सख्य भक्ति में भक्त ईश्वर को अपना सखा और सर्वस्व मानकर उसकी सेवा करता है । इसमें भक्त का भाव रहता है कि भगवान मेरे सखा हैं ओैर मेरे सुख-दु:ख में सहायक हैं । इस भाव से भक्ति करना, सख्यभक्ति कहलाता है । सख्यभक्ति में भक्त व भगवान के बीच कोई भेद नहीं होता । यहां भक्त भगवान से कुछ दूरी नहीं समझता, उनसे कुछ नहीं छिपाता । अपितु सख्य भाव में सबकुछ उन्हें बताकर कल्याण की कामना और मोक्ष की याचना करता है । समानता का व्यवहार ईश्वर से रहता है । गुरु अथवा ईश्वर के प्रति इस भाव में जैसे-जैसे वृद्धि होती है, उसके अनुसार गुरु के प्रति आदर और कृतज्ञता भी बढती है ।
भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अर्जुन की भक्ति सख्यभक्ति का अनुपम उदाहरण है । सुदामा की भी सख्य भक्ति थी । इसमें भगवान भी अपने भक्त के बस में होते हैं ।
भक्त के प्रण की चिंता भगवान को ही होती है । अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कह दिया था ! ‘‘आपकी कृपा से मुझे किसी की चिंता नहीं । मैं सबको जीत लूंगा ।’’ बात सच है; अर्जुन ने अपने रथ की, अपने जीवन की बागडोर जब मधुसूदन के हाथों में दे दी, तब वह क्यों चिंता करे ।
गोप-ग्वालों के साथ कृष्ण का सखा रूप में विचरण करना और कृष्ण के अतिरिक्त किसी और का ध्यान न रखना । कृष्ण के साथ गोप-ग्वालों का ऐसा अनन्य भाव है जिसमें न किसी प्रकार का कोई भेदभाव है और न ही कोई दूरी और छिपाव ।
श्री योगेश्वरजी ने ईश्वर दर्शन में कहा है –
सख्य भक्ति में मानवस्वभाव प्रतिबिंबित होता है । मनुष्य के अति प्रिय और मधुर संबंध होते हैं । उसी का भाव इस भक्ति में सम्मिलित होता है और ईश्वर से वैसा नाता जोडा जाता है, उसको दृढ बनाया जाता है और उसके द्वारा भक्त ईश्वर के चैतन्यदायी, सुखदायक सानिध्य की सतत कामना करता है । लंबे समय के अभ्यास से उसके लिए यह भाव सहज होता है । यह भाव बहुत विशाल होता है और भगवत प्रेम के पवित्र स्वरूप को और अधिक दृढ करता है ।
भक्ति में हम किस भाव का सहारा लेकर आगे बढते हैं यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, किंतु इसके आधार पर आप आगे बढते हैं कि नहीं, यह महत्त्वपूर्ण है । आगे बढने का महत्त्व साधना में सबसे महत्त्वपूर्ण है । आगे बढने के लिए आप किसी भी सात्त्विक भाव का जो आपके आत्मिक विकास में सहायक हो, उसका आधार लेकर आगे बढ सकते हैं ।
सख्य भाव में रहनेवाले भक्त को भी ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ हैं, ऐसा समझकर ही उनसे अनन्य प्रेम करता है । जैसे संसार में दो मित्रों के बीच समानता नहीं होती, तब भी उनकी मित्रता बनी रहती है । वैसे ही सख्य भाव रखनेवाले भक्त के साथ भी होता है ।
अर्जुन की सख्य भक्ति एक अनुपम उदाहरण है ।
अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रिय सखा थे । पर उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए भी अपनी विनम्रता कभी कम नहीं होने दी । उनकी सख्य भक्ति निष्काम थी । वह श्रीकृष्ण के अखंड स्मरण में रहते थे । जिससे नींद में भी उनका अखंड जप चलता रहता था । कहते हैं श्रीकृष्ण अर्जुन की आत्मा थे तो भगवान भी अपने भक्त के लिए अपना दिव्य लोक छोडकर आए थे ।
भगवान अर्जुन के सारथी बनते हैं । अर्थात भगवान अपने अर्जुन जैसे भक्त के जीवन की डोर अपने हाथ में ले लेते हैं ।
अर्जुन अपनी सभी विद्याओं और शक्ति का आधार श्रीकृष्ण को ही मानते थे ।
सख्य भाव में अर्जुन युद्ध से पहले जब श्रीकृष्ण से मिलने जाते हैं, तब वे उनके चरणों में बैठते हैं । अर्थात पूर्णरूप से उनकी शरण जाते हैं । इसलिए भगवान भी दुर्योधन को नहीं, अपितु उन्हें पहले मांगने का अवसर देते हैं ।
सख्य भाव का दूसरा अनुपम उदाहरण हैं सुदामा !
सुदामा श्रीकृष्ण के अनन्य सखा थे; परंतु उन्होंने कभी भी श्रीकृष्ण से कुछ नहीं मांगा । वह उनकी अखंड निष्काम भक्ति करते थे । उनकी वाणी से नित्य कृष्ण का ही नामस्मरण होता था । हृदय में भी नित्य श्रीकृष्ण की ही स्मृतियां रहती थीं ।
सुदामा अत्यंत निर्धनता के दिनों से गुजर रहे थे । उन्हें अपने परिवार को खिलाने के लिए कितने दिनों तक भोजन भी नहीं मिलता था, परंतु उन्होंने कभी भी श्रीकृष्ण से कोई शिकायत नहीं की । वह पूर्ण श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में ही रहते थे । एक दिन उनकी पत्नी गरीबी से अत्यंत दुखी हो गई । उन्होंने सुदामा से कहा कि जब तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण तुम्हारे सखा हैं तो तुम क्यों नहीं उनसे सहायता मांगते । मित्र से कठिन क्षणों मे सहायता मांगने में क्या बुराई है । सुदामा ज्ञानी थे और उनकी श्रीकृष्ण पर अटूट श्रद्धा भी थी ; परंतु पत्नी के हठ पर उन्होंने श्रीकृष्ण के पास जाने का निश्चय किया । वे थोडे से सत्तू लेकर श्रीकृष्ण से मिलने जाते हैं ।
वह कृष्ण से मिलते हैं, पर वे उनसे कुछ नहीं मांगते । वे तो अपने सखा रूपी प्रभु के दर्शनों से ही इतने आनंद विभोर हो गए थे कि कृष्ण के दर्शनों से ही उन्हें तृप्ति हो जाती है और वे कृष्ण से बिना कुछ मांगे ही घर लौट आते हैं । तत्पश्चात हमें पता ही है कि भगवान कृष्ण भी सुदामा के प्रेम से दिए सत्तू का ऋण कैसे चुकाते हैं । जब सुदामा घर पहुंचते हैं तब वे अपने छोटे से घर के स्थान पर एक महल देखते हैं ।
सुदामा जी ने हमें सिखाया है कि उन्होंने श्रीकृष्ण के सखा होते हुए भी उनसे कुछ अपेक्षा नहीं की, अपितु उनकी निष्काम भक्ति की ।