सूरदासजी की गुरुभक्ति

संत कवि सूरदास

एक बार संत सूरदासजी से श्री चतुर्भुजदासजी ने कहा कि ‘आपने असंख्य पदों की रचना की, श्रीकृष्ण लीलाओं का कोई भी न कर पाए ऐसा अद्भुत वर्णन किया, पर अपने गुरुदेव श्रीमहाप्रभु का यश आपने नहीं वर्णन किया।’ सूरदासजी की गुरु-निष्ठा बोल उठी कि ‘मैं तो उन्हें साक्षात भगवान का रूप समझता हूं । गुरु और भगवान में तनिक भी अंतर नहीं है । मैंने तो आदि से अंत तक उन्हीं का गुणगान किया है ।’

भरोसो दृढ़ इन चरनति केरो।
श्री वल्लभ नख चंद्र छटा बिनु सब जग माझ अँधेरो॥
साधन नाहिं और या कलि में जासों होय निबेरा।
‘सूर’ कहा कहै द्विबिघि आँधरो बिना मोल को चेरा॥

मुझे केवल एक आस, एक विश्‍वास, एक दृढ भरोसा रहा – और वह इन (गुरु) चरणोंं का ही रहा । श्री वल्लभ न आते, तो सूर सूर न होता । उनके श्री नखों की चांदनी छटा के बिना मेरा समस्त संसार घोर अंधेरे में समाया रहता ।

‘मेरे भाइयो, जीवन-नौका पार लग जाए इसके लिए कलियुग में पूर्ण गुरु के बिना कोई साधन, कोई चारा नहीं, जिसके द्वारा सूर आज अंतिम समय में कहता है कि मेरे गुरु वल्लभ ने ही जीवन का बाहरी और भीतरी अंधेरे का हरण किया । वरना मेरी क्या बिसात थी ?’

इससे समझ में आता हैं कि उनकी गुरुभक्ति भी कितनी श्रेष्ठ थी । उन्होंने गुरु और ईश्‍वर में भेद ही नहीं किया । जो भगवद यश है, वही गुरु का भी यश है । गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने ‘भरोसो दृढ इन चरनन केरो’ वाला पद गाकर प्रकट किया । इसी पद में सूरदासजी ने अपने को ‘द्विविध आन्धरो’ भी बताया । गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके ‘चित्त की वृत्ति’ और फिर ‘नेत्र की वृत्ति’ के संबंध में प्रश्‍न किया तो उन्होंने क्रमश: ‘बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी’ तथा ‘खंजन नैन रूप रस माते’ वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनकी मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है । इसके बाद संत सूरदासजी ने शरीर त्याग दिया । गुरुआज्ञा मानकर ही तो उन्होंने अपने को कृष्ण भक्ति में ऐसा डुबो दिया था कि आज भी उनके समान दूसरे भक्त कवि नहीं हुए । ऐसी गुरुआज्ञा का पालन करना और ऐसी गुरुभक्ति भी दुर्लभ ही है । ऐसे गुरु-शिष्य दोनों के ही चरणों में हम कोटि-कोटि नमन करेंगे ।

संत सूरदास जी ने सन् १५८३ ई. में गोवर्धन के पास ‘पारसौली’ नामक ग्राम में अपना देह त्याग किया ।

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