इस घोर कलियुग में ईश्वर की भक्ति ही उत्तम और अंतिम उपाय है । भक्ति से ज्ञान और वैराग्य दोनों ही अपने आप आते हैं । ईश्वर भक्ति जिसके हृदय में बसती है, उसे सपने में भी दु:ख नहीं होता । जिस प्रकार सूर्य के सामने अंधकार नहीं टिक सकता, सिंह के सामने कोई पशु जाने का साहस नहीं करता; उसी प्रकार भक्त के पास भय, चिंता, शोक इत्यादि उनके पास नहीं फटकते । जिनके हृदय में भक्ति का मणि है, उन्हें बुरे विचार नहीं आते हैं । बाहर और अंतर्गत शत्रु उनमें प्रवेश नहीं करते हैं । भक्ति का इतना प्रभाव है कि जहां भक्ति है वहां अंधकार रह ही नहीं सकता ।
अनेक संत, परमेश्वर की भक्ति करके भगवान से एकरूप हो गए । उन्होंने अपनी भक्ति का आदर्श हमारे सामने रखा । आज हम ऐसे ही एक संत का उदाहरण देखेंगे, जिनकी भक्ति का वर्णन करना भी कठिन है । वह संत हैं, भक्त शिरोमणि सूरदास ।
भक्ति काल के सर्वश्रेष्ठ संत कवि सूरदास की रचनाओं को जो भी पढता है, वह श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबे बिना नहीं रह पाता है । ऐसे ही भक्त शिरोमणि सूरदास का जन्म जनश्रुति के आधार पर मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक ग्राम में हुआ था ।
वे जन्म से ही अंधे थे, किंंतु उनके काव्य में, पदों में प्रकृति के सौंदर्य का, कृष्ण की बाललीलाओं का तथा जागतिक वस्तुओं का इतना सूक्ष्म, मार्मिक और अनुभवपूर्ण चित्रण मिलता है कि उनके जन्मांध होने पर विश्वास ही नहीं होगा ।
कहते हैं अंधे बालक सूरदास को जन्म से ही नेत्रहीन होने के कारण अपने मां-बाप का अधिक स्नेह प्राप्त नहीं हुआ था । घर के और अन्य लोग, सभी उनकी उपेक्षा ही करते थे । फिर धीरे-धीरे बालक सूरदास के अलौकिक और पवित्र संस्कार जागृत होने लगे और वे ६ वर्ष की आयु में ही गांव से बाहर एकांत स्थान में एक रमणीय सरोवर के किनारे पीपल-वृक्ष के तले रहने लगे । वे लोगों को शकुन बताते थे और आश्चर्य तो यह था कि उनकी बताई बातें सही होती थीं । एक दिन एक जमींदार की गाय खो गई । सूरदासजी ने एकदम सही पता बता दिया । जमींदार उनके चमत्कार से बहुत प्रभावित हुआ और उसने उनके लिये एक झोपडी बनवा दी । सूरदासजी की कीर्ति चारों ओर फैलने लगी । दूर-दूर के गांवों से लोग उनके पास आने लगे । उनकी मान-प्रतिष्ठा और वैभव दिन-प्रतिदिन बढनेे लगा । सूरदासजी की अवस्था इस समय अठारह वर्ष की थी । उन्होंने विचार किया कि जिस मायामोह से दूर जाने के लिये घर छोडा, वह तो पीछा ही करता आ रहा है । भगवान के भजन में विघ्न होते देखकर सूरदास जी ने उस स्थान को छोड दिया । उन्हें तो भगवान के भजन और ध्यान में ही रस मिलता था । वे मथुरा आ गए, उनका मन वहां भी नहीं लगा । उन्होंने गऊघाट पर रहने का विचार किया । वहीं गऊ घाट पर गुरू श्री वल्लभाचार्यजी से गुरु दीक्षा प्राप्त की ।
गऊघाट में गुरुदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात उनके बताए अनुसार सूरदासजी ने ‘भागवत’ के आधार पर कृष्ण की लीलाओं का गायन प्रारंभ कर दिया । उनके सहस्र पदों से अधिक संग्रह ‘सूरसागर’ के नाम से विख्यात है । सूरदासजी त्यागी, विरक्त और प्रेमी भक्त थे । उन्होंने अपने उपास्य श्रीराधारानी और श्रीकृष्ण की लीलाओं का यश-वर्णन ही श्रेष्ठ मार्ग समझा ।
संत सूरदास की पराकोटि की भक्ति और उनके द्वारा रचित भक्तिमय पदों से सीखने का प्रयास करेंगे ।
संत सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है ।
