क्या गुरु बदल सकते हैं ?

क्या गुरु बदल सकते हैं अथवा नए गुरु करना उचित है ?

हां, हमारे शास्त्रों में भी इसका उचित उल्लेख है ।

शिवपुराण के एक श्‍लोक के अनुसार –

यत्रानन्दः प्रबोधो वा नाल्पमप्युपलभ्यते ।
संवत्सरादपि शिष्येन सोऽन्यं गुरुमुपानयेत् ॥

अर्थ : गुरुके बताए अनुसार एक वर्ष साधना करने पर यदि अल्प-मात्रा में भी आनंद एवं प्रबोध प्राप्त न हों, तो दूसरे गुरु की शरण में अवश्य जाएं ।

इसमें कुछ महत्वपूर्ण सूत्र ध्यान में रखकर सही निर्णय ले सकते हैं । इससे भी अधिक उचित है, किसी उन्नत महापुरुष अथवा साधना में उन्नत साधक से पूछकर यह करना ।

यदि गुरु द्वारा बताई साधना से कष्ट हो रहा हो, तो उसका कारण पूछें । शंकासमाधान न हो अथवा कष्ट अधिक हो, तो वह साधना बंद कर उस गुरु को छोड दें ।

नए गुरु करने का विचार मन में आने का अर्थ है, ‘हमारी अपनी ही पात्रता अल्प है और हम गुरु को दोष दे रहे हैं’ अथवा ‘गुरु के प्रति कदाचित हमारी श्रद्धा ही अल्प है’ । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि गुरु के बाह्य आचरण, जैसे ‘अपशब्द बोलना’ इत्यादि के कारण कुछ शिष्यों में विकल्प उत्पन्न होते हैं । ऐसे में ‘अपनी पात्रता अल्प है अथवा गुरु की’, इस सूत्र की गहराई में न जाकर नए गुरु करना ही सर्वोत्तम है; क्योंकि एक बार मन में संदेह उत्पन्न हो जाए, तो साधना उचित ढंग से नहीं होती ।

गुरु के सान्निध्य में रहने पर यदि लगे, ‘गुरु के ज्ञान एवं अनुभूति में अल्पता है’ अथवा अन्य किसी कारणवश गुरु के प्रति मन में संदेह उत्पन्न हो, तो नए गुरु कर सकते हैं ।

 

नए गुरु करने से दोष लगता है क्या?

कुलार्णवतन्त्र के अनुसार –

अनभिज्ञं गुरुं प्राप्य संशयच्छेदकारकम् ।
गुरुरन्यतरं गत्वा नैतद्दोषेण लिप्यते ॥
मधुलुब्धो यथा भृङ्गः पुष्पात् पुष्पान्तरं व्रजेत् ।
ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो गुरोर्गुर्वन्तरं व्रजेत् ॥

अर्थ : गुरु के अज्ञानी होने के कारण यदि शिष्य के संदेह का नाश न हो, तोे संदेह का नाश करने में समर्थ गुरु के पास जाने से शिष्य को कोई दोष नहीं लगता । जिस प्रकार मधु (शहद) प्राप्त करने हेतु मधुमक्खी एक फूल से दूसरे फूल पर जाती है, उसी प्रकार जो ज्ञानार्थी शिष्य है वह भी ज्ञानप्राप्ति होनेतक एक गुरु से दूसरे गुरु की ओर जाता है ।’

यहां ज्ञानार्थी को प्राप्त गुरु, गुरु न होकर केवल शिक्षक होते हैं । भगवान दत्तात्रेय के जो चौबीस गुरु थे (श्रीमद़्भागवत, स्कंध ११), वे गुरु नहीं; अपितु शिक्षक अथवा उपगुरु थे ।

 

भगवान दत्तात्रेय के तो अनेक गुरु हैं ? तब मैं भी तो अनेक गुरु कर ही सकता हूं ?

इस संदर्भ में भगवान दत्तात्रेय और यदुराजा का एक संवाद हैं, जहां पर दत्त भगवान यदुराजा से बोलते हैं – हे यदुराजा, तुम सोचते होगे कि जब आत्मज्ञानप्राप्ति हेतु एक गुरु समर्थ हैं, तो अनेक गुरु करने की क्या आवश्यकता है ? क्या इस प्रकार का आचरण एक व्यभिचारिणी स्त्री के आचरणसमान नहीं ? इसका उत्तर यह है कि आत्मज्ञानप्राप्ति हेतु एक ही गुरु पर्याप्त हैं । उनके उपदेशसंबंधी संंदेह उत्पन्न हो, तो उसे दूर करें । चराचर वस्तुओं में आत्मैक्य देख पाने के लिए मैंने इन पदार्थों का गुण गुरुरूप में ग्रहण किया । इस प्रकार जो ज्ञान मुझे अपने गुरु से प्राप्त हुआ, वह ज्ञान अनेक गुणगुरु करने से दृढ हो गया ।

 

कौन-से गुरु नहीं करने चाहिए अथवा त्याग देने चाहिए ?

