखकर कष्टदायक शक्ति नष्ट होने के लिए प्रार्थना की । इस प्रकार कुदृष्टि उतारने का अच्छा परिणाम हुआ । उस साधक का कष्ट अधिक मात्रा में न्यून हो गया ।
इसी प्रकार से मैंने देवद, पनवेल के आश्रम की पू. (श्रीमती) अश्विनी पवार की कुदृष्टि उतारी । उन्होंने मुझे दूरभाष कर बताया था कि उनकी प्राणशक्ति बहुत न्यून हो गई है तथा वे सोई हुई हैं । मैंने उनकी उक्त पद्धति से कुदृष्टि उतारी, तब उन्होंने बताया कि उन्हें ७० प्रतिशत अच्छा लग रहा है । वे उठकर बैठ नहीं पा रही थीं, अब वे उठकर बैठ गई हैं । यात्रा में किसी को कष्ट हो रहा हो, तब इस पद्धति से कुदृष्टि उतार सकते हैं । आपातकाल में सभी बातों की कमी होने पर कुदृष्टि उतारने की इस पद्धति का अवलंबन कर सकते हैं ।’
सनातन धर्म से सम्बंधित सभी प्रकार की जानकारी देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।