संत सूरदास के जीवन का एक प्रसंग सुनते हैं । इस छोटी-सी घटना से उनकी कृष्ण के प्रति भक्ति में उनकी वंदन भक्ति, साख्य भक्ति, दास्य भक्ति और आत्मनिवेदन भक्ति के दर्शन होते हैं । इससे उनकी अंतरआत्मा का श्रीकृष्ण से अटूट संबंध ध्यान में आएगा ।
अनन्य कृष्णभक्त संत सूरदास नेत्रहीन थे । एक बार उन्हें रास्ता पार करके दूसरी ओर जाना था । कौन मेरी सहायता करेगा ? ऐसा विचार जब वह कर रहे थे तब साक्षात भगवान श्रीकृष्ण एक बालक के रूप में आकर उन्हें रास्ता पार करने में सहायता करते हैं और रास्ता पार होने पर अपना हाथ छुडाकर चले जाते हैं । तब सूरदासजी के अंत:करण से यह पद उत्पन्न होता है ।
हात छुडाकर जायहू, निर्बल जानके मोही ।
हृदयसे जब जायहू, सबल कहोगे तबही ॥
अर्थ : हे ईश्वर, मुझे दुर्बल समझकर आप मेरा हाथ छुडाकर जा रहे हैं; पर मेरे हृदय से जाकर दिखाएं तभी मैं आपको शक्तिशाली मानूंगा ।
प्राचीनकाल में निरंतर भगवान के अनुसंधान में रहकर ईश्वर से एकरूप हुए सूरदासजी जैसे महान भक्त ही ईश्वर को ऐसा आवाहन दे सकते थे; परंतु आज के कलियुग में कभी-कभी भगवान के अस्तित्व को अनुभव करनेवाले सर्वसामान्य साधक तो केवल आर्तता से प्रार्थना कर सकते हैं कि, ‘‘हे श्रीकृष्णा, अब हमें छोडकर मत जाना, ऐसी मैं आपसे विनती करता हूं और आपके चरण पकडता हूं । अब आप सदा के लिए मेरे हृदय में वास करें । इससे यह ध्यान में आता है कि संत सूरदासजी का भगवान पर कितना शुद्ध, निर्मल, प्रेम है और उनकी भक्ति भी कितनी श्रेष्ठ है । यहां संत सूरदासजी ने जिस प्रकार भगवान से आवाहन किया है उससे लगता है कि भगवान को ऐसा आवाहन स्वीकारने के लिए स्वयं ही अपने भक्त का भक्त बनना पडता है । संत सूरदासजी के इस प्रसंग से हमें उनकी भक्ति कितनी श्रेष्ठ है यह सीखने मिलता है ।
वे सदैव श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे । सूरदासजी ने अपनी रचनाओं में श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का बहुत ही भावमय और सुंदर वर्णन किया है । उनके पदों में बालकाल का ऐसा वर्णन है मानो उन्होंने यह सब स्वयं देखा हो । ऐसा वर्णन करना उसी भक्त के लिए संभव है जो सदैव अपने आराध्य के लोक में ही मन और वचन से वास करता हो । जो इस संसार में रहकर भी ईश्वर के अखंड अनुसंधान में हो –
सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए ॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए ।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए ॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए ।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए ॥
इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदासजी ने।
श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं । एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे ।
सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं । उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है । मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं । ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है । बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं । जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं । उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पड़े कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ़ जाती है । सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए । अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है ।
