नवविधा भक्ति : अर्चन भक्ति

अर्चन भक्ति

भगवान के साकार रूप के साथ स्वयं का गहन नाता स्थापित करने का प्रयास और उसके लिए किया गया प्रत्येक प्रेममय कृत्य है ‘अर्चन’ ।

अर्चन का अर्थ पूजा ! मन, वचन और कर्म द्वारा भगवान की अर्चना करना अर्थात पूजा करना, ‘अर्चन भक्ति है । अर्चन से भक्त के मन में अपने अराध्य देवता के प्रति अराधना का भाव जागृत होता है । मंदिर की मूर्ति, गुरु और उनके भक्त ही उसके लिए भगवान के रूप हो जाते हैं और वह उन्हें ही भगवान समझकर उनकी षोडशोपचार पूजा अथवा पंचोपचार पूजा और मानसपूजा करता है । वह अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु भगवान को अर्पित करने के लिए आतुर हो जाता है । अर्चन भक्ति, भगवान के प्रति श्रद्धा, निकटता एवं समर्पण का प्रतीक है ।

संत सूरदासजी कहते हैं समस्त इंद्रियों को अपने वश में कर भगवान की मन, वाणी और कर्म से अर्चना और वंदना की जानी चाहिए ।

इंद्री सुख को दोउ त्यागि । धरै सदा हरि पद अनुराग ।
ऐसी विधि हरि पूजै सदा । हरि हित लावै सब संपदा ।

अर्चन भक्ति अर्थात मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र होकर भगवान की अर्चना करना ।

  • मन से पवित्र होकर अर्चना करना – अर्थात मन में कोई भी बुरे विचार, नकारात्मक विचार न लाना, दोष-अहं के विचार न करना
  • वचन से पवित्र होना – अर्थात वाणी से किसी को न आहत करना । अर्चन के समय केवल ईश्‍वर की स्तुति करना, अन्यथा कभी-कभी पूजाविधि चल रही है और किसी का फोन आ जानेपर उससे बात करते-करते पूजा करने से देवता की कृपा मिलना कम हो सकती है ।
  • कर्म – योग्य कृति अर्थात त्रुटिरहित अर्चना करना, अन्यथा पूजा के लिए बैठने पर यदि हम कुछ भूल जाते हैं तो पुन: उठना पडता है ।

 

अर्चन भक्ति कैसे करेंगे ?

  • मन – मन में भाव रखकर
  • वचन – शुद्ध भाव से स्तुति करते रहना, अखंड नामजप करते-करते अर्चन करना
  • कर्म – परिपूर्ण तैयारी करना जैसे पूजा की सभी सामग्री व्यवस्थित रखना, थाली में सजाना, पूजा स्थल स्वच्छ रखना ।

श्रेष्ठ भाव का उदाहरण – परमपूज्य भक्तराज महाराजजी ने पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर में विठ्ठल भगवानजी को पेढा खिलाया और भगवान ने उसे ग्रहण भी किया ।

 

१. देवतापूजन

अर्चनभक्ति में स्थूल पूजा और मानसपूजा, ये २ पद्धतियां हैं । सर्वसामान्य जीवों के लिए स्थूल पूजा की आवश्यकता होती है । चंचल मन को स्थिर करने हेतु, एकाग्रता साधने हेतु स्थूल पूजा को प्राथमिक चरण कहा जा सकता है । अर्चनभक्ति करते समय मूर्तिपूजा केवल औपचारिक पूजा नहीं है, अपितु उस मूर्ति में हमारे इष्टदेवता विराजमान हैं । हम उनका पूजन कर रहे हैं, यह भाव होना चाहिए । इस भाव के कारण सजीवता का अनुभव होता है । यदि हम ऐसा अनुभव करें कि अपने सद्गुरु की मूर्ति अथवा उनकी पादुकाओं की पूजा कर रहे हैं, तो पूजन का प्रत्येक कृत्य केवल कृत्य के रूप में न होकर वह मन से और भावपूर्ण होगा । प्रत्येक घर में देवतापूजन तो होता ही है । हममें से अनेक साधक देवतापूजन करते भी होंगे । हम जब पूजा करते हैं, तब क्या हमारे मन में इसी प्रकार का भाव होता है, इसका निरीक्षण करेंगे । भावसत्संग से हमने पूजाघर और देवतापूजन का महत्त्व और अध्यात्मशास्त्र के अनुसार, साथ ही भाव के स्तरपर पूजा कैसी करनी चाहिए, यह तो सीखा ही है ।