स्वामी समर्थ रामदासजी दासबोध में लिखते है – उस गुरु का त्याग करें जो ज्ञानप्राप्ति का साधन न दे सके । जो गुरु शिष्य को साधना की ओर प्रवृत्त नहीं करते अथवा इंद्रियों का दमन नहीं करते, ऐसे गुरु पैसे के तीन मिलें तो भी नहीं अपनाने चाहिए ।

 

मन में यह भय होता है कि यदि मैंने नए गुरु किए
तो पहले के गुरु क्रोधित होंगे ? ऐसे स्थिति में क्या करें ?

नए गुरु करने पर पूर्व गुरु क्रोधित होंगे, इस बात की चिंता न करें; क्योंकि खरे गुरु काम, क्रोधादि षडविकार तथा आसक्ति के परे होते हैं । वे केवल शिष्यों की संख्या बढाने के पीछे नहीं रहते । इस कारण वह कदापि क्रोधित नहीं होते । अब गुरु खरे नहीं, ढोंगी हैं, तो उनके प्रकोप की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं । क्योंकि ऐसे ढोंगी गुरु के पास न शक्ति होती है, न उनके पास रहने से हमें कोई लाभ होता है ।

 

कौन-सी स्थिति में हमें गुरु नहीं बदलने चाहिए ?

कुछ लोगों की मोहमाया की इच्छाएं तृप्त ही नहीं होतीं । वे गुरु के पास सतत कुछ ना कुछ मांगते ही रहते हैं । वे लोग भूल जाते हैं कि मन की इच्छा नष्ट कर मनोलय करवाना ही गुरु का खरा कार्य है । स्वयं गुरु ने अपने जीवन में सबकुछ का त्याग किया है, तो क्या वे हमें माया में अटकने देंगे । जिस प्रकार अच्छी दिखनेवाली बोतल में यदि विष होगा, तो बालक के कितना भी आग्रह करने से कोई माता वह बोतल बालक के हाथ में नहीं देती है, उसी प्रकार माया के प्रति हम आग्रह करते हैं, तो गुरु माया के प्रति हमारे लगाव को समाप्त कर हमारा ध्यान आध्यात्मिक उन्नति की ओर करते हैं, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।

मन की इच्छा तृप्त न होने पर कुछ लोगों को लगता है कि हमारे गुरु योग्य नहीं हैं । अब हमें दूसरा गुरु करना चाहिए’, इस विचार का अर्थ यही है कि हम स्वयं को गुरु की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समझते हैं ।

एक शिष्य के जीवन में प्रत्येक कार्य में बाधाएं आने से शिष्य को कष्ट हुआ, उदा. बेटी के विवाहोपरांत दो-तीन वर्षतक उसे ससुराल में अत्यधिक कष्ट हुआ । एक बेटा नौकरी के लिए विदेश न जाकर यहीं रह गया । यहां जिस प्रतिष्ठान में (कंपनी में) वह नौकरी कर रहा था वह प्रतिष्ठान (कंपनी) ही बंद हो गया । पांच वर्ष परिश्रम करने पर भी दूसरे बेटे के धंधे में स्थिरता नहीं आई ।

इस संदर्भ में गुरु से पूछने पर, गुरु ने कहा – ‘साधना ठीक तरह नहीं हुई, साधना श्रद्धापूर्वक नहीं हुई ।’ तब शिष्य के मन में विकल्प आया कि गुरु मेरी समस्याएं दूर नहीं कर रहे हैं और ये सब उनके बहाने हैं ।

किसी के साथ ऐसा हो तब उसे समझना चाहिए, ‘यह मेरी परीक्षा है ।’ वह गुरु के प्रति श्रद्धा घटने न दे तथा साधना जारी रखे । जरा सोचिए, साक्षात भगवान श्रीकृष्ण का साथ रहते हुए भी पाण्डवों की इतनी कठोर परीक्षाएं हुईं, तब भी भगवान श्रीकृष्ण पर उनकी श्रद्धा अल्प नहीं हुई । हमारे जीवन में जो प्रारब्ध है, उसे हमें भुगतना ही है, यह सोचकर व्यवहार की घटनाओं में असफलता मिलने पर गुरु बदलने नहीं चाहिए ।

 

गुरु की क्षमता के संदर्भ में बीच-बीच में मन में संदेह उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों ?

साधना करके आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत पर पहुंचने तक साधना मार्गसंबंधी एवं गुरु की क्षमता के संदर्भ में बीच-बीच में मन में संदेह उत्पन्न होता है । आगे ऐसा नहीं होता; क्योंकि उस आध्यात्मिक स्तर तक ही मन कार्यरत रहता है, एवं संदेह आना मन का कार्य है । आगे मनोलय होने के पश्‍चात संदेह उत्पन्न ही नहीं होता ।

संत कबीर कहते हैं –

सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम ।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥

अर्थ : सौ-सौ नाच नाचने पडते हैं, तब गुरु का प्रेम निभता है ।

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