बाल गोपाल का ऐसा अद्वितीय, हृदय को स्पर्श करनेवाला सजीव वर्णन सुनकर लगता है जैसे श्रीकृष्ण ने स्वयं ही आकर उनके सामने यह लीला की हों । जन्म से नेत्रहीन होकर भी ऐसा सुंदर वर्णन करना, इससे पता चलता है कि सूरदास कोई साधारण भक्त नहीं थे । हृदयस्पर्शी यह प्रबल शक्ति सूरदासजी के पदों में ही मिलती है । स्नेह, वात्सल्य, ममता और प्रेम के जितने भी रूप मानवीय जीवन में मिलते हैं, लगभग सभी का समावेश किसी न किसी रूप में सूरसागर में है । सागर की तरह विस्तार और गहराई दोनों ही विशेषताएं सूर के काव्य में मिलती हैं ।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
सूरदास कहते हैं कि यशोदा को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है । श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) ने बाल लीलाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्त्वपूर्ण है ।
उनके जीवन के इस प्रसंग से सीखने मिलेगा कि भक्त के मन में किसी का भय नहीं होता । उनके हृदय सम्राट उनके भगवान ही होते हैं तो वहां किसी और की अथवा भय को स्थान ही कहां है ।
सूरदास की एक महात्मा के रूप में ख्याति चारों ओर फैलने लगी थी ।
एक बार संगीत-सम्राट् तानसेन अकबर के सामने सूरदास का एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे । बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और सूरदासजी से मिले । उन्होंने सूरदासजी से कुछ पद गाने के लिए कहा तब संत सूरदास जी ने यह पद गाया, जिसका अभिप्राय यह था कि ‘हे मन ! तुम माधव से प्रीति करो ।’ अकबर ने परीक्षा लेनी चाही । उन्होंने सूरदासजी से स्वयं की प्रशंसा में कुछ गाने के लिए कहा । सूर तो राधा-चरण-चारण-चक्रवर्ती श्रीकृष्ण के गायक थे, वे गाने लगे –
नहिन रह्यो हिय महँ ठौर । नंदनंदन अछत कैसें आनिए डर और ॥
इस पर सूरदासजी गाने लगे कि मेरे हृदय में तो केवल नंदनंदन ही बसे हैं और इस कारण दूसरे के बसने का स्थान ही नहीं है । तब मैं आपकी कीर्ति कैसे गाऊं ?
सूरदासजी ने अपनी आत्मा की बात को निर्भयता से बादशाह के सामने कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया । यही सच्चे भक्त की पहचान है । भक्त की अपने ईश्वर पर पूरी निष्ठा के कारण ही तो ईश्वर भी अपने भक्त के अधीन होने के लिए विवश हो जाते हैं ।
अकबर उनकी निर्भयता पर मौन साध गए । भक्त सूरदासजी के मन में सिवाय श्रीकृष्ण के दूसरा रह ही नहीं सकता था । उनका जीवन तो रासेश्वर, लीलाधाम श्रीनिकुंजनायक के प्रेम-मार्ग पर नीलाम हो चुका था ।
संत सूरदासजी भक्ति को ही इस संसार में व्याप्त भय एवं कष्ट से बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता मानते थे । उनका अनुराग ईश्वर के प्रति अप्रतिम है, इसलिए सांसारिकता के प्रति उन्होंने वैराग्य भाव दिखाया है । सांसारिक सुखों की निंदा करते हुए सूरदास ने सभी सांसारिक कार्यों, सुखों और अवस्थाओं को दोषपूर्ण माना है । उनका मानना था कि निष्पक्ष आंखों से देखने पर ही अपने भीतर की अच्छाइयां और बुराइयां दिखाई पडती हैं ।
क्यौरे निंदभर सोया मुसाफर क्यौरे निंदभर सोया ॥ध्रु०॥
मनुजा देहि देवनकु दुर्लभ जन्म अकारन खोया ॥ मुसा०॥१॥