देवतापूजन का अर्थ भगवान के साथ अनुसंधान ! देवता का पूजन करते समय यदि वह भावपूर्ण होगा, तो हमें निश्‍चितरूप से भगवान के अस्तित्व की अनुभूति होती है । यदि हम केवल मूर्ति मानकर पूजन करेंगे; तो उससे हमें आनंद नहीं मिलेगा । वह केवल एक कृत्य होगा । अब सभी लोगों की यह मानसिकता है कि इसके लिए उनके पास समय नहीं है । आजकल तो कई घरों में देवतापूजन भी नहीं होता । यदि करते भी हैं तो जल्दबाजी में । मूर्तिपर पानी डालकर चरणों में फूल रख दिया, और हो गई पूजा ! ऐसी पूजा से भगवान प्रसन्न नहीं होंगे । हम जितनी भावपूर्ण पूजा करेंगे, उतना उस मूर्ति में देवताका तत्त्व कार्यरत होता है । वही भगवान हमारे घर की रक्षा करते हैं । इसलिए हमारे घर में पूजाघर है; इसीलिए हमारे घर की रक्षा हो रही है, यह भाव मन में होना बहुत आवश्यक है ।

‘श्रीमद्भागवत’ ग्रंथ में ‘देवता के प्रति श्रद्धायुक्त अंतःकरण से विधिवत किए गए उपचारों का समर्पण का अर्थ है पूजा !’, ऐसी व्याख्या है । हमारे मन में भक्तिभाव का केंद्र तैयार होने अथवा देवता की कृपादृष्टि प्राप्त करने हेतु, घर का वातावरण सात्त्विक बनाने हेतु और आज की पीढी के मनपर धार्मिकता का संस्कार होने हेतु देवतापूजन से सहायता मिलती है ।

पूजा एक सगुण भक्ति का प्रकार है, इससे तो सभी परीचित हैं । पूजा कर्मकांड का ही भाग है; परंतु यह कर्मकांड करते समय मन की स्थिति क्या है, इसे ध्यान में लेना आवश्यक है । भक्ति का दिखावा करने से पूजा भगवान तक नहीं पहुंचती । केवल मन का भाव ही भगवान तक पहुंचता है । हम अपनी पूजा में कौन से उपचार समर्पित करते हैं, इसकी अपेक्षा हम उसे किस भाव से अर्पित करते हैं, उसके आधारपर भगवान उसे स्वीकारते हैं । ‘मेरे पास सब कुछ है’, इस अहंकार के साथ अर्पित पंचपकवान भी भगवान ग्रहण नहीं करते; परंतु हमने भक्तिभाव के साथ उनके सामने केवल चीनी भी रखी, तो भगवान आनंद से उसे ग्रहण करते हैं । अहंकारी दुर्योधन और कृष्णभक्त विदुर का उदाहरण हमें ज्ञात है ही कि किस प्रकार दुर्योधन की मेवा त्याग कर, श्रीकृष्णजी विदुर के पास गए । इसे ध्यान में लेकर हम स्थूलरूप से पूजा करते समय उसे अत्यंत भावपूर्ण करने का प्रयास करेंगे । अभी बताए गए सूत्रों को लाभ उठाकर उसके द्वारा भगवान के साथ अनुसंधान साधने का अनुभव करेंगे ।

 

२. मानसपूजा

देवतापूजन हम दिन में एक बार ही कर सकते हैं । उसे स्थल की मर्यादा है; परंतु अर्चनभक्ति की दूसरी पद्धति है मानसपूजा ! साधना की दृष्टि से स्थूल से पूजा करना पहला चरण है, उसके पश्‍चात मन के स्तर की उपासना का आरंभ होता है । इस चरण तक पहुंचने का सरल साधन है मानसपूजा !

मानसपूजा के लाभ

मानसपूजा में हम अपनेे मन पर अंकित देवता के रूप की पूजा कर सकते हैं । इस पूजा का लाभ है स्थल, उपकरण, शुचिता इत्यादि कर्मकांड के अंतर्गत बंधन उसके लिए लागू न होने से वह कहींपर भी की जा सकती है । उसका दूसरा लाभ है मानसपूजा में अखिल ब्रह्मांड में स्थित कोई भी उत्तम से उत्तम वस्तु भी देवता को अर्पित की जा सकती है । इससे भी श्रेष्ठ तीसरा लाभ यह है कि जितने समय हम मानसपूजा करेंगे, उतने समय तक हम देवता के अनुसंधान में रह पाते हैं । साधक को साधना में भावजागृति होने में इस मानसपूजा से बहुत सहायता मिलती है ।

मानसपूजा छोटों से लेकर बडों तक, सभी लोग कभी भी और कहीं भी कर सकते हैं और उस माध्यम से ईश्‍वरीय अस्तित्व की अनुभूति भी ले सकते हैं ।

संत सूरदासजी अर्चन भक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं जब भक्त का मन बाह्य पूजा में नहीं अटकता और वह अपने सारा जीवन और व्यक्तित्व को ही पूजा के उपकरण बना लेता है, तब भक्त का हृदय ही उसका मंदिर और उसके अंतर में स्थित अंतर्यामी उसकी अराध्य मूर्ति हो जाते हैं ।

अर्चनभक्ति का अर्थ : अर्चनभक्ति करते-करते स्वयं को समर्पित करना !

तन-मन-धन, वाणी,चित्त और सर्वस्व अर्पण कर भावपूर्ण ढंग से परमेश्‍वर का पूजन करना अर्चनभक्ति है । भगवान को पूजन के द्वारा विविध उपचार अर्पण करते-करते स्वयं को भी अर्पण करना ही वास्तविक अर्चनभक्ति है । स्वयं को अर्पण करने का अर्थ अहंकार, ‘मैं’ पन और कर्तापन छोडकर भगवान के चरणों में शरणागत होना ।

 

भक्त अंबरीष की कथा

अर्चनभक्ति के कारण अर्थात ‘स्व’ को भगवान के चरणों में समर्पित करने से भक्त और भगवान के बीच एक नाता बन जाता है, इसका एक सुंदर उदाहरण है राजा अंबरीष का ! राजा अंबरीष इक्ष्वाकु वंश के परमवीर राजा थे । इसके साथ ही वे भगवान श्रीविष्णुजी के परमभक्त भी थे । सौभाग्यशाली अंबरीष को सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वी, कभी न समाप्त होनेवाली संपत्ति और अतुलनीय ऐश्‍वर्य प्राप्त था । मनुष्य के लिए भले ही ये सभी बातें दुर्लभ हों; परंतु राजा अंबरीष का उनके प्रति मोह नहीं था । वे उन्हें स्वप्न की भांति मानते थे; क्योंकि वैभव नाशवंत है और उससे मनुष्य घोर नरक को प्राप्त होता है, यह वे जानते थे । भगवान श्रीकृष्ण और उनके भक्तों पर उनका अत्यंत प्रेम था और एक बार जो यह पा लेता है, फिर उसे यह संपूूर्ण विश्‍व किसी मिट्टी के ढेर की भांति (तुच्छ) लगने लगता है । उन्होंने अपना मन श्रीकृष्णजी के चरणों में लगा रखा था । उनकी वाणी सदा भगवद्गुणों के वर्णन में व्यस्त रहती थी, हाथ हरिमंदिर के सेवाकार्यों में और कान उन्होंने अच्युतजी की कथा-श्रवण में लगा रखे थे । उनके नेत्र भगवान और मंदिर दर्शन के लिए व्याकुल रहते थे । उनकी नाक भगवान के चरणकमलोंपर अर्पित दिव्य तुलसी के गंध में और जिव्हा भगवान को अर्पित प्रसाद का सेवन करने में स्वयं को धनी मानते थे । उनके पैर भगवान की पैदल तीर्थयात्रा करने में और मस्तक श्रीकृष्णजी के चरणकमलों की वंदना करने में मग्न रहता था । इस प्रकार उन्होंने भगवान को सर्वस्वरूप मानकर अपने सभी कर्म और शरीर का प्रत्येक अंग जैसे हाथ, पैर, कान, नेत्र, नाक, जिव्हा इन सभी को भगवान को समर्पित कर दिया था ।

इस प्रकार तपश्‍चर्या से युक्त उनके भक्तियोग के कारण भगवान को उन्होंने प्रसन्न कर लिया । भगवान ने उनकी अनन्य भक्तिपर प्रसन्न होकर भगवद्भक्तों की रक्षा करनेवाला सुदर्शनचक्र प्रदान किया था । वह सुदर्शनचक्र सदैव उनके साथ रहकर उनकी रक्षा करता था । इससे अंबरीष की भक्ति कितनी श्रेष्ठ थी कि साक्षात भगवान का सुदर्शनचक्र भी उनके लिए कार्यरत था ।

जब भक्त भगवान को अपना सबकुछ समर्पित करता है, तब भगवान भी भक्त की रक्षा करते हैं । हमारा भार स्वयं परमेश्‍वर उठाते हैं ।

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