घर दारा जोबन सुत तेरा वामें मन तेरा मोह्या ॥ मुसा०॥२॥
सूरदास प्रभु चलेही पंथकु पिछे नैनूं भरभर रोया ॥ मुसा०॥३
सूरदासजी जीव को सावधान कर रहे है कि क्यों तू इतना सोता है । यदि तूने इस अमूल्य मनुष्य जन्म को यूं ही सांसारिक बातों में गवां दिया तो अंत समय में पछताना पडेगा । इसलिए अभी से, आज से ही ईश्वर स्मरण प्रारंभ करना है ।
ईश्वर के गुणों की अधिकता और उनके समक्ष अपनी लघुता का भाव उन्होंने सूरसागर के आरंभ में बार-बार प्रकट किया हैं । वे कहते हैं कि अगर उन्होंने ईश्वर-भक्ति नहीं की तो उनका इस संसार में जन्म लेना ही व्यर्थ है –
‘‘सूरदास भगवंत भजन बिनु धरनी जननी बोझ कत मारी ।’’
‘‘सूरदास प्रभु तुम्हरे भजन बिनु जैसे सूकर स्वान-सियार ॥’’
सूरदासजी कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे भजन के बिना तो मैं धरती मां पर बोझ हूं । तुम्हारे भजन के बिना तो हम सुअर, कुत्ते और सियार के ही समान हैं । इधर सूरदास जी मनुष्य का बताना चाहते हैं कि जो मनुष्य ईश्वर की भक्ति नहीं करता है, उसका जीवन पशु समान है ।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥
सूरदासजी कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है । श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं । इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं । सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।
सूरदास जी की आत्मनिवेदन भक्ति
कोण गती ब्रिजनाथ । अब मोरी कोण गती ब्रिजनाथ ॥ध्रु०॥
भजनबिमुख अरु स्मरत नही । फिरत विषया साथ ॥१॥
हूं पतीत अपराधी पूरन । आचरु कर्म विकार ॥२॥
काम क्रोध अरु लाभ । चित्रवत नाथ तुमही ॥३॥
विकार अब चरण सरण लपटाणो । राखीलो महाराज ॥४॥
सूरदास प्रभु पतीतपावन । सरनको ब्रीद संभार ॥५॥
हे श्रीकृष्ण, हे ब्रजनाथ, अब मेरी क्या गति होगी ? मैंने जीवनभर न तो भजन किया और न आपका स्मरण ही किया; माया में लिप्त होकर मैं पतित और अपराधी हो गया । कर्म भी बुरे किए हैं । हे नाथ, मेरा चित्त काम, क्रोध और लोभ जैसे विकारों से भरा हुआ है । हे महाराज, अब मैं आपके चरण पकडता हूं, मेरी लाज रखिए । सूरदासजी कहते हैं, हे प्रभु आप पापियों का उद्धार करने के लिए प्रसिद्ध हैं; अपनी इस कीर्ति की रक्षा कीजिए और मेरा उद्धार करिए ।
यहां उनसे, गोपियों के माध्यम से ईश्वर के विरह में एक भक्त कैसे याचना करता है, वह सीखने मिलता है ।
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै ।
गोपी गाइ ग्वाल गौ-सुत सब दीन मलीन दिंनहिं दिन छीजै ॥
नैन नीर-धारा बाढ़ी अति ब्रज किन कर गहि लीजै ।
इतनी बिनती सुनहु हमारी, बारक तो पतियां लिखि दीजै ॥
चरन कमल-दरसन नवनौका करुनासिन्धु जगत जसु लीजै ।
सूरदास प्रभु आस मिलन की एक बार आवन ब्रज कीजै ॥
हे श्रीकृष्ण, हे नाथ, आपके जाने से अनाथ हुए गोपी, ग्वाला, गाय और उनके बछडे सब दुखी हैं और उनके शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होते जा रहे हैं । उनके नैनों से नीर की धाराएं बह रही हैं अर्थात वे दिन-रात रोते ही रहते हैं । आप ब्रज लौटकर इन्हें सहारा दीजिए । हे प्रभु, मेरी यह छोटी-सी विनती सुन लीजिए अथवा एक छोटी-सी चिट्ठी ही लिखकर भेज दीजिए । हे करुणासिन्धु, हे तारनहार, हम आपके चरणकमलों के दर्शन करना चाहते हैं । सूरदासजी कहते हैं, हे प्रभु ! आपसे मिलने की हम बहुत आस लगाए बैठे हैं, एक बार तो ब्रज में लौट आइए ।